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32 ॥ श्रीहरि: ।। श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत
महाभारत (प्रथम खण्ड)
[आदिपर्व और सभापर्३व] (सचित्र, सरल हिंदी-अनुवाद)
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्व सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव ।।
अनुवादक--
-_ साहित्याचार्य पणिडत रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम'
सं० २०७२ सत्रहवाँ पुनर्मुद्रण. ३,५०० कुल मुद्रण... ८६,७००
प्रकाशक--
गीताप्रेस, गोरखपुर--२७३००५ (गोबिन्दभवन-कार्यालय, कोलकाता का संस्थान) फोन : (०५५१) २३३४७२१, २३३१२५०; फैक्स : (०५५१) २३३६९९७
जज : शा997/९5५5.072 ९-नाभा। : 900ए59९508 शं।977९5५.०९ गीताप्रेस प्रकाशन शा9०7९5६०००ए५७॥०फए था से ०॥४॥९ खरीदें।
॥। ७ श्रीपरमात्मने नमः ।।
नम्र निवेदन महाभारत आर्य-संस्कृति तथा सनातनधर्मका एक महान ग्रन्थ तथा
अमूल्य रत्नोंका अपार भण्डार है। भगवान् वेदव्यास स्वयं कहते हैं कि “इस महाभारतमें मैंने वेदोंके रहस्य और विस्तार, उपनिषदोंके सम्पूर्ण सार, इतिहास- पुराणोंके उन्मेष और निमेष, चातुर्वर्ण्यके विधान, पुराणोंके आशय, ग्रह-नक्षत्र-तारा आदिके परिमाण, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, पाशुपत (अन्तर्यामीकी महिमा), तीर्थों, पुण्य देशों, नदियों, पर्वतों, वनों तथा समुद्रोंका भी वर्णन किया गया है। अतएव महाभारत महाकाव्य है, गूढ़ार्थमय ज्ञान-विज्ञान-शान्त्र है, धर्मग्रन्थ है, राजनीतिक दर्शन है, कर्मयोग-दर्शन है, भक्ति-शास्त्र है, अध्यात्म-शास्त्र है, आर्यजातिका इतिहास है और सर्वार्थसाधक तथा सर्वशास्त्रसंग्रह है। सबसे अधिक महत्त्वकी बात तो यह है कि इसमें एक, अद्वितीय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वलोकमहेश्वर, परमयोगेश्वर, अचिन्त्यानन्त गुणगणसम्पन्न, सृष्टि-स्थिति- प्रलयकारी, विचित्र. लीलाविहारी, भक्त-भक्तिमान्, भक्त-सर्वस्व, निखिलरसामृतसिन्धु, अनन्त प्रेमाधार, प्रेमघनविग्रह, सच्चिदानन्दधन, वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णके गुण-गौरवका मधुर गान है। इसकी महिमा अपार है। औपनिषद ऋषिने भी इतिहास-पुराणको पंचम वेद बताकर महाभारतकी सर्वोपरि महत्ता स्वीकार की है।
इस महाभारतके हिन्दीमें कई अनुवाद इससे पहले प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु इस समय मूल संस्कृत तथा हिन्दी-अनुवादसहित सम्पूर्ण ग्रन्थ शायद उपलब्ध नहीं है। इसे गीताप्रेसने संवत् १९९९ में प्रकाशित किया था, किन्तु परिस्थिति एवं साधनोंके अभावमें पाठकोंकी सेवामें नहीं दिया जा सका। भगवत्कृपासे इसे पुनर्मुद्रित करमेका सुअवसर अब प्राप्त हुआ है।
इस महाभारतमें मुख्यतः नीलकण्ठीके अनुसार पाठ लिया गया है। साथ ही दाक्षिणात्य पाठके उपयोगी अंशोंको सम्मिलित किया गया है और इसीके अनुसार बीच-बीचमें उसके श्लोक अर्थसहित दे दिये गये हैं पर उन शलोकोंकी शलोक-संख्या न तो मूलमें दी गयी है, न अर्थमें ही। अध्यायके अन्तमें दाक्षिणात्य पाठके श्लोकोंकी संख्या अलग बताकर उक्त अध्यायकी पूर्ण श्लोक-संख्या बता दी गयी है और इसी प्रकार पर्वके अन्तमें लिये हुए दाक्षिणात्य अधिक पाठके श्लोकोंकी संख्या अलग- अलग बताकर उस पर्वकी पूर्ण श्लोक-संख्या भी दे दी गयी है। इसके अतिरिक्त महाभारतके पूर्वप्रकाशित अन्यान्य संस्करणों तथा पूनाके संस्करणसे भी पाठ-
निर्णयमें सहायता ली गयी है और अच्छा प्रतीत होनेपर उनके मूलपाठ या पाठान्तरको भी ग्रहण किया गया है। इस संस्करणमें कुल शलोक-संख्या १००२१७ है। इसमें उत्तर भारतीय पाठकी ८६६००, दाक्षिणात्य पाठकी ६५८४ तथा “उवाच! की संख्या ७०३२ है।
इस विशाल ग्रन्थके हिन्दी-अनुवादका प्राय: सारा कार्य गीताप्रेसके प्रसिद्ध तथा सिद्धहस्त भाषान्तरकार संस्कृत-हिन्दी दोनों भाषाओंके सफल लेखक तथा कवि, परम विद्दान् पण्डितप्रवर श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री महोदयने किया है। इसीसे अनुवादकी भाषा सरल होनेके साथ ही इतनी सुमधुर हो सकी है। दार्शनिक वयोवृद्ध विद्वान् डॉ० श्रीभगवानदासजीने इस अनुवादकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
आदिपर्व तथा कुछ अन्य पर्वोके कुछ अनुवादको हमारे परम आदरणीय विद्वान् स्वामीजी श्रीअखण्डानन्दजी महाराजने भी कृपापूर्वक देखा है; इसके लिये हम उनके कृतज्ञ हैं।
इसके अतिरिक्त, पाठनिर्णय तथा अनुवाद देखनेका सारा कार्य हमारे परमश्रद्धेय.. श्रीजयदयालजी . गोयन्दकाने समय-समयपर स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी, श्रीहरिकृष्णदासजी गोयन्दका, श्रीघनश्यामदासजी जालान, श्रीवासुदेवजी काबरा आदिको साथ रखकर किया है। श्रीगोयन्दकाजी तथा इन महानुभावोंने इतनी लगनके साथ बहुत लम्बा समय नियमितरूपसे देकर काम न किया होता तो इस विशाल ग्रन्थका प्रकाशन होना सम्भव नहीं था।
इस प्रकार भगवत्कृपासे यह महान् कार्य ६ खण्डोंमें पूरा हुआ है। आशा है, भारतीय जनता इससे लाभ उठाकर धार्मिक जीवनयापन एवं अपने जीवनको सफल बनानेमें सक्षम होगी।
विनीत--प्रकाशक
झखुक्पा मपजी (आदिपर्व)
अध्याय विषय (अनुक्रमणिकापर्व) $- ग्रन्थका उपक्रम, ग्रन्थमें कहे हुए अधिकांश विषयोंकी संक्षिप्त सूची तथा इसके पाठकी महिमा
(पर्वसंग्रहपर्व)
(पौष्यपर्व) 3- जनमेजयको सरमाका शाप,_जनमेजयद्वारा सोमश्रवाका पुरोहितके पदपर वरण, आरुणि,_उपमन्यु,_वेद_और उत्तंककी गुरुभक्ति तथा उत्तंकका सर्पयज्ञके लिये जनमेजयको प्रोत्साहन देना
(पौलोमपर्व)
४- कथा-प्रवेश
५- भगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी अग्निदेवके साथ बातचीत
६- महर्षि च्यवनका जन्म,_उनके तेजसे पुलोमा राक्षसका भस्म होना तथा भृगुका अग्निदेवको शाप देना
७- शापसे कुपित हुए_अग्निदेवका अदृश्य होना और ब्रह्माजीका उनके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना
८- प्रमद्वराका जन्म,_रुरुके साथ उसका वाग्दान तथा विवाहके पहले ही साँपके कावनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु
९- रुरुकी आधी आयुसे प्रमद्वराका जीवित होना,_रुर्के साथ उसका विवाह,_रुरुका सर्पोंको मारनेका निश्चय तथा रुरु-डुण्डुभ-संवाद
११- डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुकुको अहिंसाका उपदेश १२- जनमेजयके सर्पसत्रके विषयमें रुकुकी जिज्ञासा और पिताद्वारा उसकी पूर्ति
पितरोंके अनुरोधसे विवाहके लिये उद्यत होना किकी बहिनद 3नका पाएणिग्र पाणिग्रहण
हुए आगे बढ़ना | २३- पराजित विनताका कद्रकी दासी होना,_गरुडकी उत्पत्ति तथा देवताओंद्वारा
उनकी नक ] | स्तुति
सर्पोंसे उपाय पूछना २८- गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अ लिये जाना और अपनी माताकी
भक्षण करना २९- कश्यपजीका गरुडको हाथी ३ गर् और कछएके पूर्वजन्म
४१- शृंगी ऋषिका राजा परीक्षितको शाप देना
करते हुए शापको अनुचित बताना
रा आत्मरक्षाव गि व्यवस्था तथा तक्षक नाग और काश्यपकी बातचीत
देना और छलसे राजा परीक्षितके समीप
५४- माताकी आज्ञासे मामाको सान्त्वना देकर आस्तीकका सर्पयज्ञमें जाना हि शस्तीकके द्वारा यजमान,_य
८- देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुएँमें गिरायी गयी दे य॒यातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यजीके साथ वार्तालाप
[द्वारा देवयानीको समझाना और
श॒की चर्चा करना
जन संवाद जि जा एल कै दिये हुए पुण्यदानकोी अस्वीकार
राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक
आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
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९८- शान्तनु _और गंगाका कुछ शर्तोंके साथ सम्बन्ध,_वसुओंका जन्म और शापसे
उद्धार तथा भीष्मकी उत्पत्ति
३२००- शान्तनुके 5 रूप,_गुण और बल की प्र प्रा तथा देवबतवी भीष्य-प्रति ववब्रतकी भीष्म-प्रतिज्ञा
महर्षि माण्डव्यका शूलीपर चढ़ाया जाना
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० ४७ ५७० ४७
॥/७० ४७ |
पुत्र-प्राप्तिका कथन
तथा गंगामें
पान करना
कृपाचार्य और अभश्वत्थामाकी उत्पत्ति तथा द्रोणको परशुरामजीसे अस्त्र की प्राप्तिकी कथा के
क८ गचार्य ट्रोण व
शसे पाण्डवोंकी वारणावत-यात्रा णावत नगरमें लाक्षागृह बनाना
(बकवधपर्व)
५- व्यासजीके सामने द्रौपदीका पाँच पुरु षोस रुषोंसे विवाह होनेके वि ः धिष्ठिरका अपने-अपने विचार व्यक्त करना |
शिक्षा (खाण्डवदाहपर्व)
२२१- युधिष्ठटिरके राज्यकी विशेषता,_कृष्ण और अर्ज़ुनका खाण्डववनमें जाना तथा उन दोनोंके पास ब्राह्मणवेषधारी अग्निदिवका आगमन २२२- अग्निदेवका खाण्डववनको जलानेके लिये श्रीकृष्ण और अर्जुनसे सहायताकी
राजा श्रेतकिकी कथा गा २२३- अर्ज़नका अग्निकी प्रार्थना स्वीकार करके उनसे दिव्य धनुष एवं रथ आदि माँगना २२४- अग्निदेवका अर्जुन और श्रीकृष्णको दिव्य धनुष,_अक्षय तरकस,_दिव्य रथ और
२५- खाण्डववनमें जलते हुए प्राणियोंकी दुर्दशा और इन्द्रके द्वारा जल बरसाकर आग
बुझानेकी चेष्टा २२६- देवताओं आदिके साथ श्रीकृष्ण और अर्जुनका युद्ध
(मयदर्शनपर्व)
२२७- देवताओंकी पराजय, खाण्डववनका विनाश और मयासुरकी रक्षा
२३२- मन्दपालका अपने बाल-बच्चोंसे मिलना २३३- इन्द्रदेवका श्रीकृष्ण और अर्ज़ुनको वरदान तथा श्रीकृष्ण,_अर्ज़ुन और मयासुरका अग्निसे विदा लेकर एक साथ यमुनातटपर बैठना
(आदिपर्व सम्पूर्ण)
सभापर्व (सभाक्रियापर्व)
लोकपालसभाख्यानपर्व)
७ ४७, 2 शा बह 43088 ३8
बह्माजीक कर राजा हरिश्वन्द्रका माहात्म्य तथा युधिष्ठिरके प्रति राजा पाण्डुका संत
(राजसूयारम्भपर्व)
॥4७ ५
अनुमोदन तथा युधिष्ठिरको जरासंधकी
देना और उसीके नामपर बालकका नामकरण
जब: जिंते गखगात और नि आप और विभिन्न देशोंपर विजय पाना
जीतकर भारी धन-सम्पत्तिके
चीरहरण एवं भगवानद्वारा उसकी लज्जारक्षा तथा उदाहरण देकर सभासदोंको विरोधके लिये प्रेरित करना
८०- वनगमनके समय पाण्डवोंकी चेष्टा और प्रजाजनोंकी शोकातुरताके विषयमें धृतराष्ट्र तथा विदुरका संवाद और शरणागत कौरवोंको द्रोणाचार्यका आश्वासन ८१- धृवराष्ट्रकी चिन्ता और उनका संजयके साथ वार्तालाप
(सभापर्व सम्पूर्ण)
नीला ()) प+_अस+-
चित्र-सूची (सादा)
$- उग्रश्नवाजीके द्वारा महाभारतकी कथा २- रुरुके दर्शनसे सहख्रपाद ऋषिकी सर्पयोनिसे मुक्ति 3- भगवान विष्णुने चक्रसे राहुका सिर काट दिया ४- ब्रह्माजीने शेषजीको वरदान तथा पृथ्वी धारण करनेकी आज्ञा दी ५- आस्तीकने तक्षकको अग्निकुण्डमें गिरनेसे रोक दिया ६- शुक्राचार्य और कच ७- ययातिका पतन
९- धर्मराज और अणीमाण्डव्य १०- अणीमाण्डव्य ऋषि शूलीपर ११- शतशंग पर्वतपर पाण्डुका तप १२- बालक भीमके शरीरकी चोटसे चट्टान टूट गयी १३- सुरंगद्वारा मातासहित पाण्डवोंका लाक्षागृहसे निकलना १४- भीम अपने चारों भाइयोंकोी तथा माताको उठाकर ले चले १५- हिडिम्ब-वध १६- भीमसेन और घटोत्कच १७- पाण्डवोंकी व्यासजीसे भेंट १८- धृष्टय्युम्नकी घोषणा १९- कुन्तीद्वारा ब्राह्मण-दम्पतिको सान्त्वना २०- बकासुरपर भीमका प्रहार २१- विश्वामित्रकी सेनापर नन्दिनीका कोप २२- पाणए्डव, द्रपद और व्यासजीमें बातचीत
२४- सुन्द और उपसुन्दका अत्याचार
२५- तिलोत्तमाके लिये सुन्द और उपसुन्दका युद्ध
२६- सुभद्राका कुन्ती और द्रौपदीकी सेवामें उपस्थित होना २७- श्रीकृष्ण और अर्जनका देवताओंसे युद्ध
२८- अर्जुन और श्रीकृष्णको इन्द्रका वरदान
२९- पाण्डवोंद्वारा देवर्षि नारदका पूजन
३०- जरासंधके भवनमें श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन
भीमसेन और जरासंधका युद्ध
3३- भीष्मका युधिष्ठिरको श्रीकृष्णकी महिमा बताना
33- शिशुपालका युद्धके लिये उद्योग ४- भूमिका भगवानको अदितिके कुण्डल देना
3५- शिशुपालके वधके लिये भगवानका हाथमें चक्र ग्रहण करना
दुर्योधनका स्थलके भ्रमसे जलमें गिरना
३७- दूत-क्रीडामें युधिष्ठिससे पराजय
3८- दुःशासनका द्रौपदीके केश पकड़कर खींचना
०- गान्धारीका धृतराष्ट्रको समझाना
॥ श्रीहरि: ।। * श्रीगणेशाय नम: * ॥ श्रीवेदव्यासाय नम: ।।
श्रीमहाभारतम् आदिपर्व
अनुक्रमणिकापर्व
प्रथमो 5 ध्याय:
ग्रन्थका उपक्रम, ग्रन्थमें के ए अधिकांश विषयोंकी संक्षिप्त सूची तथा पाठकी महिमा
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् |
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
“बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण तथा श्रीनर (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन), उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार कर (आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्त:करणपर दैवी सम्पत्तियोंको विजय प्राप्त करानेवाले) जयः (महाभारत एवं अन्य इतिहास-पुराणादि)-का पाठ करना चाहिये।/3
39 नमो भगवते वासुदेवाय। ३० नमः पितामहाय। ३9 नम: प्रजापतिभ्य:। ३० नम: कृष्णद्वेपायनाय। ३० नम: सर्वविघ्नविनायकेशभ्य:।
३“कारस्वरूप भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। $४कारस्वरूप भगवान् पितामहको नमस्कार है। ३“कारस्वरूप प्रजापतियोंको नमस्कार है। ३“कारस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायनको नमस्कार है। >कारस्वरूप सर्व-विघ्नविनाशक विनायकोंको नमस्कार है।
लोमहर्षणपुत्र उग्रश्नवा: सौति: पौराणिको
नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपते्द्धादशवार्षिके सत्रे || १ ।।
सुखासीनानभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् |
विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनन्दन: ।। २ ।।
एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें: कुलपति* महर्षि शौनकके बारह वर्षोतक चालू रहनेवाले सत्रमें* जब उत्तम एवं कठोर ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करनेवाले ब्रह्मर्षिगण अवकाशके समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूतकुलको आनन्दित करनेवाले लोमहर्षणपुत्र उमग्रश्रवा सौति स्वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियोंक समीप बड़े विनीतभावसे आये। वे पुराणोंके विद्वान और कथावाचक थे ।। १-२ ।।
तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम् ।
चित्रा: श्रोतुं कथास्तत्र परिवब्रुस्तपस्विन: ।। ३ ।।
उस समय नैमिषारण्यवासियोंके आश्रममें पधारे हुए उन उग्रश्रवाजीको, उनसे चित्र- विचित्र कथाएँ सुननेके लिये, सब तपस्वियोंने वहीं घेर लिया ।। ३ ।।
अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कृताञ्जलि: ।
अपृच्छत् स तपोवृद्धि सद्धिश्वैवाभिपूजित: ।। ४ ।॥।
उम्रश्रवाजीनी पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियोंकों अभिवादन किया और “आपलोगोंकी तपस्या सुखपूर्वक बढ़ रही है न?” इस प्रकार कुशल-प्रश्न किया। उन सत्पुरुषोंने भी उग्रश्रवाजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया ।। ४ ।।
अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु ।
निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाललौमहर्षणि: ।। ५ ।।
इसके अनन्तर जब वे सभी तपस्वी अपने-अपने आसनपर विराजमान हो गये, तब लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाजीने भी उनके बताये हुए आसनको विनयपूर्वक ग्रहण किया ।।
सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च ।
अथापच्छदृषिस्तत्र कश्रित् प्रस्तावयन् कथा: ।। ६ ।।
तत्पश्चात् यह देखकर कि उग्रश्रवाजी थकावटसे रहित होकर आरामसे बैठे हुए हैं, किसी महर्षिने बातचीतका प्रसंग उपस्थित करते हुए यह प्रश्न पूछा-- ।। ६ ।।
कुत आगम्यते सौते क्व चायं विह्वतस्त्वया ।
काल: कमलपपत्राक्ष शंसैतत् पृच्छतो मम ।। ७ ।।
कमलनयन सूतकुमार! आपका शुभागमन कहाँसे हो रहा है? अबतक आपने कहाँ आनन्दपूर्वक समय बिताया है? मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये || ७ ।।
एवं पृष्टो5ब्रवीत् सम्यग् यथावल्लौमहर्षणि: ।
वाक््यं वचनसम्पन्नस्तेषां च चरिताश्रयम् ।। ८ ।।
तस्मिन् सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम् ।
उम्रश्रवाजी एक कुशल वक्ता थे। इस प्रकार प्रश्न किये जानेपर वे शुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंकी उस विशाल सभामें ऋषियों तथा राजाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्तम एवं यथार्थ कथा कहने लगे ।। ८३ ।।
सौतिरुवाच
जनमेजयस्य राजर्षे: सर्पसत्रे महात्मन: ।। ९ ।।
समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक् पारिक्षितस्य च ।
कृष्णद्वैपायनप्रोक्ता: सुपुण्या विविधा: कथा: ।। १० ||
कथिताश्चापि विधिवद् या वैशम्पायनेन वै ।
श्र॒ुत्वाहं ता विचित्रार्था महाभारतसंश्रिता: ।। ११ ।।
उग्रश्रवाजीने कहा--महर्षियो! चक्रवर्ती सम्राट् महात्मा राजर्षि परीक्षित्-नन्दन जनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हींके पास वैशम्पायनने श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीके द्वारा निर्मित परम पुण्यमयी चित्र-विचित्र अर्थसे युक्त महाभारतकी जो विविध कथाएँ विधिपूर्वक कही हैं, उन्हें सुनकर मैं आ रहा हूँ ।| ९--११ ।।
बहूनि सम्परिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च |
समनतपजञ्चकं नाम पुण्यं द्विजनिषेवितम् ।। १२ ।।
गतवानस्मि त॑ देशं युद्ध यत्राभवत् पुरा ।
कुरूणां पाण्डवानां च सर्वेषां च महीक्षिताम् ।। १३ ।।
मैं बहुत-से तीर्थों एवं धामोंकी यात्रा करता हुआ ब्राह्मणोंके द्वारा सेवित उस परम पुण्यमय समन्तपंचक क्षेत्र कुरुक्षेत्र देशमें गया, जहाँ पहले कौरव-पाण्डव एवं अन्य सब राजाओंका युद्ध हुआ था ।। १२-१३ ।।
दिदृक्षुरागतस्तस्मात् समीपं भवतामिह ।
आयुष्मन्त: सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मता: ।
अस्मिन् यज्ञे महाभागा: सूर्यपावकवर्चस: ।। १४ ।।
वहींसे आपलोगोंके दर्शनकी इच्छा लेकर मैं यहाँ आपके पास आया हूँ। मेरी यह मान्यता है कि आप सभी दीर्घायु एवं ब्रह्मस्वरूप हैं। ब्राह्मणो! इस यज्ञमें सम्मिलित आप सभी महात्मा बड़े भाग्यशाली तथा सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी हैं ।। १४ ।।
कृताभिषेका: शुचय: कृतजप्याहुताग्नय: ।
भवन्त आसने स्वस्था ब्रवीमि किमहं द्विजा: ।। १५ ।।
पुराणसंहिता: पुण्या: कथा धर्मार्थसंश्रिता: ।
इति वृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम् ।। १६ ।।
इस समय आप सभी स्नान, संध्या-वन्दन, जप और अग्निहोत्र आदि करके शुद्ध हो अपने-अपने आसनपर स्वस्थचित्तसे विराजमान हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आपलोगोंको क्या सुनाऊँ? क्या मैं आपलोगोंको धर्म और अर्थके गूढ़ रहस्यसे युक्त, अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाली भिन्न-भिन्न पुराणोंकी कथा सुनाऊँ अथवा उदारचरित महानुभाव ऋषियों एवं सम्राटोंके पवित्र इतिहास? ।। १५-१६ ।।
ऋषय ऊचु:
द्वैपायनेन यत् प्रोक्त पुराणं परमर्षिणा ।
सुरैब्रह्रार्षिभिश्वैव श्रुव्वा यदभिपूजितम् ।। १७ ।।
तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वण: ।
सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थभ्रूषितस्य च ।। १८ ।।
भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम् ।
संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबृंहिताम् ।। १९ ।।
जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशम्पायन उत्तवान् |
यथावत् स ऋषिस्तुष्ट्या सत्रे द्वैघायनाज्ञया || २० ।।
वेदैश्वतुर्भि: संयुक्तां व्यासस्याद्भुतकर्मण: ।
संहितां श्रोतुमिच्छाम: पुण्यां पापभयापहाम् ॥। २१ ।।
ऋषियोंने कहा--उग्रश्रवाजी! परमर्षि श्रीकृष्ण-द्वैधायनने जिस प्राचीन इतिहासरूप पुराणका वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियोंने अपने-अपने लोकमें श्रवण करके जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानोंमें सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्य एवं पर्व विचित्र शब्दविन्यास और रमणीय अर्थसे परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्माके सूक्ष्म स्वरूपका निर्णय एवं उनके अनुभवके लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जो सम्पूर्ण वेदोंके तात्पर्यानुकूल अर्थसे अलंकृत है, उस भारत-इतिहासकी परम पुण्यमयी, ग्रन्थके गुप्त भावोंको स्पष्ट करनेवाली, पदों-वाक्योंकी व्युत्पत्तिसे युक्त, सब शास्त्रोंके अभिप्रायके अनुकूल और उनसे समर्थित जो अदभुतकर्मा व्यासकी संहिता है, उसे हम सुनना चाहते हैं। अवश्य ही वह चारों वेदोंके अर्थोंसे भरी हुई तथा पुण्यस्वरूपा है। पाप और भयका नाश करनेवाली है। भगवान् वेदव्यासकी आज्ञासे राजा जनमेजयके यज्ञमें प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायनने आनन्दमें भरकर भलीभाँति इसका निरूपण किया है ।। १७-- २१ ||
सौतिर्वाच
आट्य॑ पुरुषमीशान पुरुहूतं पुरुष्ठतम् ।
ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्ते सनातनम् ।। २२ ।।
असच्च सदसच्चैव यद् विश्व सदसत्परम् ।
परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् ॥। २३ ।।
मड़ल्यं मड़लं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम् ।
नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम् || २४ ।।
महर्षे: पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मन: ।
प्रवक्ष्यामि मतं॑ पुण्यं व्यासस्याद्भुतकर्मण: ॥। २५ ।।
उग्रश्रवाजीने कहा--जो सबका आदि कारण, अन्तर्यामी और नियन्ता है, यज्ञोंमें जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्यसे हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषोंद्वारा अनेक नामोंसे स्तुति की गयी है, जो ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र अविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा), व्यक्ताव्यक्त (साकार-निराकार)-स्वरूप एवं सनातन है, असत-सत् एवं उभयरूपसे जो स्वयं विराजमान है; फिर भी जिसका वास्तविक स्वरूप सत्-असत् दोनोंसे विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो सम्पूर्ण परावर (स्थूल- सूक्ष्म) जगत्का स्रष्टा, पुराणपुरुष, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारोंसे रहित है, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय विष्णु है। उन्हीं चराचरगुरु हृषीकेश (मन-इन्द्रियोंके प्रेरक) श्रीहरिको नमस्कार करके सर्वलोकपूजित अद्भुतकर्मा महात्मा महर्षि व्यासदेवके इस अन्तःकरणशोधक मतका मैं वर्णन करूँगा || २२--२५ |।
आचख्यु: कवय: केचित् सम्प्रत्याचक्षते परे ।
आख््यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि ।। २६ ।।
पृथ्वीपर इस इतिहासका अनेकों कवियोंने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत-से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे || २६ ।।
इदं तु त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम् ।
विस्तरैश्व॒ समासैश्न धार्यते यद् द्विजातिभि: ।। २७ ।।
इस महाभारतकी तीनों लोकोंमें एक महान् ज्ञानके रूपमें प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपोंमें अध्ययन और अध्यापनकी परम्पराके द्वारा इसे अपने हृदयमें धारण करते हैं || २७ ।।
अलंकृतं शुभै: शब्दै: समयैर्दिव्यमानुषै: ।
छन््दोवृत्तैश्न विविधैरन्वितं विदुषां प्रियम् ।। २८ ।।
यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दविन्याससे अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतोंसे सुशोभित है। अनुष्टप्, इन्द्रवज्ञा आदि नाना प्रकारके छन््द भी इसमें प्रयुक्त हुए हैं; अतः यह ग्रन्थ विद्वानोंकों बहुत ही प्रिय है ।। २८ ।।
(पुण्ये हिमवत: पादे मध्ये गिरिगुहालये ।
विशोध्य देहं धर्मात्मा दर्भसंस्तरमाश्रित: ।।
शुचि: सनियमो व्यास: शान्तात्मा तपसि स्थित: ।
भारतस्येतिहासस्य धर्मेणान्वीक्ष्य तां गतिम् ।।
प्रविश्य योगं ज्ञानेन सो5पश्यत् सर्वमन्ततः ।)
हिमालयकी पवित्र तलहटीमें पर्वतीय गुफाके भीतर धर्मात्मा व्यासजी स्नानादिसे शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठे थे। उस समय नियमपालनपूर्वक शान्तचित्त हो वे तपस्यामें संलग्न थे। ध्यानयोगमें स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-
इतिहासके स्वरूपका विचार करके ज्ञानदृष्टिद्वारा आदिसे अन्ततक सब कुछ प्रत्यक्षकी भाँति देखा (और इस ग्रन्थका निर्माण किया)।
निष्प्रभेडस्मिन् निरालोके सर्वतस्तमसावृते ।
बृहदण्डम भूदेक॑ प्रजानां बीजमव्ययम् ।। २९ ।।
सृष्टिके प्रारम्भमें जब यहाँ वस्तुविशेष या नामरूप आदिका भान नहीं होता था, प्रकाशका कहीं नाम नहीं था, सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओंका अविनाशी बीज था ।। २९ |।
युगस्यादौ निमित्तं तन््महद्दिव्यं प्रचक्षते ।
यस्मिन् संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्त्रह्या सनातनम् ।। ३० ।।
ब्रह्मकल्पके आदिमें उसी महान् एवं दिव्य अण्डको चार प्रकारके प्राणिसमुदायका कारण कहा जाता है। जिसमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती हैः || ३० ।।
अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम् |
अव्यक्तं कारण सूक्ष्मं यत्तत् सदसदात्मकम् ।। ३१ ।।
वह ब्रह्म अदभुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समानरूपसे व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारणस्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत्रूपमें उपलब्ध होता है, सब वही है || ३१ ।।
यस्मात् पितामहो जज्ञे प्रभुरेक: प्रजापति: ।
ब्रह्मा सुरगुरु: स्थाणुर्मनु: कः परमेष्ठ्यूथ ।। ३२ |।
प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च॒ सप्त वै ।
ततः प्रजानां पतय: प्राभवन्नेकविंशति: ।। ३३ ।।
उस अण्डसे ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरु पितामह ब्रह्मा तथा रुद्र, मनु, प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओंके पुत्र, दक्ष तथा दक्षके सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अंगिरा, कर्दम और अश्व) प्रकट हुए। तत्पश्चात् इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु)- पैदा हुए ।। ३२-३३ ।।
पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्व ऋषयो विदु: ।
विश्वेदेवास्तथादित्या वसवो<5थाश्विनावपि ।। ३४ ।।
जिन्हें मत्स्य-कूर्म आदि अवतारोंके रूपमें सभी ऋषि-मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्णुरूप पुरुष और उनकी विभूतिरूप विश्वेदेव, आदित्य, वसु एवं अश्विनीकुमार आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं || ३४ ।।
यक्षा: साध्या: पिशाचाश्च गुह्मका: पितरस्तथा ।
ततः प्रसूता विद्वांस: शिष्टा ब्रद्यूर्षिसत्तमा: ।। ३५ ।।
तदनन्तर यक्ष, साध्य, पिशाच, गुहाक और पितर एवं तत्त्वज्ञानी सदाचारपरायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए ।। ३५ ।।
राजर्षयश्न बहव: सर्वे समुदिता गुणै: ।
आपो द्यौ: पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशस्तथा ॥। ३६ ।।
इसी प्रकार बहुत-से राजर्षियोंका प्रादुर्भाव हुआ है, जो सब-के-सब शौर्यादि सदगुणोंसे सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्डसे जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं || ३६ ।।
संवत्सरर्तवो मासा: पक्षाहोरात्रय: क्रमात् ।
यच्चान्यदपि तत् सर्व सम्भूतं लोकसाक्षिकम् ।। ३७ ।।
संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रिका प्राकट्य भी क्रमश: उसीसे हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोकमें देखा या सुना जाता है, वह सब उसी अण्डसे उत्पन्न हुआ है ।। ३७ ।।
यदिदं दृश्यते किंचिद् भूत॑ स्थावरजड्रमम् |
पुन: संक्षिप्यते सर्व जगत् प्राप्ते युगक्षये | ३८ ।।
यह जो कुछ भी स्थावर-जंगम जगत दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलयकाल आनेपर अपने कारणमें विलीन हो जाता है ।। ३८ ।।
यर्थर्तावृतुलिड्रानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ।। ३९ ।।
जैसे ऋतुके आनेपर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकारके चिह्न प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जानेपर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्पका आरम्भ होनेपर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पके अन्तमें उनका लय हो जाता है ।। ३९ ।।
एवमेतदनाद्यन्तं भूतसंहारकारकम् ।
अनादिनिधन लोके चक्र सम्परिवर्तते || ४० ।।
इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोकमें प्रवाहरूपसे नित्य घूमता रहता है। इसीमें प्राणियोंकी उत्पत्ति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्धव और विनाश नहीं होता || ४० ।।
त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च ।
त्रयस्त्रिंशच्च देवानां सृष्टि: संक्षेपलक्षणा ।। ४१ ।।
देवताओंकी सृष्टि संक्षेपसे तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है || ४१ ।।
दिव:पुत्रो बृहद्धानुश्चक्षुरात्मा विभावसु: ।
सविता स ऋचीकोड को भानुराशावहो रवि: ।। ४२ ।।
पुरा विवस्वत: सर्वे महास्तेषां तथावर: ।
देवभ्राट् तनयस्तस्य सुभाडिति ततः स्मृतः ।। ४३ ।।
पूर्वकालमें दिव:पुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु, आशावह तथा रवि--ये सब शब्द विवस्वान्के बोधक माने गये हैं, इन सबमें जो अन्तिम 'रवि' हैं वे 'महा' (मही--पृथ्वीमें गर्भ स्थापन करनेवाले एवं पूज्य) माने गये हैं। इनके तनय देवश्राट् हैं और देवभ्राटके तनय सुभ्राट माने गये हैं || ४२-४३ ।।
सुभ्राजस्तु त्रय: पुत्रा: प्रजावन्तो बहुश्रुता: ।
दशज्योति: शतज्योति: सहस्रज्योतिरेव च ।। ४४ ।।
सुभ्राटके तीन पुत्र हुए, वे सब-के-सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रोंके) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं--दशज्योति, शतज्योति तथा सहस्रज्योति ।। ४४ ।।
दशपुत्रसहसत्राणि दशज्योतेर्महात्मन: ।
ततो दशगुणाश्चान्ये शतज्योतेरिहात्मजा: ।। ४५ ।।
महात्मा दशज्योतिके दस हजार पुत्र हुए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योतिके हुए || ४५ ।।
भूयस्ततो दशगुणा: सहस्रज्योतिष: सुता: ।
तेभ्यो5यं कुरुवंशश्व॒ यदूनां भरतस्य च ।। ४६ ।।
ययातीक्ष्वाकुवंशश्व राजर्षीणां च सर्वशः ।
सम्भूता बहवो वंशा भूतसर्गा: सुविस्तरा: ।। ४७ ।।
फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् दस लाख पुत्र सहस्रज्योतिके हुए। उन्हींसे यह कुरुवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाकुके वंश तथा अन्य राजर्षियोंके सब वंश चले। प्राणियोंकी सृष्टिपरम्परा और बहुत-से वंश भी इन्हींसे प्रकट हो विस्तारको प्राप्त हुए हैं । ४६-४७ ।।
भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत् ।
वेदा योग: सविज्ञानो धर्मो5र्थ: काम एव च ॥। ४८ ।।
धर्मकामार्थयुक्तानि शास्त्राणि विविधानि च ।
लोकयात्राविधानं च सर्व तद् दृष्टवानृषि: ।। ४९ ।।
भगवान् वेदव्यासने, अपनी ज्ञानदृष्टिसे सम्पूर्ण प्राणियोंके निवासस्थान, धर्म, अर्थ और कामके भेदसे त्रिविध रहस्य, कर्मोपासनाज्ञानरूप वेद, विज्ञानसहित योग, धर्म, अर्थ एवं काम, इन धर्म, काम और अर्थरूप तीन पुरुषार्थोंके प्रतिपादन करनेवाले विविध शास्त्र, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये आयुर्वेद, धरनुर्वेद, स्थापत्यवेद, गान्धर्ववेद आदि लौकिक शास्त्र सब उन्हीं दशज्योति आदिसे हुए हैं--इस तत्त्वको और उनके स्वरूपको भलीभाँति अनुभव किया || ४८-४९ ।।
इतिहासा: सवैयाख्या विविधा: श्रुतयोडपि च ।
इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम् ।। ५० ।।
उन्होंने ही इस महाभारत ग्रन्थमें, व्याख्याके साथ उस सब इतिहासका तथा विविध प्रकारकी श्रुतियोंके रहस्य आदिका पूर्णरूपसे निरूपण किया है और इस पूर्णताको ही इस ग्रन्थका लक्षण बताया गया है ।। ५० ।।
विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषि: संक्षिप्य चाब्रवीत् ।
इष्ट हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् ।। ५१ ।।
महर्षिने इस महान् ज्ञानका संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकारसे वर्णन किया है; क्योंकि संसारमें विद्वान् पुरुष संक्षेप और विस्तार दोनों ही रीतियोंको पसंद करते हैं ।। ५१ ।।
मन्वादि भारतं केचिदास्तीकादि तथा परे |
तथोपरिचराद्यन्ये विप्रा: सम्पगधीयते ।। ५२ ।।
कोई-कोई इस ग्रन्थका आरम्भ “नारायणं नमस्कृत्य'-से मानते हैं और कोई-कोई आस्तीकपर्वसे। दूसरे विद्वान् ब्राह्मण उपरिचर वसुकी कथासे इसका विधिपूर्वक पाठ प्रारम्भ करते हैं || ५२ ।।
विविध संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिण: ।
व्याख्यातुं कुशला: केचिद् ग्रन्थान् धारयितुं परे || ५३ ।।
विद्वान् पुरुष इस भारतसंहिताके ज्ञानको विविध प्रकारसे प्रकाशित करते हैं। कोई- कोई ग्रन्थकी व्याख्या करके समझानेमें कुशल होते हैं तो दूसरे विद्वान् अपनी तीक्षण मेधाशक्तिके द्वारा इन ग्रन्थोंको धारण करते हैं ।। ५३ ।।
तपसा ब्रद्म॒चर्येण व्यस्य वेदं सनातनम् ।
इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुत: ।। ५४ ।।
सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यासने अपनी तपस्या एवं ब्रह्मचर्यकी शक्तिसे सनातन वेदका विस्तार करके इस लोकपावन पवित्र इतिहासका निर्माण किया है ।। ५४ ।।
पराशरात्मजो दिद्वान ब्रद्मर्षि: संशितव्रत: ।
तदाख्यानवरिष्ठं स कृत्वा द्वैपायन: प्रभु: ॥। ५५ ।।
कथमध्यापयानीह शिष्यान्नित्यन्वचिन्तयत् ।
तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ऋषेद्वैपायनस्य च ।। ५६ ।।
तत्राजगाम भगवान् ब्रह्मा लोकगुरु: स्वयम् ।
प्रीत्यर्थ तस्य चैवर्षेलोकानां हितकाम्पया ।। ५७ ।।
प्रशस्त व्रतधारी, निग्रहानुग्रह-समर्थ, सर्वज्ञ पराशरनन्दन ब्रह्मर्षि श्रीकृष्णद्वैघयायन इस इतिहासशिरोमणि महाभारतकी रचना करके यह विचार करने लगे कि अब शिष्योंको इस ग्रन्थका अध्ययन कैसे कराऊँ? जनतामें इसका प्रचार कैसे हो? द्वैपायन ऋषिका यह विचार जानकर लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा उन महात्माकी प्रसन्नता तथा लोककल्याणकी कामनासे स्वयं ही व्यासजीके आश्रमपर पधारे ।। ५५--५७ ।।
त॑ दृष्टवा विस्मितो भूत्वा प्राउजलि: प्रणत: स्थित: ।
आसन कल्पयामास सर्वर्मुनिगणैर्वृत: ।। ५८ ।।
व्यासजी ब्रह्माजीको देखकर आश्चर्यवकित रह गये। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़े रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि-मुनियोंके साथ उन्होंने ब्रह्माजीके लिये आसनकी व्यवस्था की ।। ५८ ।।
हिरण्यगर्भमासीनं तस्मिंस्तु परमासने ।
परिवृत्यासनाभ्याशे वासवेय: स्थितो5भवत् ।। ५९ ।।
जब उस श्रेष्ठ आसनपर ब्रह्माजी विराज गये, तब व्यासजीने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजीके आसनके समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये ।। ५९ ।।
अनुज्ञातो5थ कृष्णस्तु ब्रह्मणा परमेषछ्ठिना ।
निषसादासनाभ्याशे प्रीयमाण: शुचिस्मित: ।। ६० ।।
परमेष्ठी ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे उनके आसनके पास ही बैठ गये। उस समय व्यासजीके हृदयमें आनन्दका समुद्र उमड़ रहा था और मुखपर मन्द-मन्द पवित्र मुसकान लहरा रही थी || ६० ।।
उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेषछ्ठिनम् ।
कृतं मयेदं भगवन् काव्यं परमपूजितम् ॥। ६१ ।।
परम तेजस्वी व्यासजीने परमेष्ठी ब्रह्माजीसे निवेदन किया--“भगवन्! मैंने यह सम्पूर्ण लोकोंसे अत्यन्त पूजित एक महाकाव्यकी रचना की है” ।। ६१ ।।
ब्रह्मन् वेदरहस्यं च यच्चान्यत् स्थापितं मया ।
साज़्रोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया ।। ६२ ।।
ब्रह्मन! मैंने इस महाकाव्यमें सम्पूर्ण वेदोंका गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रोंका सार-सार संकलित करके स्थापित कर दिया है। केवल वेदोंका ही नहीं, उनके अंग एवं उपनिषदोंका भी इसमें विस्तारसे निरूपण किया है || ६२ ।।
इतिहासपुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत् ।
भूतं भव्यं भविष्य॑ च त्रिविधं कालसंज्ञितम् । ६३ ।।
इस ग्रन्थमें इतिहास और पुराणोंका मन्थन करके उनका प्रशस्त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्यकालकी इन तीनों संज्ञाओंका भी वर्णन हुआ है ।। ६३ ।।
जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चय: ।
विविधस्य च धर्मस्य ह्याश्रमाणां च लक्षणम् ।। ६४ ।।
इस ग्रन्थमें बुढ़ापा, मृत्यु, भय, रोग और पदार्थोंके सत्यत्व और मिथ्यात्वका विशेषरूपसे निश्चय किया गया है तथा अधिकारी-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रकारके धर्मों एवं आश्रमोंका भी लक्षण बताया गया है ।। ६४ ।।
चातुर्व्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नश: ।
तपसो ब्रह्मचर्यस्य पृथिव्याश्रन्द्रसूर्ययो: ।। ६५ ।।
ग्रहनक्षत्रताराणां प्रमाणं च युगै:ः सह ।
ऋचो यजूषि सामानि वेदाध्यात्मं तथैव च ।। ६६ ।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--इन चारों वर्णोंके कर्तव्यका विधान, पुराणोंका सम्पूर्ण मूलतत्त्व भी प्रकट हुआ है। तपस्या एवं ब्रह्मचर्यके स्वरूप, अनुष्ठान एवं फलोंका विवरण, पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग--इन सबके परिमाण और प्रमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्यात्मिक अभिप्राय और अध्यात्मशास्त्रका इस ग्रन्थमें विस्तारसे वर्णन किया गया है || ६५-६६ ।।
न्यायशिक्षाचिकित्सा च दान॑ पाशुपतं तथा ।
हेतुनैव सम॑ जन्म दिव्यमानुषसंज्ञितम् ।। ६७ ।।
न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान तथा पाशुपत (अन्तर्यामीकी महिमा)-का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्मका कारण क्या है? ।। ६७ ।।
तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम् ।
नदीनां पर्वतानां च वनानां सागरस्य च ।। ६८ ।।
लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्रका भी इसमें वर्णन किया गया है ।। ६८ ।।
पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम् ।
वाक्यजातिविशेषाक्ष लोकयात्राक्रमक्ष यः ।। ६९ ।।
यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम् ।
परं न लेखक: कश्चिदेतस्य भुवि विद्यते || ७० ।।
दिव्य नगर एवं दुर्गोके निर्माणका कौशल तथा युद्धकी निपुणताका भी वर्णन है। भिन्न- भिन्न भाषाओं और जातियोंकी जो विशेषताएँ हैं, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये जो कुछ आवश्यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी पदार्थ हो सकते हैं, उन सबका इसमें प्रतिपादन किया गया है; परंतु मुझे इस बातकी चिन्ता है कि पृथ्वीमें इस ग्रन्थको लिख सके ऐसा कोई नहीं है” ।। ६९-७० ।।
ब्रह्मोवाच
तपोविशिष्टादपि वै विशिष्टान्मुनिसंचयात् ।
मन्ये श्रेष्ठतरं त्वां वै रहस्यज्ञानवेदनात् || ७१ ।।
ब्रह्माजीने कहा--व्यासजी! संसारमें विशिष्ट तपस्या और विशिष्ट कुलके कारण जितने भी श्रेष्ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्हें सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि तुम जगत्, जीव और ईश्वर-तत्त्वका जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो || ७१ ।।
जन्मप्रभृति सत्यां ते वेझि गां ब्रह्म॒वादिनीम् ।
त्वया च काव्यमित्युक्त तस्मात् काव्यं भविष्यति ।। ७२ ।।
मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचनाको काव्य कहा है, इसलिये अब यह काव्यके नामसे ही प्रसिद्ध होगी | ७२ ।।
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे ।
विशेषणे गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमा: || ७३ ।।
काव्यस्य लेखनार्थाय गणेश: स्मर्यतां मुने ।
संसारके बड़े-से-बड़े कवि भी इस काव्यसे बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओंद्वारा गृहस्थाश्रमसे आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्यको लिखवानेके लिये तुम गणेशजीका स्मरण करो ।। ७३ ३ ।।
सौतिरुवाच
एवमाभाष्य त॑ ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम् ।। ७४ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं--महात्माओ! ब्रह्माजी व्यासजीसे इस प्रकार सम्भाषण करके अपने धाम ब्रह्मलोकमें चले गये || ७४ ।।
ततः सस्मार हेरम्बं व्यास: सत्यवतीसुतः ।
स्मृतमात्रो गणेशानो भक्तचिन्तितपूरक: ।। ७५ ।।
तत्राजगाम विघ्नेशो वेदव्यासो यतः स्थित: ।
पूजितश्लोपविष्ट श्न॒ व्यासेनोक्तस्तदाउनघ || ७६ ।।
निष्पाप शौनक! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यासजीने भगवान् गणेशका स्मरण किया और स्मरण करते ही भक्तवांछाकल्पतरु विष्नेश्वर श्रीगणेशजी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यासजी विद्यमान थे। व्यासजीने गणेशजीका बड़े आदर और प्रेमसे स्वागत-सत्कार किया और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा-- || ७५-७६ ।।
लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक ।
मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च ।। ७७ |।
“गणनायक! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत-ग्रन्थके लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा। मैंने मन-ही-मन इसकी रचना कर ली है' || ७७ ।।
श्रुत्वैतत् प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम् |
लिखितो नावतिषछ्ेत तदा स्यां लेखको हाहम् ।। ७८ ।।
यह सुनकर विघ्नराज श्रीगणेशजीने कहा--“व्यासजी! यदि लिखते समय क्षणभरके लिये भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस ग्रन्थका लेखक बन सकता हूँ || ७८ ।।
व्यासो<5प्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित् |
ओमित्युक्त्वा गणेशो5पि बभूव किल लेखक: ।। ७९ |।
व्यासजीने भी गणेशजीसे कहा--“बिना समझे किसी भी प्रसंगमें एक अक्षर भी न लिखियेगा।” गणेशजीने “३5” कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये ।। ७९ ।।
ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिर्गूठं कुतूहलात् ।
यस्मिन् प्रतिज्ञया प्राह मुनिर्द्धपायनस्त्विदम् ।। ८० ।।
तब व्यासजी भी कुतूहलवश ग्रन्थमें गाँठ लगाने लगे। वे ऐसे-ऐसे श्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहरसे दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्धमें प्रतिज्ञापूर्वक श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिने यह बात कही है-- ।। ८० ।।
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।
अहं वेि शुको वेत्ति संजयो वेत्ति वान वा ।। ८१ ।।
इस ग्रन्थमें ८८०० (आठ हजार आठ सौ) श्लोक ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है ।। ८१ ।।
तच्छलोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने ।
भेत्तुं न शक््यते<र्थस्य गूढत्वात् प्रश्मनितस्थ च ।। ८२ ।।
मुनिवर! वे कूट श्लोक इतने गुँथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य- भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढवृत्ति आदि रचनावैचित्रयके कारण गम्भीर हैं || ८२ ।।
सर्वज्ञोडपि गणेशो यत् क्षणमास्ते विचारयन् |
तावच्चकार व्यासो5पि श्लोकानन्यान् बहूनपि ।। ८३ ।।
स्वयं सर्वज्ञ गणेशजी भी उन श्लोकोंका विचार करते समय क्षणभरके लिये ठहर जाते थे। इतने समयमें व्यासजी भी और बहुत-से श्लोकोंकी रचना कर लेते थे ।। ८३ ॥।
अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टत: ।
ज्ञानाज्जनशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम् ।। ८४ ।।
धर्मार्थकाममोीक्षार्थ: समासव्यासकीर्तनै: ।
तथा भारतसूर्येण नृणां विनिहतं तम: ।। ८५ ।।
संसारी जीव अज्ञानान्धकारसे अंधे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानांजनकी शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थोका संक्षेप और विस्तारसे वर्णन। यह न केवल अज्ञानकी रतौंधी दूर करता, प्रत्युत सूर्यके समान उदित होकर मनुष्योंकी आँखके सामनेका सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है || ८४-८५ ।।
पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्ना: प्रकाशिता: ।
नृबुद्धिकेरवाणां च कृतमेतत् प्रकाशनम् ।। ८६ ।।
यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमाके समान है, जिससे श्रुतियोंकी चाँदनी छिटकती है और मनुष्योंकी बुद्धिरूपी कुमुदिनी सदाके लिये खिल जाती है ।। ८६ ।।
इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना ।
लोकगर्भगृहं कृत्स्नं यथावत् सम्प्रकाशितम् ।। ८७ ।।
यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोहका अन्धकार मिटाकर लोगोंके अन्तःकरण-रूप सम्पूर्ण अन्तरंग गृहको भलीभाँति ज्ञानालोकसे प्रकाशित कर देता है || ८७ |।
संग्रहाध्यायबीजो वै पौलोमास्तीकमूलवान् ।
सम्भवस्कन्धविस्तार: सभारण्यविटड्कवान् ॥। ८८ ।।
महाभारत-वृक्षका बीज है संग्रहाध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीकपर्व। सम्भवपर्व इसके स्कन्धका विस्तार है और सभा तथा अरण्यपर्व पक्षियोंके रहनेयोग्य कोटर हैं ।। ८८ ।।
अरणीपर्वरूपाढ्यो विराटोद्योगसारवान् |
भीष्मपर्वमहाशाखो द्रोणपर्वपलाशवान् ।। ८९ |।।
अरणीपर्व इस वृक्षका ग्रन्थिस्थल है। विराट और उद्योगपर्व इसका सारभाग है। भीष्मपर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोणपर्व इसके पत्ते हैं || ८९ ।।
कर्णपर्वसितै: पुष्पै: शल्यपर्वसुगन्धिभि: ।
स्त्रीपर्वीषीकविश्राम: शान्तिपर्वमहाफल: ।। ९० |।
कर्णपर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्यपर्व सुगन्ध। स्त्रीपर्व और ऐषीकपर्व इसकी छाया है तथा शान्तिपर्व इसका महान् फल है ।। ९० ।।
अश्वमेधामृतरसस्त्वाश्रमस्थानसंश्रय: ।
मौसल: श्रुतिसंक्षेप: शिष्टद्धिजनिषेवित: ।। ९१ ।।
अश्वमेधपर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रम-वासिकपर्व आश्रय लेकर बैठनेका स्थान। मौसलपर्व श्रुति-रूपा ऊँची-ऊँची शाखाओंका अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्यासे सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं ।। ९१ ।।
सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति ।
पर्जन्य इव भूतानामक्षयो भारतद्रुम: ।। ९२ ।।
संसारमें जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्यके लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है || ९२ ।।
सौतिरुवाच
तस्य वृक्षस्य वक्ष्यामि शश्रत्पुष्पफलोदयम् | स्वादुमेध्यरसोपेतमच्छेद्यममरैरपि ।। ९३ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-यह भारत एक वृक्ष है। इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं
अविनाशी पुष्प तथा फल हैं--धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्षसे अलग नहीं कर सकते; अब मैं उन्हींका वर्णन करूँगा ।। ९३ ।।
मातुर्नियोगाद् धर्मात्मा गाड़ेयस्य च धीमत: ।
क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैधायन: पुरा ।। ९४ ।।
त्रीनग्नीनिव कौरव्यान् जनयामास वीर्यवान् |
उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डंं विदुरमेव च ।। ९५ ।।
पहलेकी बात है--शक्तिशाली, धर्मात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास)-ने अपनी माता
सत्यवती और परमज्ञानी गंगापुत्र भीष्मपितामहकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नी अम्बिका आदिके गर्भसे तीन अग्नियोंके समान तेजस्वी तीन कुरुवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं--धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर || ९४-९५ ।।
जगाम तपसे धीमान् पुनरेवाश्रमं प्रति ।
तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम् ।। ९६ ।।
अब्रवीद् भारतं॑ लोके मानुषे5स्मिन् महानृषि: ।
जनमेजयेन पृष्ट: सन् ब्राह्मणैश्व सहस्रश: ।। ९७ ।।
शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके ।
ससदस्यै: सहासीन: श्रावयामास भारतम् ।। ९८ ।।
कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमान: पुन: पुनः ।
इन तीन पुत्रोंको जन्म देकर परम ज्ञानी व्यासजी फिर अपने आश्रमपर चले गये। जब
वे तीनों पुत्र वृद्ध हो परम गतिको प्राप्त हुए, तब महर्षि व्यासजीने इस मनुष्यलोकमें महाभारतका प्रवचन किया। जनमेजय और हजारों ब्राह्मणोंके प्रश्न करनेपर व्यासजीने पास ही बैठे अपने शिष्य वैशम्पायनको आज्ञा दी कि तुम इन लोगोंको महाभारत सुनाओ। वैशम्पायन याज्ञिक सदस्योंके साथ ही बैठे थे, अतः जब यज्ञकर्ममें बीच-बीचमें अवकाश मिलता, तब यजमान आदिके बार-बार आग्रह करनेपर वे उन्हें महाभारत सुनाया करते थे ।। ९६-९८ $ ||
विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम् ।। ९९ ।। क्षत्तु: प्रज्ञां धृतिं कृन्त्या: सम्यग् द्वैघधायनोडब्रवीत् । वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम् ।। १०० || दुर्वत्त धार्तराष्ट्राणामुक्तवान् भगवानृषि: ।
इदं शतसहसंरं तु लोकानां पुण्यकर्मणाम् ।। १०१ ।। उपाख्यानै: सह ज्ञेयमाद्यं भारतमुत्तमम् ।
इस महाभारत-पग्रन्थमें व्यासजीने कुरुवंशके विस्तार, गान्धारीकी धर्मशीलता, विदुरकी उत्तम प्रज्ञा और कुन्तीदेवीके धैर्यका भलीभाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान् व्यासने इसमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके माहात्म्य, पाण्डवोंकी सत्यपरायणता तथा धुृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन आदिके दुर्व्यवहारोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। पुण्यकर्मा मानवोंके उपाख्यानोंसहित एक लाख श्लोकोंके इस उत्तम ग्रन्थको आद्यभारत (महाभारत) जानना चाहिये || ९९--१०१ ३ ।।
चतुर्विशतिसाहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम् ।। १०२ ।।
उपाख्यानैर्विना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः ।
ततो<प्यर्धशतं भूय: संक्षेपं कृतवानृषि: ॥। १०३ ।।
अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणाम् |
इदं द्वैपायन: पूर्व पुत्रमध्यापयच्छुकम् । १०४ ।।
तदनन्तर व्यासजीने उपाख्यानभागको छोड़कर चौबीस हजार श्लोकोंकी भारतसंहिता बनायी; जिसे विद्वान् पुरुष भारत कहते हैं। इसके पश्चात् महर्षिने पुनः पर्वसहित ग्रन्थमें वर्णित वृत्तान्तोंकी अनुक्रमणिका (सूची)-का एक संक्षिप्त अध्याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्लोक हैं। व्यासजीने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेवजीको इस महाभारत-ग्रन्थका अध्ययन कराया || १०२--१०४ ।।
ततोडन््येभ्यो5नुरूपेभ्य: शिष्येभ्य: प्रददौ विभु: ।
षष्टिं शतसहस््राणि चकारान्यां स संहिताम् ।। १०५ ।।
तदनन्तर उन्होंने दूसरे-दूसरे सुयोग्य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्योंको इसका उपदेश दिया। तत्पश्चात् भगवान् व्यासने साठ लाख श्लोकोंकी एक दूसरी संहिता बनायी ।। १०५ ।।
त्रिंशच्छतसहस्रं च देवलोके प्रतिछ्ठितम् ।
पित्रये पज्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्देश ।। १०६ ।।
उसके तीस लाख श्लोक देवलोकमें समादृत हो रहे हैं, पितृलोकमें पंद्रह लाख तथा गन्धर्वलोकमें चौदह लाख श्लोकोंका पाठ होता है || १०६ ।।
एकं शतसहसंर तु मानुषेषु प्रतिक्तितम् ।
नारदो5श्रावयद् देवानसितो देवल: पितृन् ।। १०७ ।।
इस मनुष्यलोकमें एक लाख शलोकोंका आद्यभारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारदने देवताओंको और असित-देवलने पितरोंको इसका श्रवण कराया है | १०७ ।।
गन्धर्वयक्षरक्षांसि श्रावयामास वै शुक: ।
अस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशम्पायन उतक्तवान् ।। १०८ ।।
शिष्यो व्यासस्य धर्मात्मा सर्ववेदविदां वर: |
एकं शतसहसंं तु मयोक्तं वै निबोधत | १०९ ।।
शुकदेवजीने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसोंको महाभारतकी कथा सुनायी है; परंतु इस मनुष्यलोकमें सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंके शिरोमणि व्यास-शिष्य धर्मात्मा वैशम्पायनजीने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरो! वही एक लाख श्लोकोंका महाभारत आपलोग मुझसे श्रवण कीजिये ।। १०८-१०९ ।। दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुम: स्कन्ध: कर्ण: शकुनिस्तस्य शाखा: । दुःशासन: पुष्पफले समद्धे मूलं राजा धृतराष्ट्रोडमनीषी || ११० ।। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्षके समान है। कर्ण स्कन्ध, शकुनि शाखा और दुःशासन समृद्ध फल-पुष्प है। अज्ञानी राजा धृतराष्ट्र ही इसके मूल हैं- ।। ११० ।। युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुम: स्कन्धो<र्जुनो भीमसेनो5स्य शाखा: । माद्रीसुतौ पुष्पफले समद्धे मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्राह्मणाश्व॒ ।। १११ ।। युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्कनध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्दन इसके समृद्ध फल-पुष्प हैं। श्रीकृष्ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्षके मूल (जड़) हैं" || १११ ।। पाण्ड््जित्वा बहून् देशान् बुद्धया विक्रमणेन च । अरण्ये मृगयाशीलो नन््यवसन्मुनिभि: सह ।। ११२ ।। महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रमसे अनेक देशोंपर विजय पाकर (हिंसक) मृगोंकों मारनेके स्वभाववाले होनेके कारण ऋषि-मुनियोंके साथ वनमें ही निवास करते थे।। ११२ |। मृगव्यवायनिधनात् कृच्छां प्राप स आपदम् | जन्मप्रभृति पार्थानां तत्राचारविधिक्रम: ।। ११३ ।। एक दिन उन्होंने मृगरूपधारी महर्षिको मैथुनकालमें मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकटमें पड़ गये (ऋषिने यह शाप दे दिया कि स्त्री-सहवास करनेपर तुम्हारी मृत्यु हो जायगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंके जन्मसे लेकर जातकर्म आदि सब संस्कार वनमें ही हुए और वहीं उन्हें शील एवं सदाचारकी रक्षाका उपदेश हुआ || ११३ |। मात्रोरभ्युपपत्तिश्व धर्मोपनिषदं प्रति । धर्मस्य वायो: शक्रस्य देवयोशक्ष तथाश्विनो: ।। ११४ ।। (पूर्वोक्त शाप होनेपर भी संतान होनेका कारण यह था कि) कुल-धर्मकी रक्षाके लिये दुर्वासदद्वारा प्राप्त हुई विद्याका आश्रय लेनेके कारण पाण्डवोंकी दोनों माताओं कुन्ती और
माद्रीके समीप क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार--इन देवताओंका आगमन सम्भव हो सका (इन्हींकी कृपासे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेवकी उत्पत्ति हुई) || ११४ ।।
(ततो धर्मोपनिषद: श्रुत्वा भर्तु: प्रिया पृथा ।
धर्मानिलेन्द्रान् स्तुतिभिर्जुहाव सुतवाउछया ।
तद्दत्तोपनिषन्माद्री चाश्विनावाजुहाव च ।)
तापसै: सह संवृद्धा मातृभ्यां परिरक्षिता: ।
मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च ।। ११५ ।।
पतिप्रिया कुन्तीने पतिके मुखसे धर्म-रहस्यकी बातें सुनकर पुत्र पानेकी इच्छासे मन्त्र- जप॒पूर्वक स्तुतिद्वारा धर्म, वायु और इन्द्र देववाका आवाहन किया। कुन्तीके उपदेश देनेपर माद्री भी उस मन्त्र-विद्याको जान गयी और उसने संतानके लिये दोनों अश्विनीकुमारोंका आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओंसे पाण्डवोंकी उत्पत्ति हुई। पाँचों पाण्डव अपनी दोनों माताओंद्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनोंमें और महात्माओंके परम पुण्य आश्रमोंमें ही तपस्वी लोगोंके साथ दिनोदिन बढ़ने लगे || ११५ ।।
ऋषिभिर्यत्तदा5<नीता धार्तराष्ट्रान् प्रति स््वयम् ।
शिशवश्चाभिरूपाश्न जटिला ब्रह्मब॒चारिण: ।। ११६ ।।
(पाण्डुकी मृत्यु होनेके पश्चात्) बड़े-बड़े ऋषि-मुनि स्वयं ही पाण्डवोंको लेकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंक पास आये। उस समय पाण्डव नन््हे-नन््हे शिशुके रूपमें बड़े ही सुन्दर लगते थे। वे सिरपर जटा धारण किये ब्रह्मचारीके वेशमें थे | ११६ ।।
पुत्राश्न भ्रातरश्नेमे शिष्या श्व सुहृदश्ष व: ।
पाण्डवा एत इत्युक्त्वा मुनयो<न्तर्हितास्तत: ।। ११७ ।।
ऋषियोंने वहाँ जाकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंसे कहा--“ये तुम्हारे पुत्र, भाई, शिष्य और सुहृद् हैं। ये सभी महाराज पाण्डुके ही पुत्र हैं।। इतना कहकर वे मुनि वहाँसे अन्तर्धान हो गये ।। ११७ ।।
तांस्तै्निवेदितान् दृष्टवा पाण्डवान् कौरवास्तदा ।
शिष्टाश्च वर्णा: पौरा ये ते हर्षाच्चुक्रुशुर्भशम् ।। ११८ ।।
ऋषियोंद्वारा लाये हुए उन पाण्डवोंको देखकर सभी कौरव और नगरनिवासी, शिष्ट तथा वर्णाश्रमी हर्षसे भरकर अत्यन्त कोलाहल करने लगे || ११८ ।।
आहु: केचिन्न तस्यैते तस्यैत इति चापरे ।
यदा चिरमृत: पाण्डु: कथं तस्येति चापरे ।। ११९ ।।
कोई कहते, “ये पाण्डुके पुत्र नहीं हैं। दूसरे कहते, “अजी! ये उन्हींके हैं।! कुछ लोग कहते, “जब पाण्डुको मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?” ।।
स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डो: पश्याम संततिम् |
उच्यतां स्वागतमिति वाचो<श्रूयन्त सर्वश: ।। १२० ||
फिर सब लोग कहने लगे, “हम तो सर्वथा इनका स्वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हम महाराज पाण्डुकी संतानको अपनी आँखोंसे देख रहे हैं।' फिर तो सब ओरसे स्वागत बोलनेवालोंकी ही बातें सुनायी देने लगीं || १२० ।।
तस्मिन्नुपरते शब्दे दिश: सर्वा निनादयन् |
अन्तर्हितानां भूतानां नि:ःस्वनस्तुमुलो5भवत् ॥। १२१ ।।
दर्शकोंका वह तुमुल शब्द बन्द होनेपर सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करती हुई अदृश्य भूतों--देवताओंकी यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी--'ये पाण्डव ही हैं! ।। १२१ ।।
पुष्पवृष्टि: शुभा गन्धा: शड्खदुन्दुभिनि:स्वना: ।
आसन प्रवेशे पार्थानां तदद्भुतमिवाभवत् ।। १२२ ।।
जिस समय पाण्डवोंने नगरमें प्रवेश किया, उसी समय फूलोंकी वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्ध छा गयी तथा शंख और दुन्दुभियोंके मांगलिक शब्द सुनायी देने लगे। यह एक अद्भुत चमत्कारकी-सी बात हुई ।। १२२ ।।
तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसम्भव: ।
शब्द आसीन्महांस्तत्र दिव:स्पृक्कीर्तिवर्धन: ।। १२३ ।।
सभी नागरिक पाण्डवोंके प्रेमसे आनन्दमें भरकर ऊँचे स्वरसे अभिनन्दन-ध्वनि करने लगे। उनका वह महान् शब्द स्वर्गलोकतक गूँज उठा जो पाण्डवोंकी कीर्ति बढ़ानेवाला था ।। १२३ ||
ते5धीत्य निखिलान् वेदाउ्छास्त्राणि विविधानि च ।
न्यवसन् पाण्डवास्तत्र पूजिता अकुतोभया: ।। १२४ ।।
वे सम्पूर्ण वेद एवं विविध शास्त्रोंका अध्ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्हें किसीसे भय नहीं था || १२४ ।।
युधिष्ठटिरस्य शौचेन प्रीता: प्रकृतयो5भवन् |
धृत्या च भीमसेनस्य विक्रमेणार्जुनस्य च ।। १२५ ।।
गुरुशुश्रूषया क्षान्त्या यमयोर्विनयेन च ।
तुतोष लोक: सकलस्तेषां शौर्यगुणेन च ।। १२६ ।।
राष्ट्रकी सम्पूर्ण प्रजा युधिष्ठिके शौचाचार, भीमसेनकी धृति, अर्जुनके विक्रम तथा नकुल-सहदेवकी गुरुशुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनयसे बहुत ही प्रसन्न होती थी। सब लोग पाण्डवोंके शौर्यगुणसे संतोषका अनुभव करते थे- ।।
समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्त॒स्वयंवराम् |
प्राप्तवानर्जुन: कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम् | १२७ ।।
तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् राजाओंके समुदायमें अर्जुनने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके स्वयं ही पति चुननेवाली द्रुपदकन्या कृष्णाको प्राप्त किया || १२७ ।।
ततः प्रभृति लोके5स्मिन् पूज्य: सर्वधनुष्मताम् ।
आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्य: समरेष्वपि चाभवत् | १२८ ।।
तभीसे वे इस लोकमें सम्पूर्ण धनुर्धारियोंक पूजनीय (आदरणीय) हो गये और समरांगणमें प्रचण्ड मार्तण्डकी भाँति प्रतापी अर्जुनकी ओर किसीके लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया ।। १२८ ।।
स सर्वान् पार्थिवाज् जित्वा सर्वाश्ष महतो गणान् ।
आजहारार्जुनो राज्ञो राजसूयं महाक्रतुम् ।। १२९ ।।
उन्होंने पृथकू-पृथक् तथा महान् संघ बनाकर आये हुए सब राजाओंको जीतकर महाराज युधिष्ठिरके राजसूय नामक महायज्ञको सम्पन्न कराया || १२९ |।
अन्नवान् दक्षिणावांश्व सर्व: समुदितो गुणै: ।
युधिष्ठटिरेण सम्प्राप्तो राजसूयो महाक्रतु: ।। १३० ।।
सुनयाद् वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च ।
घातयित्वा जरासन्धं चैद्यं च बलगर्वितम् ।। १३१ ।।
भगवान् श्रीकृष्णकी सुन्दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुनकी शक्तिसे बलके घमण्डमें चूर रहनेवाले जरासन्ध और चेदिराज शिशुपालको मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिरने महायज्ञ राजसूयका सम्पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम- गुणोंसे सम्पन्न था। उसमें प्रचुर अन्न और पर्याप्त दक्षिणाका वितरण किया गया था ।। १३०-१३१ ।।
दुर्योधनं समागच्छन्नहणानि ततस्तत: ।
मणिकाउज्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वधनानि च ।। १३२ ।।
विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च ।
कम्बलाजिनरत्नानि राड़कवास्तरणानि च ।। १३३ ।।
उस समय इधर-उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियोंके यहाँसे मणि, सुवर्ण, रत्न, गाय, हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा रंकुनामक मृगके बालोंसे बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहारकी बहुमूल्य वस्तुएँ आतीं, वे दुर्योधनके हाथमें दी जातीं--उसीकी देख-रेखमें रखी जाती थीं || १३२-१३३ ।।
समृद्धां तां तथा दृष्टवा पाण्डवानां तदा श्रियम् ।
ईर्ष्यासमुत्थ: सुमहांस्तस्य मन्युरजायत ।। १३४ ।।
उस समय पाण्डवोंकी वह बढ़ी-चढ़ी समृद्धि-सम्पत्ति देखकर दुर्योधनके मनमें ईर्ष्याजनित महान् रोष एवं दुःखका उदय हुआ ।। १३४ ।।
विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम् |
पाण्डवानामुपद्तां स दृष्टवा पर्यतप्यत ।। १३५ ।।
उस अवसरपर मयदानवने पाण्डवोंको एक सभाभवन भेंटमें दिया था, जिसकी रूपरेखा विमानके समान थी। वह भवन उसके शिल्पकौशलका एक अच्छा नमूना था। उसे देखकर दुर्योधनको और अधिक संताप हुआ ।। १३५ ||
तत्रावहसितश्नासीत् प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात् ।
प्रत्यक्ष वासुदेवस्थ भीमेनानभिजातवत् ।। १३६ ।।
उसी सभाभवनमें जब सम्भ्रम (जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम) होनेके कारण दुर्योधनके पाँव फिसलने-से लगे, तब भगवान् श्रीकृष्णके सामने ही भीमसेनने उसे गँवार- सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी || १३६ ।।
स भोगान् विविधान् भुज्जन् रत्नानि विविधानि च ।
कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिण: कृश: ।। १३७ ।।
दुर्योधन नाना प्रकारके भोग तथा भाँति-भाँतिके रत्नोंका उपयोग करते रहनेपर भी दिनोदिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियोंने महाराज धृतराष्ट्रको दी || १३७ ।।
अन्वजानातू ततो द्ूतं धृतराष्ट्र: सुतप्रिय: ।
तच्छुत्वा वासुदेवस्थ कोप: समभवन्महान् ।। १३८ ।।
धृतराष्ट्र अपने उस पुत्रके प्रति अधिक आसक्त थे, अत: उसकी इच्छा जानकर उन्होंने उसे पाण्डवोंके साथ जूआ खेलनेकी आज्ञा दे दी। जब भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्रपर बड़ा क्रोध आया ।। १३८ ।।
नातिप्रीतमनाश्नासीद् विवादांश्वान्चमोदत ।
द्यूतादीननयान् घोरान् विविधांश्षाप्युपैक्षत ।। १३९ ।।
यद्यपि उनके मनमें कलहकी सम्भावनाके कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, तथापि उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादोंका अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकारके भयंकर अन्याय, द्यूत आदिको देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी ।। १३९ |।
निरस्य विदुरं भीष्म द्रोणं शारद्वतं कृपम् ।
विग्रहे तुमुले तस्मिन् दहन् क्षत्रं परस्परम् ।। १४० ।।
(इस अनुमोदन या उपेक्षाका कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओंका संहार चाहते थे। अतः उन्हें विश्वास था कि) इस विग्रहजनित महान् युद्धमें विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्यकी अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक-दूसरेको अपनी क्रोधाग्निमें भस्म कर डालेंगे || १४० ।।
जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुव्वा सुमहदप्रियम् ।
दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा ।। १४१ ।।
धृतराष्ट्रश्निरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत् ।
शृणु संजय सर्व मे न चासूयितुमहसि ।। १४२ ।।
श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः ।
न विग्रहे मम मतिर्न च प्रीये कुलक्षये ।। १४३ ।।
जब युद्धमें पाण्डवोंकी जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर तथा दुर्योधन, कर्ण और शकुनिके दुराग्रहपूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देरतक चिन्तामें पड़े रहे। फिर उन्होंने संजयसे कहा--'संजय! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इस युद्ध या विनाशके लिये मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्धानू, मेधावी, बुद्धिमान् और पण्डितके लिये भी आदरणीय हो। इस युद्धमें मेरी सम्मति बिलकुल नहीं थी और यह जो हमारे कुलका विनाश हो गया है, इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है ।। १४१-- १४३ ||
न मे विशेष: पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा ।
वृद्ध मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणा: ।। १४४ ।।
मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंमें कोई भेद नहीं था। किंतु क्या करूँ? मेरे पुत्र क्रोधके वशीभूत हो मुझपर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे ।। १४४ ।।
अहं त्वचक्षु: कार्पण्यात् पुत्रप्रीत्या सहामि तत् |
मुहान्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम् ।। १४५ ।।
मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनताके कारण और कुछ पुत्रोंके प्रति अधिक आसक्ति होनेसे भी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्दबुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुःखी होता था, तब मैं भी उसके साथ दुःखी हो जाता था || १४५ ।।
राजसूये श्रियं दृष्टवा पाण्डवस्य महौजस: ।
तच्चावहसन प्राप्प सभारोहणदर्शने ।। १४६ ।।
अमर्षण: स्वयं जेतुमशक्त: पाण्डवान् रणे |
निरुत्साहश्व सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोडपि सन् ।। १४७ ।।
गान्धारराजसहितश्छट्द्यूतममन्त्रयत् ।
तत्र यद् यद् यथा ज्ञातं मया संजय तच्छुणु || १४८ ।।
राजसूय-यज्ञमें महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी सर्वोपरि समृद्धि-सम्पत्ति देखकर तथा सभाभवनकी सीढ़ियोंपर चढ़ते और उस भवनको देखते समय भीमसेनके द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्षमें भर गया था। युद्धमें पाण्डवोंको हरानेकी शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्धके लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परंतु पाण्डवोंकी उस उत्तम सम्पत्तिको हथियानेके लिये उसने गान्धारराज शकुनिको साथ लेकर कपट॒पूर्ण द्यूत खेलनेका ही निश्चय किया। संजय! इस प्रकार जूआ खेलनेका निश्चय हो जानेपर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समयपर विजयकी आशाके विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो-- || १४६-१४८ ।।
श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः । ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत ।। १४९ ।। सूतनन्दन! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनोंको सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ ।। १४९ ।। यदाओ्ष॑ धनुरायम्य चित्र विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम् । कृष्णां द्वतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५० ।। संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने धनुषपर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और उसे धरतीपर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओंके सामने, जबकि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक द्रौपदीको ले आया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी || १५० ।। यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन । इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरी च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५१ ।। संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने द्वारकामें मधुवंशकी राजकुमारी (और श्रीकृष्णकी बहिन) सुभद्राको बलपूर्वक हरण कर लिया और श्रीकृष्ण एवं बलराम (इस घटनाका विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थमें आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५१ || यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टें शर्रैं्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५२ ।। जब मैंने सुना कि खाण्डवदाहके समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुनने उसे अपने दिव्य बाणोंसे रोक दिया तथा अग्निदेवको तृप्त किया, संजय! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५२ ।। यदाश्रौष॑ जातुषाद् वेश्मनस्तान् मुक्तान् पार्थान् पज्च कुन्त्या समेतान् । युक्त चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५३ ।। जब मैंने सुना कि लाक्षाभवनसे अपनी मातासहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थसिद्धिके प्रयत्नमें तत्पर हैं, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १५३ ।।
यदाश्रौष द्रौपदी रड्गम ध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन । शूरान् पज्चालान् पाण्डवेयांश्व युक्तां- स््तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥। १५४ ।। जब मैंने सुना कि रंगभूमिमें लक्ष्यवेध करके अर्जुनने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं, संजय! उसी समय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १५४ ।। यदाओषं मागधानां वरिष्ठ जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम् । दोर्भ्या हतं भीमसेनेन गत्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १५५ || जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि, क्षत्रियजातिके जाज्वल्यमान रत्न जरासन्धको भीमसेनने उसकी राजधानीमें जाकर बिना अस्त्र-शस्त्रके हाथोंसे ही चीर दिया। संजय! मेरी जीतकी आशा तो तभी टूट गयी ।। १५५ ।। यदाश्रौषं दिग्विजये पाण्डुपुत्रै- व॑शीकृतान् भूमिपालान् प्रसहा । महाक्रतुं राजसूयं कृतं च तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १५६ ।। जब मैंने सुना कि दिग्विजयके समय पाण्डवोंने बलपूर्वक बड़े-बड़े भूमिपतियोंको अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया। संजय! तभी मैंने समझ लिया कि मेरी विजयकी कोई आशा नहीं है ।। १५६ ।। यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम् । रजस्वलां नाथवतीमनाथवत् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १५७ || संजय! जब मैंने सुना कि दु:खिता द्रौपदी रजस्वलावस्थामें आँखोंमें आँसू भरे केवल एक वस्त्र पहने वीर पतियोंके रहते हुए भी अनाथके समान भरी सभामें घसीटकर लायी गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५७ ।। यदाओईषं वाससां तत्र राशिं समाक्षिपत् कितवो मन्दबुद्धि: । दुःशासनो गतवान् नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥। १५८ ।।
जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्दबुद्धि दुःशासनने द्रौपदीका वस्त्र खींचा और वहाँ वस्त्रोंका इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका; संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १५८ ।। यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम् | अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयै- स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५९ ।। संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिरको जूएमें शकुनिने हगा दिया और उनका राज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाइयोंने युधिष्ठिरका अनुगमन ही किया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १५९ ।। यदाश्रौष॑ विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय । ज्येष्प्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६० ।। जब मैंने सुना कि वनमें जाते समय धर्मात्मा पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिरके प्रेमवश दुःख पा रहे थे और अपने हृदयका भाव प्रकाशित करनेके लिये विविध प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे थे; संजय! तभी मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ।। १६० ।। यदाओ्रौष॑ स्नातकानां सहस्रै- रन्वागतं धर्मराजं वनस्थम् | भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६१ ।। जब मैंने सुना कि हजारों स्नातक वनवासी युधिष्ठिरके साथ रह रहे हैं और वे तथा दूसरे महात्मा एवं ब्राह्मण उनसे भिक्षा प्राप्त करते हैं। संजय! तभी मैं विजयके सम्बन्धमें निराश हो गया ।। १६१ ।। यदाश्रौषमर्जुन देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे । अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्र तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६२ ।। संजय! जब मैंने सुना कि किरातवेषधारी देवदेव त्रिलोचन महादेवको युद्धमें संतुष्ट करके अर्जुनने पाशुपत नामक महान् अस्त्र प्राप्त कर लिया है, तभी मेरी आशा निराशामें परिणत हो गयी ।। १६२ ।। (यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान् समागतान् महर्षिशि: पुराणै: ।
उपास्यमानान् सगणैर्जातसख्यान् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥) यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनज्जयं शक्रात् साक्षाद् दिव्यमस्त्रं यथावत् | अधीयानं शंसितं सत्यसन्ध॑ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६३ ।। जब मैंने सुना कि वनवासमें भी कदुन्तीपुत्रोंके पास पुरातन महर्षिगण पधारते और उनसे मिलते हैं। उनके साथ उठते-बैठते और निवास करते हैं तथा सेवक-सम्बन्धियोंसहित पाण्डवोंके प्रति उनका मैत्रीभाव हो गया है। संजय! तभीसे मुझे अपने पक्षकी विजयका विश्वास नहीं रह गया था। जब मैंने सुना कि सत्यसंध धनंजय अर्जुन स्वर्गमें गये हुए हैं और वहाँ साक्षात् इन्द्रसे दिव्य अस्त्र-शस्त्रकी विधिपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और वहाँ उनके पौरुष एवं ब्रह्मचर्य आदिकी प्रशंसा हो रही है, संजय! तभीसे मेरी युद्धमें विजयकी आशा जाती रही ।। १६३ ।। यदाशओ्रौषं कालकेयास्ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ता: | देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६४ ।। जबसे मैंने सुना कि वरदानके प्रभावसे घमंडके नशेमें चूर कालकेय तथा पौलोम नामके असुरोंको, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं जीत सकते थे, अर्जुनने बात-की-बातमें पराजित कर दिया, तभीसे संजय! मैंने विजयकी आशा कभी नहीं की ।। १६४ ।। यदाओ्रषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम् | कृतार्थ चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १६५ ।। मैंने जब सुना कि शत्रुओंका संहार करनेवाले किरीटी अर्जुन असुरोंका वध करनेके लिये गये थे और इन्द्रलोकसे अपना काम पूरा करके लौट आये हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया--अब मेरी जीतकी कोई आशा नहीं ।। १६५ ।। (यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डो: सुतं सहितं लोमशेन । तस्मादश्रौषीदर्जुनस्या रर्थला भं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।) यदाश्रौष॑ वैश्रवणेन सार्ध समागतं भीममन्यांश्व पार्थान् ।
तस्मिन् देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६६ ।। जब मैंने सुना कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर महर्षि लोमशजीके साथ तीर्थयात्रा कर रहे हैं और लोमशजीके मुखसे ही उन्होंने यह भी सुना है कि स्वर्गमें अर्जुनको अभीष्ट वस्तु (दिव्यास्त्र)-की प्राप्ति हो गयी है, संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा ही छोड़ दी। जब मैंने सुना कि भीमसेन तथा दूसरे भाई उस देशमें जाकर, जहाँ मनुष्योंकी गति नहीं है, कुबेरके साथ मेल-मिलाप कर आये, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १६६ ।। यदाओ्रौष॑ घोषयात्रागतानां बन्ध॑ गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन । स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६७ ।। जब मैंने सुना कि कर्णकी बुद्धिपर विश्वास करके चलनेवाले मेरे पुत्र घोषयात्राके निमित्त गये और गन्धर्वोके हाथ बन्दी बन गये और अर्जुनने उन्हें उनके हाथसे छुड़ाया। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १६७ ।। यदाश्रौष॑ं यक्षरूपेण धर्म समागतं धर्मराजेन सूत । प्रश्नान् कांश्चिद् विब्रुवाणं च सम्यक् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६८ ।। सूत संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज यक्षका रूप धारण करके युधिष्ठिरसे मिले और युधिष्ठिरने उनके द्वारा किये गये गूढ़ प्रश्नोंका ठीक-ठीक समाधान कर दिया, तभी विजयके सम्बन्धमें मेरी आशा टूट गयी ।। १६८ ।। यदाश्रौष॑ न विदुर्मामकास्तान् प्रच्छन्नरूपान् वसत: पाण्डवेयान् | विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६९ ।। संजय! विराटकी राजधानीमें गुप्तरूपसे द्रौपदीके साथ पाँचों पाण्डव निवास कर रहे थे, परंतु मेरे पुत्र और उनके सहायक इस बातका पता नहीं लगा सके; जब मैंने यह बात सुनी, मुझे यह निश्चय हो गया कि मेरी विजय सम्भव नहीं है ।। १६९ ।। (यदाओ्रषं कीचकानां वरिष्ठ निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम् द्रौपद्यर्थ भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।) यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्
धनज्जयेनैकरथेन भग्नान् | विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७० ।।
संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनने द्रौपदीके प्रति किये हुए अपराधका बदला लेनेके लिये कीचकोंके सर्वश्रेष्ठ वीरको उसके सौ भाइयोंसहित युद्धमें मार डाला था, तभीसे मुझे विजयकी बिलकुल आशा नहीं रह गयी थी। संजय! जब मैंने सुना कि विराटकी राजधानीमें रहते समय महात्मा धनंजयने एकमात्र रथकी सहायतासे हमारे सभी श्रेष्ठ महारथियोंको (जो गो-हरणके लिये पूर्ण तैयारीके साथ वहाँ गये थे) मार भगाया, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७० ।।
यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा
सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय । तां चार्जुन: प्रत्यगृह्नात् सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७१ ।।
जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराटने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तराको अर्जुनके हाथ अर्पित कर दिया, परंतु अर्जुनने अपने लिये नहीं, अपने पुत्रके लिये उसे स्वीकार किया, संजय! उसी दिनसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था ।। १७१ |।
यदाश्रौष॑ निर्जितस्याधनस्य
प्रत्राजितस्य स्वजनात् प्रच्युतस्य । अक्षौहिणी: सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७२ ।।
संजय! युथधिष्छिर जूएमें पराजित हैं, निर्धन हैं, घरसे निकाले हुए हैं और अपने सगे- सम्बन्धियोंसे बिछुड़े हुए हैं। फिर भी जब मैंने सुना कि उनके पास सात अक्षौहिणी सेना एकत्र हो चुकी है, तभी विजयके लिये मेरे मनमें जो आशा थी, उसपर पानी फिर गया ।। १७२ ।।
यदाश्रौष॑ माधवं वासुदेवं
सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम् । यस्थेमां गां विक्रममेकमाहु- स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७३ ।।
(वामनावतारके समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डगमें ही आ गयी बतायी जाती है, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण पूरे हृदयसे पाण्डवोंकी कार्यसिद्धिके लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७३ ।।
यदाश्रौष॑ नरनारायणौ तौ
कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य ।
अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७४ ।। जब देवर्षि नारदके मुखसे मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात् नर और नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोकमें भलीभाँति देखा है, तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी || १७४ ।। यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम् | शमं कुर्वाणमकृतार्थ च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७५ ।। संजय! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण लोककल्याणके लिये शान्तिकी इच्छासे आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवोंमें शान्ति-सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने प्रयासमें असफल होकर लौट गये, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७५ ।। यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धि कृतां निग्रहे केशवस्य । त॑ चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७६ ।। संजय! जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन दोनोंने यह सलाह की है कि श्रीकृष्णको कैद कर लिया जाय और श्रीकृष्णने अपने-आपको अनेक रूपोंमें विराट् या अखिल विश्वके रूपमें दिखा दिया, तभीसे मैंने विजयाशा त्याग दी थी ।। १७६ ।।
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गीताप्रेस, गोरखपुर...
अवतारके लिये प्रार्थना
सिंह-बाघोंमें बालक भरत
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एकलव्यकी गुरु-दक्षिणा
द्रौपदी-स्वयंवर
प्रभासक्षेत्रमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका मिलन
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यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम् । आर्ता पृथां सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७७ ।। जब मैंने सुना--यहाँसे श्रीकृष्णके लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथके सामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हृदयकी आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी, तब श्रीकृष्णने उसे भलीभाँति सान्त्वना दी। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १७७ |। यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेव॑ तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम् | भारद्वाजं चाशिषो*नुब्रुवा्ं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १७८ ।। संजय! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवोंके मन्त्री हैं और शान्तनुनन्दन भीष्म तथा भारद्वाज द्रोणाचार्य उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजय- प्राप्तिकी किंचित् भी आशा नहीं रही ।। १७८ ।। यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्म॑ नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति । हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७९ ।। जब कर्णने भीष्मसे यह बात कह दी कि “जबतक तुम युद्ध करते रहोगे तबतक मैं पाण्डवोंसे नहीं लडूँगा', इतना ही नहीं--वह सेनाको छोड़कर हट गया, संजय! तभीसे मेरे मनमें विजयके लिये कुछ भी आशा नहीं रह गयी ।। १७९ |। यदाश्रौष॑ वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम् । त्रीण्युग्रवीयाणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८० ।॥। संजय! जब मैंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष--ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकट्टी हो गयी हैं, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी || १८० ।। यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेअर्जुने वै । कृष्णं लोकान् दर्शयानं शरीरे
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८१ ।। संजय! जब मैंने सुना कि रथके पिछले भागमें स्थित मोहग्रस्त अर्जुन अत्यन्त दुःखी हो रहे थे और श्रीकृष्णने अपने शरीरमें उन्हें सब लोकोंका दर्शन करा दिया, तभी मेरे मनसे विजयकी सारी आशा समाप्त हो गयी ।। १८१ ।। यदाश्रौष॑ भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम् । नैषां कश्चिद् वध्यते ख्यातरूप- स््तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८२ ।। जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगणमें प्रतिदिन दस हजार रथियोंका संहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवोंका कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १८२ ।। यदाश्रौष॑ चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण । तच्चाकार्षु: पाण्डवेया: प्रह्ृष्टा- स््तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८३ ।। जब मैंने सुना कि परम धार्मिक गंगानन्दन भीष्मने युद्धभूमिमें पाण्डवोंको अपनी मृत्युका उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवोंने प्रसन्न होकर उनकी उस आज्ञाका पालन किया। संजय! तभी मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १८३ ।। यदाओ्रौष॑ भीष्ममत्यन्तशूरं हत॑ पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् । शिखण्डिनं पुरत: स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८४ ।। जब मैंने सुना कि अर्जुनने सामने शिखण्डीको खड़ा करके उसकी ओटसे सर्वथा अजेय अत्यन्त शूर भीष्मपितामहको युद्धभूमिमें गिरा दिया। संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १८४ ।। यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्ध वीरं सादितं चित्रपुड्खै: । भीष्म कृत्वा सोमकानल्पशेषां- स््तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८५ ।। जब मैंने सुना कि हमारे वृद्ध वीर भीष्मपितामह अधिकांश सोमकवंशी योद्धाओंका वध करके अर्जुनके बाणोंसे क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्यापर शयन कर रहे हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १८५ ।।
यदाओ्रौष॑ शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन । भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्म॑ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १८६ ।। संजय! जब मैंने सुना कि शान्तनुनन्दन भीष्मपितामहने शरशय्यापर सोते समय अर्जुनको संकेत किया और उन्होंने बाणसे धरतीका भेदन करके उनकी प्यास बुझा दी, तब मैंने विजयकी आशा त्याग दी || १८६ ।। यदा वायुश्नन्द्रसूर्यों च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय । नित्यं चास्माउश्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८७ ।। जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभस्थानमें संयुक्त होकर पाण्डवोंकी विजयकी सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रतिदिन हमलोगोंको डरा रहे हैं। संजय! तब मैंने विजयके सम्बन्धमें अपनी आशा छोड़ दी ।। १८७ || यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान् निदर्शयन् समरे चित्रयोधी । न पाण्डवाउश्रेष्ठतरान् निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १८८ ।। संजय! हमारे आचार्य ट्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगणमें अपने अस्त्र-शस्त्रके अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीर- शिरोमणि पाण्डवोंमेंसे किसी एकका भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १८८ ।। यदाश्रौष॑ चास्मदीयान् महारथान् व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय । संशप्तकान् निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८९ ।। संजय! मेरी विजयकी आशा तो तभी नहीं रही जब मैंने सुना कि मेरे जो महारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुनके वधके लिये मोर्चेपर डटे हुए थे, उन्हें अकेले ही अर्जुनने मौतके घाट उतार दिया ।। १८९ |।। यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यै- भरिद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम् । भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९० ।। संजय! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथमें शस्त्र उठाकर उस चक्रव्यूहकी रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतु सुभद्रानन्दन वीर अभिमन्यु अकेला ही छित्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जब यह बात मेरे कानोंतक पहुँची, तभी मेरी विजयकी आशा लुप्त हो गयी ।। १९० ।। यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवु: । महारथा: पार्थमशवनुवन्त- स््तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९१ ।। संजय! मेरे बड़े-बड़े महारथी वीरवर अर्जुनके सामने तो टिक न सके और सबने मिलकर बालक अभिमन्युको घेर लिया और उसको मारकर हर्षित होने लगे, जब यह बात मुझतक पहुँची, तभीसे मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १९१ ।। यदाओऔषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान् क्रोशतो धार्तराष्ट्रानू । क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९२ ।। जब मैंने सुना कि मेरे मूढ़ पुत्र अपने ही वंशके होनहार बालक अभिमन्युकी हत्या करके हर्षपूर्ण कोलाहल कर रहे हैं और अर्जुनने क्रोधवश जयद्रथको मारनेकी भीषण प्रतिज्ञा की है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी || १९२ ।। यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्गधायार्जुनेन । सत्यां तीर्णा शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९३ ।। जब मैंने सुना कि अर्जुनने जयद्रथको मार डालनेकी जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, उसने वह शत्रुओंसे भरी रणभूमिमें सत्य एवं पूर्ण करके दिखा दी। संजय! तभीसे मुझे विजयकी सम्भावना नहीं रह गयी ।। १९३ ।। यदाओष॑ श्रान्तहये धनज्जये मुक्त्वा हयान् पाययित्वोपवृत्तान् | पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९४ ।।
युद्धभूमिमें धनज्जय अर्जुनके घोड़े अत्यन्त श्रान्त और प्याससे व्याकुल हो रहे थे। स्वयं श्रीकृष्णने उन्हें रथसे खोलकर पानी पिलाया। फिरसे रथके निकट लाकर उन्हें जोत दिया और अर्जुनसहित वे सकुशल लौट गये। जब मैंने यह बात सुनी, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १९४ ।। यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन । सर्वान् योधान् वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९५ ।। जब संग्रामभूमिमें रथके घोड़े अपना काम करनेमें असमर्थ हो गये, तब रथके समीप ही खड़े होकर पाण्डववीर अर्जुनने अकेले ही सब योद्धाओंका सामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय! उसी समय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९५ ।। यदाश्रौष॑ नागबलै: सुदुःसहं द्रोणानीक॑ युयुधानं प्रमथ्य । यात॑ वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थो तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९६ ।। जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान--सात्यकिने अकेले ही द्रोणाचार्यकी उस सेनाको, जिसका सामना हाथियोंकी सेना भी नहीं कर सकती थी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके पास पहुँच गये। संजय! तभीसे मेरे लिये विजयकी आशा असम्भव हो गयी ।। १९६ || यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्त वधाद् भीम॑ कुत्सयित्वा वचोभि: । धनुष्कोट्या55तुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९७ ।। संजय! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्णके पंजेमें फँस गये थे, परंतु कर्णने तिरस्कारपूर्वक झिड़ककर और धनुषकी नोक चुभाकर ही छोड़ दिया तथा भीमसेन मृत्युके मुखसे बच निकले। संजय! तभी मेरी विजयकी आशापर पानी फिर गया ।। १९७ ।। यदा द्रोण: कृतवर्मा कृपश्न कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्व शूर: । अमर्षयन् सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९८ ।।
जब मैंने सुना कि द्रोणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अभश्वत्थामा तथा वीर शल्यने भी सिन्धुराज जयद्रथका वध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया। संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९८ ।। यदाश्रौष॑ देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्ति व्यंसितां माधवेन । घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय ।॥। १९९ ।। संजय! देवराज इन्द्रने कर्णको कवचके बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थी और उसने उसे अर्जुनपर प्रयुक्त करनेके लिये रख छोड़ा था; परंतु मायापति श्रीकृष्णने भयंकर राक्षस घटोत्कचपर छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया। जिस समय यह बात मैंने सुनी, उसी समय मेरी विजयकी आशा टूट गयी ।। १९९ || यदाश्रौष॑ कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम् । यया वध्य: समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०० ।। जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कचके युद्धमें कर्णने वह शक्ति घटोत्कचपर चला दी, जिससे रणांगणमें अर्जुनका वध किया जा सकता था। संजय! तब मैंने विजयकी आशा छोड़ दी || २०० |। यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेक॑ धृष्टय्युम्नेना भ्यतिक्रम्य धर्मम् । रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०१ ।। संजय! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्रकी मृत्युके शोकसे शस्त्रादि छोड़कर आमरण अनशन करनेके निश्चयसे अकेले रथके पास बैठे थे और धृष्टद्युम्नने धर्मयुद्धकी मर्यादाका उल्लंघन करके उन्हें मार डाला, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। २०१ |। यदाश्रौषं ट्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये । सम॑ युद्धे मण्डले भ्य क्षरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०२ ।। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा-जैसे वीरके साथ बड़े-बड़े वीरोंके सामने ही माद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय! तब मुझे
जीतकी आशा न रही ।। २०२ |। यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन् नैषामन्तं गतवान् पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०३ ।। जब द्रोणाचार्यकी हत्याके अनन्तर अश्वत्थामाने दिव्य नारायणास्त्रका प्रयोग किया; परंतु उससे वह पाण्डवोंका अन्त नहीं कर सका। संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०३ ।। यदाओ्रौष॑ भीमसेनेन पीत॑ रक्त भ्रातुर्युधि दःशासनस्य । निवारितं नान्यतमेन भीम॑ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०४ ।। जब मैंने सुना कि रणभूमिमें भीमसेनने अपने भाई दुःशासनका रक्तपान किया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरुषोंमेंसे किसी एकने भी निवारण नहीं किया। संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा बिलकुल नहीं रह गयी || २०४ ।। यदाश्रौष॑ कर्णमत्यन्तशूरं हत॑ पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् । तस्मिन् भ्रातृणां विग्रहे देवगुहो तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०५ ।। संजय! वह भाईका भाईसे युद्ध देवताओंकी गुप्त प्रेरणासे हो रहा था। जब मैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्धभूमियोंमें कभी पराजित न होनेवाले अत्यन्त शूरशिरोमणि कर्णको पृथापुत्र अर्जुनने मार डाला, तब मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ।। २०५ ।। यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूर दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम् । युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०६ ।। जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासन एवं उम्र योद्धा कृतवर्माको भी युद्धमें जीत रहे हैं, संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रह गयी || २०६ ।। यदाओ्ष॑ निहत॑ मद्रराजं॑ रणे शूरं धर्मराजेन सूत । सदा संग्रामे स्पर्थते यस्तु कृष्णं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०७ ।। संजय! जब मैंने सुना कि रणभूमिमें धर्मराज युधिष्ठिरने शूरशिरोमणि मद्रराज शल्यको मार डाला, जो सर्वदा युद्धमें घोड़े हाँकनेके सम्बन्धमें श्रीकृष्णकी होड़ करनेपर उतारू रहता था, तभीसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था || २०७ || यदाशओ्रौषं कलहयद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन | हतं संग्रामे सहदेवेन पाप॑ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०८ ।। जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूतके मूल कारण, केवल छल-कपटके बलसे बली पापी शकुनिको पाण्डुनन्दन सहदेवने रणभूमिमें यमराजके हवाले कर दिया, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०८ ।। यदाश्रौषं श्रान्तमेक॑ शयानं हृद॑ गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भ: | दुर्योधनं विरथं भग्नशक्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०९ ।। जब दुर्योधनका रथ छित्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थक गया, तब सरोवरपर जाकर वहाँका जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सो गया। संजय! जब मैंने यह संवाद सुना, तब मेरी विजयकी आशा भी चली गयी || २०९ |। यदाश्रौष॑ पाण्डवांस्तिष्ठमानान् गत्वा हदे वासुदेवेन सार्थम् । अमर्षणं धर्षयत: सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१० ।। जब मैंने सुना कि उसी सरोवरके तटपर श्रीकृष्णके साथ पाण्डव जाकर खड़े हैं और मेरे पुत्रको असहा दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय! मैंने विजयकी आशा सर्वथा त्याग दी || २१० ।। यदाश्रौष॑ विविधांश्रित्रमार्गान् गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम् । मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्धया तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २११ ।। संजय! जब मैंने सुना कि गदायुद्धमें मेरा पुत्र बड़ी निपुणतासे पैंतरे बदलकर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्णकी सलाहसे भीमसेनने
गदायुद्धकी मर्यादाके विपरीत जाँघमें गदाका प्रहार करके उसे मार डाला, तब तो संजय! मेरे मनमें विजयकी आशा रह ही नहीं गयी || २११ ।। यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तै- हतान् पज्चालान द्रौपदेयांश्व सुप्तान् । कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१२ ।। संजय! जब मैंने सुना कि अअश्वत्थामा आदि दुष्टोंने सोते हुए पाउ्चाल नरपतियों और द्रौपदीके होनहार पुत्रोंको मारकर अत्यन्त बीभत्स और वंशके यशको कलंकित करनेवाला काम किया है, तब तो मुझे विजयकी आशा रही ही नहीं ।। २१२ ।। यदाओष॑ भीमसेनानुयाते- नाश्वत्थाम्ना परमास्त्र प्रयुक्तम् । क्रुद्धेनेषीकमवधीद् येन गर्भ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१३ ।। संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनके पीछा करनेपर अभ्वत्थामाने क्रोधपूर्वक सींकके बाणपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवोंका गर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाय, तभी मेरे मनमें विजयकी आशा नहीं रही ।। २१३ ।। यदाश्रौषं ब्रह्मशिरो<र्जुनेन स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम् । अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१४ ।। जब मैंने सुना कि अअभश्वत्थामाके द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्रको अर्जुनने 'स्वस्ति', 'स्वस्ति” कहकर अपने अस्त्रसे शान्त कर दिया और अभश्वत्थामाको अपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय! उसी समय मुझे जीतकी आशा नहीं रही ।। २१४ ।। यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रै: द्वैपायन: केशवो द्रोणपुत्र परस्परेणाभिशापै: शशाप || २१५ ।। शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैर्विहीना तथा बन्धुभि: पितृभि भ्रतिभिश्न । कृतं कार्य दुष्करं पाण्डवेयै:
प्राप्त राज्यमसपत्नं पुनस्तै: ।। २१६ ।। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा अपने महान् अस्त्रोंका प्रयोग करके उत्तराका गर्भ गिरानेकी चेष्टा कर रहा है तथा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने परस्पर विचार करके उसे शापोंसे अभिशप्त कर दिया है (तभी मेरी विजयकी आशा सदाके लिये समाप्त हो गयी)। इस समय गान्धारीकी दशा शोचनीय हो गयी है; क्योंकि उसके पुत्र-पौत्र, पिता तथा भाई-बन्धुओंमेंसे कोई नहीं रहा। पाण्डवोंने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिरसे अपना अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया || २१५-२१६ |। कष्ट युद्धे दश शेषा: श्रुता मे त्रयो5स्माकं पाण्डवानां च सप्त । दयूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां तस्मिन् संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम् ।। २१७ ।। हाय-हाय! कितने कष्टकी बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्धमें केवल दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्षके तीन--कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा पाण्डवपक्षके सात--श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियोंके इस भीषण संग्राममें अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयीं || २१७ ।। तमस्त्वतीव विस्तीर्ण मोह आविशतीव माम् । संज्ञां नोपलभे सूत मनो विद्धलतीव मे ।। २१८ ।। सारथे! यह सब सुनकर मेरी आँखोंके सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। मेरे हृदयमें मोहका आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतना-शून्य हो रहा हूँ। मेरा मन विह्नल-सा हो रहा है ।। २१८ ।। सौतिर्वाच
इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रो<थ विलप्य बहुदु:खित: ।
मूर्च्छित: पुनराश्वस्त: संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। २१९ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं--धृतराष्ट्रने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और अत्यन्त दुःखके कारण वे मूर्च्छित हो गये। फिर होशमें आकर कहने लगे ।| २१९ |।
धृतराष्ट्र रवाच
संजयीैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम् |
स्तोक॑ हापि न पश्यामि फलं जीवितधारणे ।। २२० ।।
धृतराष्ट्रने कहा--संजय! युद्धका यह परिणाम निकलनेपर अब मैं अविलम्ब अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन-धारण करनेका कुछ भी
फल मुझे दिखलायी नहीं देता || २२० ।। सौतिर्वाच
त॑ तथावादिनं दीन विलपन्तं महीपतिम् |
निःश्वसन्तं यथा नागं मुहा[मानं पुनः पुन: ।। २२१ ।।
गावल्गणिरिदं धीमान् महार्थ वाक््यमब्रवीत् |
उग्रश्रवाजी कहते हैं--जब राजा धृतराष्ट्र दीनतापूर्वक विलाप करते हुए ऐसा कह रहे थे और नागके समान लम्बी साँस ले रहे थे तथा बार-बार मूर्च्छित होते जा रहे थे, तब बुद्धिमान् संजयने यह सारगर्भित प्रवचन किया ।। २२१३
|| संजय उवाच
श्रुतवानसि वै राजन् महोत्साहान् महाबलान् ॥। २२२ ।।
द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमत: ।
संजयने कहा--महाराज! आपने परम ज्ञानी देवर्षि नारद एवं महर्षि व्यासके मुखसे महान् उत्साहसे युक्त एवं परम पराक्रमी नृपतियोंका चरित्र श्रवण किया है || २२२६ ।।
महत्सु राजवंशेषु गुणै: समुदितेषु च ।। २२३ ।।
जातान् दिव्यास्त्रविदुष: शक्रप्रतिमतेजस: ।
धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्जैरिष्टवाप्तदक्षिणै: || २२४ ।।
अस्मिल््लोके यश: प्राप्प ततः कालवशं गतान् ।
शैब्यं महारथं वीरं॑ सृज्जयं जयतां वरम् ।। २२५ ।।
सुहोत्र रन्तिदेवं च काक्षीवन्तमथौशिजम् |
बाह्लीकं दमन चैद्यं शर्यातिमजितं नलम् ।। २२६ ।।
विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम् ।
मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च ।। २२७ ।।
रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम् ।
कृतवीर्य महाभागं तथैव जनमेजयम् ।। २२८ ।।
ययातिं शुभकर्माणं देवैयों याजित: स्वयम् ।
चैत्ययूपाड्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा ।। २२९ ।।
इति राज्ञां चतुर्विशन्नारदेन सुरर्िणा ।
पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्वैत्याय कीर्तितम् ।। २३० ।।
आपने ऐसे-ऐसे राजाओंके चरित्र सुने हैं जो सर्वसद्गुणसम्पन्न महान् राजवंशोंमें उत्पन्न, दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंके पारदर्शी एवं देवराज इन्द्रके समान
प्रभावशाली थे। जिन्होंने धर्मयुद्धसे पृथ्वीपर विजय प्राप्त की, बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ किये, इस लोकमें उज्ज्वल यश प्राप्त किया और फिर कालके गालमें समा गये। इनमेंसे महारथी शैब्य, विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ संजय, सुहोत्र, रन्तिदेव, काक्षीवान, औशिज, बाह्लीक, दमन, चैद्य, शर्याति, अपराजित नल, शत्रुघाती विश्वामित्र, महाबली अम्बरीष, मरुत्त, मनु, इक्ष्वाकु, गय, भरत दशरथनन्दन श्रीराम, शशबिन्दु, भगीरथ, महाभाग्यशाली कृतवीर्य, जनमेजय और वे शुभकर्मा ययाति, जिनका यज्ञ देवताओंने स्वयं करवाया था, जिन्होंने अपनी राष्ट्रभूमिको यज्ञोंकी खान बना दिया था और सारी पृथ्वी यज्ञ-सम्बन्धी यूपों (खंभों)-से अंकित कर दी थी--इन चौबीस राजाओंका वर्णन पूर्वकालमें देवर्षि नारदने पुत्रशोकसे अत्यन्त संतप्त महाराज श्रवैत्यका दुःख दूर करनेके लिये किया था || २२३--२३० ||
तेभ्यश्वान्ये गता: पूर्व राजानो बलवत्तरा: ।
महारथा महात्मान: सर्वे: समुदिता गुणै: ।। २३१ ।।
पूरु: कुरुर्यदु: शूरो विष्वगश्वो महाद्युति: ।
अणुहो युवनाश्वश्व॒ ककुत्स्थो विक्रमी रघु: ।। २३२ ।।
विजयो वीतिहोत्रो5ड़ो भव: श्वेतो बृहद्गुरु: ।
उशीनर: शतरथ: कड़को दुलिदुहो द्रुम: | २३३ ।।
दम्भोद्धव: परो वेन: सगर: संकृतिर्निमि: ।
अजेय: परशु: पुण्ड: शम्भुर्देवावधोडनघ: ।। २३४ ।।
देवाह्वयः सुप्रतिम: सुप्रतीको बृहद्रथः ।
महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुर्नैषधो नलः ।। २३५ ।।
सत्यव्रत: शान्तभय: सुमित्र: सुबल: प्रभु: ।
जानुजड्घो5नरण्यो<र्क: प्रियभृत्य: शुचिव्रत: ।। २३६ ।।
बलबन्धुर्निरामर्द: केतुशुड्रो बृहद्धल: |
धष्टकेतुर्ब॒हत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामय: ।। २३७ ।।
अवीक्षिच्चपलो धूर्त: कृतबन्धुर्दकेषुधि: ।
महापुराणसम्भाव्य: प्रत्यज्र: परहा श्रुति: ।। २३८ ।।
एते चान्ये च राजान: शतशो5थ सहस््रश: ।
श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्वैव पद्मश: ।। २३९ |।
हित्वा सुविपुलान् भोगान् बुद्धिमन्तो महाबला: ।
राजानो निधन प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो ।। २४० ।।
महाराज! पिछले युगमें इन राजाओंके अतिरिक्त दूसरे और बहुत-से महारथी, महात्मा, शौर्य-वीर्य आदि सदगुणोंसे सम्पन्न, परम पराक्रमी राजा हो
गये हैं। जैसे--पूरु, कुरु, यदु, शूर, महातेजस्वी विष्वगश्च, अणुह, युवनाश्रव, ककुत्स्थ, पराक्रमी रघु, विजय, वीतिहोत्र, अंग, भव, श्वेत, बृहद्गुरु, उशीनर, शतरथ, कंक, दुलिदुह, ट्रुम, दम्भोद्धव, पर, वेन, सगर, संकृति, निमि, अजेय, परशु, पुण्ड्र, शम्भु, निष्पाप देवावृध, देवाह्नय, सुप्रतिम, सुप्रतीक, बृहद्रथ, महान् उत्साही और महाविनयी सुक्रतु, निषधराज नल, सत्यव्रत, शान्तभय, सुमित्र, सुबल, प्रभु, जानुजंघ, अनरण्य, अर्क, प्रियभृत्य, शुचित्रत, बलबन्धु, निरामर्द, केतुशंग, बृहद्वल, धृष्टकेतु, बृहत्केतु, दीप्तकेतु, निरामय, अवीक्षित्, चपल, धूर्त, कृतबन्धु, दृढेषुधि, महापुराणोंमें सम्मानित प्रत्यंग, परहा और श्रुति --ये और इनके अतिरिक्त दूसरे सैकड़ों तथा हजारों राजा सुने जाते हैं, जिनका सैकड़ों बार वर्णन किया गया है और इनके सिवा दूसरे भी, जिनकी संख्या पद्मोंमें कही गयी है, बड़े बुद्धिमान् और शक्तिशाली थे। महाराज! किंतु वे अपने विपुल भोग-वैभवको छोड़कर वैसे ही मर गये, जैसे आपके पुत्रोंकी मृत्यु हुई है || २३१--२४० ।।
येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च |
माहात्म्यमपि चास्तिक्यं सत्यं शौचं दयार्जवम् ।। २४१ ।।
विद्वद्धि: कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमै: ।
सर्वर्द्धिंगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गता: ।। २४२ ।।
जिनके दिव्य कर्म, पराक्रम, त्याग, माहात्म्य, आस्तिकता, सत्य, पवित्रता, दया और सरलता आदि सदगुणोंका वर्णन बड़े-बड़े विद्वान् एवं श्रेष्ठटम कवि प्राचीन ग्रन्थोंमें तथा लोकमें भी करते रहते हैं, वे समस्त सम्पत्ति और सदगुणोंसे सम्पन्न महापुरुष भी मृत्युको प्राप्त हो गये | २४१-२४२ ।।
तव पुत्रा दुरात्मान: प्रतप्ताश्चैव मन्युना ।
लुब्धा दुर्वत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमहसि ।। २४३ ।।
आपके पुत्र दुर्योधन आदि तो दुरात्मा, क्रोधसे जले-भुने, लोभी एवं अत्यन्त दुराचारी थे। उनकी मृत्युपर आपको शोक नहीं करना चाहिये ।। २४३ ।।
श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः ।
येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुहान्ति भारत ॥। २४४ ।।
आपने गुरुजनोंसे सत्-शास्त्रोंका श्रवण किया है। आपकी धारणाशक्ति तीव्र है, आप बुद्धिमान् हैं और ज्ञानवान् पुरुष आपका आदर करते हैं। भरतवंशशिरोमणे! जिनकी बुद्धि शास्त्रके अनुसार सोचती है, वे कभी शोक- मोहसे मोहित नहीं होते || २४४ ।।
निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप ।
नात्यन्तमेवानुवृत्ति: कार्या ते पुत्ररक्षणे || २४५ ।।
महाराज! आपने पाण्डवोंके साथ निर्दयता और अपने पुत्रोंके प्रति पक्षपातका जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रोंके जीवनके लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये || २४५ ।।
भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुम्सि ।
दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमहति ।। २४६ ।।
होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला, इस सृष्टिमें ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धिकी विशेषतासे होनहार मिटा सके ।। २४६ ।।
विधातृविहितं मार्ग न कश्चिदतिवर्तते ।
कालमूलमिदं सर्व भावाभावौ सुखासुखे ।। २४७ ।।
अपने कर्मोंका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है--यह विधाताका विधान है। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख सबका मूल कारण काल ही है ।। २४७ ।।
काल: सृजति भूतानि काल: संहरते प्रजा: ।
संहरन्तं प्रजा: कालं काल: शमयते पुन: ।। २४८ ।।
काल ही प्राणियोंकी सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजाका संहार करता है। फिर प्रजाका संहार करनेवाले उस कालको महाकालस्वरूप परमात्मा ही शान्त करता है || २४८ ।।
कालो हि कुरुते भावान् सर्वलोके शुभाशुभान् ।
काल: संक्षिपते सर्वा: प्रजा विसृजते पुन: ।। २४९ ।।
सम्पूर्ण लोकोंमें यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थोका कर्ता है। काल ही सम्पूर्ण प्रजाका संहार करता है और वही पुनः सबकी सृष्टि भी करता है || २४९ |।
काल: सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रम: ।
काल: सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृत: सम: ।। २५० ||
अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम् ।
तान् कालनिर्मितान् बुद्ध्वा न संज्ञां हातुमहसि ।। २५१ ।।
जब सुषुप्ति-अवस्थामें सब इन्द्रियाँ और मनोवृतियाँ लीन हो जाती हैं, तब भी यह काल जागता रहता है। कालकी गतिका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है। इस सृष्टिमें जितने पदार्थ हो चुके, भविष्यमें होंगे और इस समय वर्तमान हैं, वे सब कालकी रचना हैं; ऐसा समझकर आपको अपने विवेकका परित्याग नहीं करना चाहिये || २५०-२५१ ।।
सौतिरुवाच
इत्येवं पुत्रशोकर्त धृतराष्ट्रं जने श्वरम् ।
आश्रचास्य स्वस्थमकरोत् सूतो गावल्गणिस्तदा | २५२ ।।
अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनो<ब्रवीत् ।
विद्वद्धिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमै: ।। २५३ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं--सूतवंशी संजयने यह सब कहकर पुत्रशोकसे व्याकुल नरपति धृतराष्ट्रको समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसी इतिहासके आधारपर श्रीकृष्णद्वैपायनने इस परम पुण्यमयी उपनिषद्-रूप महाभारतका (शोकातुर प्राणियोंका शोक नाश करनेके लिये) निरूपण किया। विद्वज्जन लोकमें और श्रेष्ठतम कवि पुराणोंमें सदासे इसीका वर्णन करते आये हैं ।। २५२-२५३ ।।
भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयत: ।
श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषत: ।। २५४ ।।
महाभारतका अध्ययन अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला है। जो कोई श्रद्धाके साथ इसके किसी एक श्लोकके एक पादका भी अध्ययन करता है, उसके सब पाप सम्पूर्णरूपसे मिट जाते हैं || २५४ ।।
देवा देवर्षयो द्वात्र तथा ब्रह्मर्षपो5मला: ।
कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगा: | २५५ ।।
इस ग्रन्थरत्नमें शुभ कर्म करनेवाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष और महानागोंका वर्णन किया गया है || २५५ ||
भगवान् वासुदेवश्व कीर्त्यते5त्र सनातन: ।
स हि सत्यमृतं चैव पवित्र पुण्यमेव च ।। २५६ ।।
इस ग्रन्थके मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन परब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण। उन्हींका इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत, पवित्र एवं पुण्य हैं | २५६ ।।
शाश्च॒तं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योति: सनातनम् ।
यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिण: ।। २५७ ।।
वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्योति हैं। मनीषी पुरुष उन्हींकी दिव्य लीलाओंका संकीर्तन किया करते हैं || २५७ ।।
असच्च सदसच्चैव यस्माद् विश्व प्रवर्तते ।
संततिश्न प्रवृत्तिश्न जन्ममृत्युपुनर्भवा: ।। २५८ ।।
उन्हींसे असत्, सत् तथा सदसत्-उभयरूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है। उन्हींसे संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्त्तव्य-कर्म), जन्म-मृत्यु तथा पुनर्जन्म होते
हैं ।। २५८ ।।
अध्यात्मं श्रूयते यच्च पजचभूतगुणात्मकम् |
अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते ॥। २५९ ।।
इस महाभारतमें जीवात्माका स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्त्व- रज-तम--इन तीनों गुणोंके कार्यरूप पाँच महाभूत हैं, उनका तथा जो अव्यक्त प्रकृति आदिके मूल कारण परम ब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलीभाँति निरूपण किया गया है || २५९ ||
यत्तद् यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विता: ।
प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।। २६० ।।
ध्यानयोगकी शक्तिसे सम्पन्न जीवन्मुक्त यतिवर, दर्पणमें प्रतिबिम्बके समान अपने हृदयमें अवस्थित उन्हीं परमात्माका अनुभव करते हैं || २६० ।।
श्रद्धधान: सदा युक्त: सदा धर्मपरायण: ।
आसेवन्निममध्यायं नर: पापात् प्रमुच्यते || २६१ ।।
जो धर्मपरायण पुरुष श्रद्धाके साथ सर्वदा सावधान रहकर प्रतिदिन इस अध्यायका सेवन करता है, वह पाप-तापसे मुक्त हो जाता है ।। २६१ ।।
अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादित: ।
आस्तिक: सततं शृण्वन् न कृच्छेष्ववसीदति ।। २६२ ।।
जो आस्तिक पुरुष महाभारतके इस अनुक्रमणिका-अध्यायको आदिसे अन्ततक प्रतिदिन श्रवण करता है, वह संकटकालमें भी दुःखसे अभिभूत नहीं होता ।। २६२ ।।
उभे संध्ये जपन् किंचित् सद्यो मुच्येत किल्बिषात् |
अनुक्रमण्या यावत् स्यादल्ला रात्रया च संचितम् ।। २६३ ।।
जो इस अनुक्रमणिका-अध्यायका कुछ अंश भी प्रात:-सायं अथवा मध्याह्ममें जपता है, वह दिन अथवा रात्रिके समय संचित सम्पूर्ण पापराशिसे तत्काल मुक्त हो जाता है ।। २६३ ।।
भारतस्य वपुर्ठोतित् सत्यं चामृतमेव च ।
नवनीतं यथा दबध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा ।। २६४ ।।
आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्यो*डमृतं यथा ।
हृदानामुदधि: श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम् ।। २६५ ।।
यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते ।
यश्नैनं श्रावयेच्छाद्धे ब्राह्मणान् पादमन्तत: ।। २६६ ।।
अक्षय्यमन्नपानं वै पितृस्तस्योपतिष्ठते ।
यह अध्याय महाभारतका मूल शरीर है। यह सत्य एवं अमृत है। जैसे दहीमें नवनीत, मनुष्योंमें ब्राह्मण, वेदोंमें उपनिषद् ओषधियोंमें अमृत, सरोवरोंमें समुद्र और चौपायोंमें गाय सबसे श्रेष्ठ है, वैसे ही उन्हींके समान इतिहासोंमें यह महाभारत भी है। जो श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंको अन्तमें इस अध्यायका एक चौथाई भाग अथवा श्लोकका एक चरण भी सुनाता है, उसके पितरोंको अक्षय अन्न-पानकी प्राप्ति होती है ।। २६४-२६६ ।।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबंहयेत् | २६७ ।।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति ।
कार्ष्ण वेदमिमं विद्वाउश्रावयित्वार्थमश्रुते | २६८ ।।
इतिहास और पुराणोंकी सहायतासे ही वेदोंके अर्थका विस्तार एवं समर्थन करना चाहिये। जो इतिहास एवं पुराणोंसे अनभिज्ञ है, उससे वेद डरते रहते हैं कि कहीं यह मुझपर प्रहार कर देगा। जो दिद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायनद्वारा कहे हुए इस वेदका दूसरोंको श्रवण कराते हैं, उन्हें मनोवांछित अर्थकी प्राप्ति होती है || २६७-२६८ ।।
भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्वादसंशयम् |
य इमं शुचिरध्यायं पठेत् पर्वणि पर्वणि ।। २६९ ।।
अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्थादिति मे मति: ।
यश्चैनं शृणुयान्नित्यमार्ष श्रद्धासमन्वित: ।। २७० ।।
स दीर्घमायु: कीर्ति च स्वर्गतिं चाप्तुयान्नर: ।
एकततकश्नतुरो वेदान् भारतं चैतदेकत: ।। २७१ ।।
पुरा किल सुरै: सर्वे: समेत्य तुलया धृतम् |
चतुर्भ्य: सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो हाधिकं यदा ।। २७२ ।।
तदा प्रभृति लोके5स्मिन् महाभारतमुच्यते ।
महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यत्तोडधिकम् ।। २७३ |।
और इससे भ्रूणहत्या आदि पापोंका भी नाश हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। जो पवित्र होकर प्रत्येक पर्वपर इस अध्यायका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल मिलता है, ऐसा मेरा निश्चय है। जो पुरुष श्रद्धाके साथ प्रतिदिन इस महर्षि व्यासप्रणीत ग्रन्थरत्नका श्रवण करता है, उसे दीर्घ आयु, कीर्ति और स्वर्गकी प्राप्ति होती है। प्राचीन कालमें सब देवताओंने इकट्ठे होकर तराजूके एक पलड़ेपर चारों वेदोंको और दूसरेपर महाभारतको रखा। परंतु जब यह रहस्यसहित चारों वेदोंकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तभीसे संसारमें यह महाभारतके नामसे कहा जाने लगा। सत्यके तराजूपर तौलनेसे यह
ग्रन्थ महत्त्व, गौरव अथवा गम्भीरतामें वेदोंसे भी अधिक सिद्ध हुआ है ।। २६९ --२७३ || महत्त्वाद् भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते । निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापै: प्रमुच्यते || २७४ ।। अतएव महत्ता, भार अथवा गम्भीरताकी विशेषतासे ही इसको महाभारत कहते हैं। जो इस ग्रन्थके निर्वचनको जान लेता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है || २७४ ।। तपो न कल्को<ध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्क: । प्रसह वित्ताहरणं न कल्क- स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः ।। २७५ ।। तपस्या निर्मल है, शास्त्रोंका अध्ययन भी निर्मल है, वर्णाश्रमके अनुसार स्वाभाविक वेदोक्त विधि भी निर्मल है और कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन भी निर्मल है, किंतु वे ही सब विपरीत भावसे किये जानेपर पापमय हैं अर्थात् दूसरेके अनिष्टके लिये किया हुआ तप, शास्त्राध्ययन और वेदोक्त स्वाभाविक कर्म तथा क्लेशपूर्वक उपार्जित धन भी पापयुक्त हो जाता है। (तात्पर्य यह कि इस ग्रन्थरत्नमें भावशुद्धिपर विशेष जोर दिया गया है; इसलिये महाभारत- ग्रन्थका अध्ययन करते समय भी भाव शुद्ध रखना चाहिये) || २७५ ।।
इति श्रीमन्न्महाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि प्रथमो<ध्याय: ।। १२ ।। इस प्रकार श्रीमह्ाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अनुक्रमाणिकापरबववमें पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥ [दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल २८२ श्लोक हैं]
।। अनुक्रमणिकापर्व सम्पूर्ण ।।
३. जय शब्दका अर्थ महाभारत नामक इतिहास ही है। आगे चलकर कहा है--“जयो नामेतिहासो5यम्' इत्यादि। अथवा अठारहों पुराण, वाल्मीकिरामायण आदि सभी आर्ष-ग्रन्थोंकी संज्ञा जय” है।
२. मंगलाचरणका श्लोक देखनेपर ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ नारायण शब्दका अर्थ है भगवान् श्रीकृष्ण और नरोत्तम नरका अर्थ है नररत्न अर्जुन। महाभारतमें प्राय: सर्वत्र इन्हीं दोनोंका नर-नारायणके अवतारके रूपमें उल्लेख हुआ है। इससे मंगलाचरणमें ग्रन्थके इन दोनों प्रधान पात्र तथा भगवानके मूर्ति- युगलको प्रणाम करना मंगलाचरणको नमस्कारात्मक होनेके साथ ही वस्तुनिर्देशात्मक भी बना देता है। इसलिये अनुवादमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका ही उल्लेख किया गया है।
3. नैमिषारण्य नामकी व्याख्या वाराहपुराणमें इस प्रकार मिलती है-- एवं कृत्वा ततो देवो मुनिं गौरमुखं तदा। उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम् ।। अरुण्येडस्मिंस्ततस्त्वेतत्नैमिषारण्यसंज्ञितम् ।
ऐसा करके भगवानने उस समय गौरमुख मुनिसे कहा--“मैंने निमिषमात्रमें इस अरण्य (वन)-के भीतर इस दानव-सेनाका संहार किया है; अत: यह वन नैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध होगा।”
४. जो दिद्वान् ब्राह्ण अकेला ही दस सहसख्र जिज्ञासु व्यक्तियोंका अन्न-दानादिके द्वारा भरण-पोषण करता है, उसे कुलपति कहते हैं।
५. जो कार्य अनेक व्यक्तियोंके सहयोगसे किया गया हो और जिसमें बहुतोंको ज्ञान, सदाचार आदिकी शिक्षा तथा अन्न-वस्त्रादि वस्तुएँ दी जाती हों, जो बहुतोंके लिये तृप्तिकारक एवं उपयोगी हो, उसे “सत्र” कहते हैं।
$. “तत् सृष्टवा तदेवानु प्राविशत” (तैत्तिरीय उपनिषद्)। ब्रह्मने अण्ड एवं पिण्डकी रचना करके मानो स्वयं ही उसमें प्रवेश किया है।
२. ऋषय: सप्त पूर्वे ये मनवश्च चतुर्दश । एते प्रजानां पतय एभि: कल्प: समाप्यते ।।
(नीलकपण्ठीमें ब्रह्माण्डपुराणका वचन) > यह और इसके बादका श्लोक महाभारतके तात्पर्यके सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्दसे द्वेष-असूया आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहिये। कर्ण, शकुनि, दःशासन आदि उससे एकताको प्राप्त हैं, उसीके स्वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्ट्र। यह अज्ञानी अपने मनको वशमें करनेमें असमर्थ है। इसीने पुत्रोंकी आसक्तिसे अंधे होकर दुर्योधनको अवसर दिया, जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि यह दुर्योधनको वशमें कर लेता अथवा बचपनमें ही विदुर आदिकी बात मानकर इसका त्याग कर देता तो विष-दान, लाक्षागृहदाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्कर्मोंका अवसर ही नहीं आता और कुलक्षय न होता। इस प्रसंगसे यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो मन्यु (दुर्योधन)-रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ अज्ञान ही मूल है, क्रोध-लोभादि स्कन्ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्धन-नरकादि इसके फल- पुष्प हैं। पुरुषार्थकामी पुरुषको मूलाज्ञानका उच्छेद करके पहले ही इस (क्रोधरूप) वृक्षको नष्ट कर देना चाहिये।
- युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्य, अहिंसा आदि रूप धर्मकी मूर्ति हैं। अर्जुन-भीम आदिको धर्मकी शाखा बतलानेका अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिरके ही स्वरूप हैं, उनसे अभिन्न हैं। शुद्धसत्त्वमय ज्ञानविग्रह श्रीकृष्णरूप परमात्मा ही उसके मूल हैं। उनके दृढ़ ज्ञानसे ही धर्मकी नींव मजबूत होती है। श्रुति भगवतीने कहा है कि “हे गार्गी! इस अविनाशी परमात्माको जाने बिना इस लोकमें जो हजारों वर्षपर्यन्त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्या करता है, उन सबका फल नाशवान् ही होता है।' ज्ञानका मूल है ब्रह्म अर्थात् वेद। वेदसे ही परमधर्म योग और अपरधर्म यज्ञ-यागादिका ज्ञान होता है। यह निश्चित सिद्धान्त है कि धर्मका मूल केवल शब्दप्रमाण ही है। वेदके भी मूल ब्राह्मण हैं; क्योंकि वे ही वेद-सम्प्रदायके प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशकके रूपमें ब्राह्मण, प्रमाणके रूपमें वेद और अनुग्राहकके रूपमें परमात्मा धर्मका मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मणका भक्त अधिकारी पुरुष भगवदाराधनके बलसे योगादिरूप धर्ममय वृक्षका सम्पादन करे। उस वृक्षके अहिंसा-सत्य आदि तने हैं। धारण-ध्यान आदि शाखाएँ हैं और तत्त्व-साक्षात्कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्षके समाश्रयसे ही पुरुषार्थकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं।
> शास्त्रोक्त आचारका परित्याग न करना, सदाचारी सत्पुरुषोंका संग करना और सदाचारमें दृढ़तासे स्थित रहना--इसको “शौच” कहते हैं। अपनी इच्छाके अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें विकार न होना ही 'धृति" है। सबसे बढ़कर सामर्थ्यका होना ही “विक्रम” है। सद्वृत्तकी अनुवृत्ति ही 'शुश्रूषा” है। (सदाचारपरायण गुरुजनोंका अनुसरण गुरुशुश्रूषा है।) किसीके द्वारा अपराध बन जानेपर भी उसके प्रति अपने चित्तमें क्रोध आदि विकारोंका न होना ही 'क्षमाशीलता' है। जितेन्द्रियता अथवा अनुद्धत रहना ही “विनय” है। बलवान् शत्रुको भी पराजित कर देनेका अध्यवसाय “शौर्य” है। इनके संग्राहक श्लोक इस प्रकार हैं--
आचारापरिहारश्न संसर्गश्चाप्यनिन्दितै: | आचारे च व्यवस्थानं शौचमित्यभिधीयते ।।
इष्टानिष्टार्थसम्पत्तौ चित्तस्याविकृतिर्धृतिः | सर्वातिशयसामर्थ्य॑ विक्रमं परिचक्षते ।। वृत्तानुवृत्ति: शुश्रूषा क्षान्तिरागस्यविक्रिया । जितेन्द्रियत्वं विनयो5थवानुद्धतशीलता ।। शौर्यमध्यवसायः स्याद् बलिनो5पि पराभवे ।। > आचार्य, ब्रह्मा, ऋत्विकू, सदस्य, यजमान, यजमानपत्नी, धन-सम्पत्ति, श्रद्धा-उत्साह, विधि- विधानका सम्यक् पालन एवं सदबुद्धि आदि यज्ञकी उत्तम गुणसामग्रीके अन्तर्गत हैं।
(पर्वसंग्रहपर्व) द्वितीयो<्ध्याय:
समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन, अक्षौहिणी सेनाका प्रमाण, महाभारतमें वर्णित पर्वों और उनके संक्षिप्त विषयोंका संग्रह तथा महाभारतके श्रवण एवं पठनका फल
ऋषय ऊचु: समन्तपञ्चकमिति यदुक्त सूतनन्दन । एतत् सर्व यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम् ।। १ ।। ऋषि बोले--सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचनके प्रारम्भमें जो समनन््तपंचक (कुरुक्षेत्र)- की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध)-के सम्बन्धमें पूर्णरूपसे सब कुछ यथावत् सुनना चाहते हैं ।। १ ।। सौतिर्वाच शृणुध्वं मम भो विद्रा ब्रुवतश्न॒ कथा: शुभा: । समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुर्महथ सत्तमा: ।। २ ।। उग्रश्रवाजीने कहा--साधुशिरोमणि विप्रगण! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँ कह रहा हूँ; उसे आपलोग सावधान चित्तसे सुनिये और इसी प्रसंगमें समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन भी सुन लीजिये ।। २ ।। त्रेताद्वापरयो: सन्धौ राम: शस्त्रभृतां वर: । असकृत् पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदित: ।। ३ ।। त्रेता और द्वापरकी सन्धिके समय शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने क्षत्रियोंके प्रति क्रोधसे प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओंका संहार किया ।। ३ ।। स सर्व क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युति: । समनतपजञ्चके पञ्च चकार रौधिरान् हृदान् ॥। ४ ।। अग्निके समान तेजस्वी परशुरामजीने अपने पराक्रमसे सम्पूर्ण क्षत्रियवंशका संहार करके समन्तपंचवक्षेत्रमें रक्तके पाँच सरोवर बना दिये ।। ४ ।। स तेषु रुधिराम्भ:सु हदेषु क्रोधमूर्च्छित: । पितृन् संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम् ॥। ५ ।।
क्रोधसे आविष्ट होकर परशुरामजीने उन रक्तरूप जलसे भरे हुए सरोवरोंमें रक्ताउ्जलिके द्वारा अपने पितरोंका तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है ।। ५ ।।
अथर्चीकादयो<भ्येत्य पितरो राममन्रुवन् ।
राम राम महाभाग प्रीता: सम तव भार्गव ।। ६ ।।
अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो ।
वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते |। ७ ।।
तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुरामजीके पास आकर बोले--“महाभाग राम! सामर्थ्यशाली भृगुवंशभूषण परशुराम!!! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत ही प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो हमसे माँग लो' ।। ६-७ ।।
राम उवाच
यदि मे पितर: प्रीता यद्यनुग्राह्मता मयि ।
यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया ।। ८ ।।
अतश्न पापान्मुच्ये5हमेष मे प्रार्थितो वर: ।
हृदाश्न तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुता: ।। ९ ।।
परशुरामजीने कहा--यदि आप सब हमारे पितर मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे अपने अनुग्रहका पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंशका विध्वंस किया है, इस कुकर्मके पापसे मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वीमें प्रसिद्ध तीर्थ हो जायँ। यही वर मैं आपलोगोंसे चाहता हूँ ।। ८-९ ।।
एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन् ।
तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह ॥। १० ।।
तदनन्तर 'ऐसा ही होगा” यह कहकर पितरोंने वरदान दिया। साथ ही “अब बचे-खुचे क्षत्रियवंशको क्षमा कर दो'--ऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियोंक संहारसे भी रोक दिया। इसके पश्चात् परशुरामजी शान्त हो गये ।। १० ।।
तेषां समीपे यो देशो हृदानां रुधिराम्भसाम् |
समनन््तपजञ्चकमिति पुण्यं तत् परिकीर्तितम् ।। ११ ।।
उन रक्तसे भरे सरोवरोंके पास जो प्रदेश है उसे ही समन्तपंचक कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पुण्यप्रद है ।। ११ ।।
येन लिड्लरेन यो देशो युक्त: समुपलक्ष्यते ।
तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिण: ।। १२ ।।
जिस चिह्नसे जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानोंका कहना है कि उस देशका वही नाम रखना चाहिये ।। १२ ।।
अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत् ।
समन्तपज्चके युद्ध कुरुपाण्डवसेनयो: ।। १३ ।।
जब कलियुग और द्वापरकी सन्धिका समय आया, तब उसी समन्तपंचवक्षेत्रमें कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाओंका परस्पर भीषण युद्ध हुआ ।। १३ ।।
तस्मिन् परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते |
अष्टादश समाजम्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया || १४ ।।
भूमिसम्बन्धी दोषोंसेः रहित उस परम धार्मिक प्रदेशमें युद्ध करनेकी इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्टी हुई थीं ।। १४ ।।
समेत्य त॑ द्विजास्ताश्न तत्रैव निधनं गता: ।
एततन्नामाभिनिर्वत्तं तस्य देशस्य वै द्विजा: ।। १५ ।।
ब्राह्मणो! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्टी हुईं और वहीं नष्ट हो गयीं। द्विजवरो! इसीसे उस देशका नाम समन्तपंचकः) पड़ गया ।। १५ ।।
पुण्यश्ष रमणीयश्व स देशो व: प्रकीर्तित: ।
तदेतत् कथित सर्व मया ब्राह्मणसत्तमा: ।
यथा देश: स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रता: ।। १६ ।।
वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणो! तीनों लोकोंमें जिस प्रकार उस देशकी प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंने आपलोगोंसे कह दिया || १६ ।।
ऋषय ऊचु:
अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्या सूतनन्दन ।
एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् ।। १७ ।।
ऋषियोंने पूछा--सूतनन्दन! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्दका उच्चारण किया है, इसके सम्बन्धमें हमलोग सारी बातें यथार्थरूपसे सुनना चाहते हैं || १७ ।।
अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम् ।
यथावच्चैव नो ब्रहि सर्व हि विदितं तव ।। १८ ।।
अक्षौहिणी सेनामें कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये; क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है ।। १८ ।।
सौतिरुवाच
एको रथो गजकश्लनैको नरा: पञठच पदातय: । त्रयश्न तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते ।। १९ ।।
उग्रश्रवाजीने कहा--एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े--बस, इन्हींको सेनाके मर्मज्ञ विद्वानोंने 'पत्ति' कहा है ।। १९ ।।
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा: ।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते ।। २० ।।
इसी पत्तिकी तिगुनी संख्याको विद्वान् पुरुष 'सेनामुख” कहते हैं। तीन 'सेनामुखों” को एक “गुल्म” कहा जाता है ।। २० ।।
त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय: ।
स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै: ।। २१ ।।
तीन गुल्मका एक “गण” होता है, तीन गणकी एक “वाहिनी' होती है और तीन वाहिनियोंको सेनाका रहस्य जाननेवाले विद्वानोंने 'पृतना” कहा है | २१ ।।
चमूस्तु पृतनास्तिस्नस्तिस्रश्नम्बस्त्वनीकिनी ।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा: || २२ ।।
तीन पृतनाकी एक “चमू”, तीन चमूकी एक “अनीकिनी” और दस अनीकिनीकी एक 'अक्षौहिणी' होती है। यह विद्वानोंका कथन है ।। २२ ।।
अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा: ।
संख्या गणिततत्त्वज्जै: सहस्राण्येकविंशति: ।। २३ ॥॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्व सप्तति: ।
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत् ।। २४ ।।
श्रेष्ठ ब्राह्यणो! गणितके तत्त्वज्ञ विद्वानोंने एक अक्षौहिणी सेनामें रथोंकी संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (२१,८७०) बतलायी है। हाथियोंकी संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये || २३-२४ ।।
ज्ञेय शतसहस््रं तु सहस्नाणि नवैव तु ।
नराणामपि पजञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघा: ॥। २५ ।।
निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणीमें पैदल मनुष्योंकी संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (१,०९,३५०) जाननी चाहिये || २५ ।।
पज्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च ।
दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया ।। २६ ।।
एक अक्षौहिणी सेनामें, घोड़ोंकी ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छः: सौ दस (६५,६१०) कही गयी है ।। २६ ।।
एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना: ।
यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना: ।। २७ ।।
तपोधनो! संख्याका तत्त्व जाननेवाले विद्वानोंने इसीको अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आपलोगोंको विस्तारपूर्वक बताया है ।। २७ ।।
एतया संख्यया हासन् कुरुपाण्डवसेनयो: ।
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु ।। २८ ।।
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणनाके अनुसार कौरव-पाण्डव दोनों सेनाओंकी संख्या अठारह अक्षौहिणी थी || २८ ।।
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता: ।
कौरवान् कारण कृत्वा कालेनाद्भधुतकर्मणा ।। २९ ।।
अदभुत कर्म करनेवाले कालकी प्रेरणासे समन्तपंचकक्षेत्रमें कौरवोंको निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्टी हुईं और वहीं नाशको प्राप्त हो गयीं ।। २९ ।।
अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित् ।
अहानि पज्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम् ।। ३० ||
अस्त्र-शस्त्रोंके सर्वोपरि मर्मज्ञ भीष्मपितामहने दस दिनोंतक युद्ध किया, आचार्य द्रोणने पाँच दिनोंतक कौरव-सेनाकी रक्षा की || ३० ।।
अहनी युयुधे द्वे तु कर्ण: परबलार्दन: ।
शल्यो<र्धदिवसं चैव गदायुद्धमत: परम् ।। ३१ ।।
शत्रुसेनाको पीड़ित करनेवाले वीरवर कर्णने दो दिन युद्ध किया और शल्यने आधे दिनतक। इसके पश्चात् (दुर्योधन और भीमसेनका परस्पर) गदायुद्ध आधे दिनतक होता रहा || ३१ ।।
तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमा: ।
प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्याधिष्ठिरे बलम् ।। ३२ ।।
अठारहवाँ दिन बीत जानेपर रात्रिके समय अभश्व॒त्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्यने नि:शंक सोते हुए युधिष्ठिरके सैनिकोंको मार डाला ।। ३२ ।।
यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम् |
जनमेजयस्य तत् सत्रे व्यासशिष्येण धीमता ।। ३३ ।।
कथितं विस्तरार्थ च यशो वीर्य महीक्षिताम् ।
पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादित: स्मृतम् ।। ३४ ।।
शौनकजी! आपके इस सत्संग-सत्रमें मैं यह जो उत्तम इतिहास महाभारत सुना रहा हूँ, यही जनमेजयके सर्पयज्ञमें व्यासजीके बुद्धिमान् शिष्य वैशम्पायनजीके द्वारा भी वर्णन किया गया था। उन्होंने बड़े-बड़े नरपतियोंके यश और पराक्रमका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेके लिये प्रारम्भमें पौष्य, पौलोम और आस्तीक--इन तीन पर्वोका स्मरण किया है ।। ३३-३४ ।।
विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम् ।
प्रतिपन्नं नरै: प्राजैरवैराग्यमिव मोक्षिभि: ।। ३५ ।।
जैसे मोक्ष चाहनेवाले पुरुष पर-वैराग्यकी शरण ग्रहण करते हैं, वैसे ही प्रज्ञावान् मनुष्य अलौकिक अर्थ, विचित्र पद, अदभुत आख्यान और भाँति-भाँतिकी परस्पर विलक्षण मर्यादाओंसे युक्त इस महाभारतका आश्रय ग्रहण करते हैं || ३५ ।।
आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम् ।
इतिहास: प्रधानार्थ: श्रेष्ठ: सर्वागमेष्वयम् ।। ३६ ।।
जैसे जाननेयोग्य पदार्थो्में आत्मा, प्रिय पदार्थोमें अपना जीवन सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप प्रयोजनको पूर्ण करनेवाला यह इतिहास श्रेष्ठ है ।। ३६ ।।
अनश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते ।
आहारमनपगश्रिित्य शरीरस्येव धारणम् ।। ३७ ।।
जैसे भोजन किये बिना शरीर-निर्वाह सम्भव नहीं है, वैसे ही इस इतिहासका आश्रय लिये बिना पृथ्वीपर कोई कथा नहीं है ।। ३७ ।।
तदेतद् भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते ।
उदयप्रेप्सुभिर्भुत्यैरैभिजात इवेश्वर: ।। ३८ ।।
जैसे अपनी उन्नति चाहनेवाले महत्त्वाकांक्षी सेवक अपने कुलीन और सद्धावसम्पन्न स्वामीकी सेवा करते हैं, इसी प्रकार संसारके श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी सेवा करके ही अपने काव्यकी रचना करते हैं || ३८ ।।
इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा ।
स्वरव्यज्जनयो: कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक् ।। ३९ ।।
जैसे लौकिक और वैदिक सब प्रकारके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाली सम्पूर्ण वाणी स्वरों एवं व्यंजनोंमें समायी रहती है, वैसे ही (लोक, परलोक एवं परमार्थसम्बन्धी) सम्पूर्ण उत्तम विद्या-बुद्धि इस श्रेष्ठ इतिहासमें भरी हुई है ।। ३९ ।।
तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वण: ।
सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थभ्भूषितस्य च ।। ४० ।।
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रह: ।
पर्वनुक्रमणी पूर्व द्वितीय: पर्वसंग्रह: ।। ४१ ।।
यह महाभारत इतिहास ज्ञानका भण्डार है। इसमें सूक्ष्म-से-सूक्ष्म पदार्थ और उनका अनुभव करानेवाली युक्तियाँ भरी हुई हैं। इसका एक-एक पद और पर्व आश्चर्यजनक है तथा यह वेदोंके धर्ममय अर्थसे अलंकृत है। अब इसके पर्वोकी संग्रह-सूची सुनिये। पहले अध्यायमें पर्वानुक्रमणी है और दूसरेमें पर्वसंग्रह || ४०-४१ ।।
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् |
ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। ४२ ।।
इसके पश्चात् पौष्य, पौलोम, आस्तीक और आदिअंशावतरण पर्व हैं। तदनन्तर सम्भवपर्वका वर्णन है, जो अत्यन्त अद्भुत और रोमांचकारी है || ४२ ।।
दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते ।
ततो बकवध: पर्व पर्व चैत्ररथं तत: ।। ४३ ।।
इसके पश्चात् जतुगृह (लाक्षाभवन) दाहपर्व है। तदनन्तर हिडिम्बवधपर्व है, फिर बकवध और उसके बाद चैत्ररथपर्व है ।। ४३ ।।
ततः स्वयंवरो देव्या: पाज्चाल्या: पर्व चोच्यते ।
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।। ४४ ।।
उसके बाद पांचालराजकुमारी देवी द्रौपदीके स्वयंवरपर्वका तथा क्षत्रियधर्मसे सब राजाओंपर विजय-प्राप्तिपूर्वक वैवाहिकपर्वका वर्णन है ।। ४४ ।।
विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च ।
अर्जुनस्य वने वास: सुभद्राहरणं तत: ।। ४५ ।।
विदुरागमन, राज्यलम्भपर्व, तत्पश्चात् अर्जुन-वनवासपर्व और फिर सुभद्राहरणपर्व है || ४५ ||
सुभद्राहरणादूर्ध्व ज्ेया हरणहारिका ।
तत: खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम् || ४६ ।।
सुभद्राहरणके बाद हरणाहरणपर्व है, पुनः खाण्डवदाह-पर्व है, उसीमें मयदानवके दर्शनकी कथा है || ४६ ।।
सभापर्व ततः प्रोक्त मन्त्रपर्व ततः परम् ।
जरासन्धवध: पर्व पर्व दिग्विजयं तथा ।। ४७ ।।
इसके बाद क्रमश: सभापर्व, मन्त्रपर्व, जरासन्ध-वधपर्व और दिग्विजयपर्वका प्रवचन है || ४७ |।
पर्व दिग्विजयादूर्ध्व राजसूयिकमुच्यते ।
ततश्चार्धाभिहरणं शिशुपालवधस्तत: ।। ४८ ।।
तदनन्तर राजसूय, अर्घाभिहरण और शिशुपाल-वधपर्व कहे गये हैं ।। ४८ ।।
द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमत: परम् ।
तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च ।॥। ४९ ||
इसके बाद क्रमशः द्यूत एवं अनुद्यूतपर्व हैं। तत्पश्चात् वनयात्रापर्व तथा किर्मीरवधपर्व है ।। ४९ ||
अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमत: परम् |
ईश्वरार्जुनयोर्युद्धे पर्व कैरातसंज्ञितम् ।। ५० ||
इसके बाद अर्जुनाभिगमनपर्व जानना चाहिये और फिर कैरातपर्व आता है, जिसमें सर्वेश्वर भगवान् शिव तथा अर्जुनके युद्धका वर्णन है ।। ५० ।।
इन्द्रलोकाभिगमन पर्व ज्ञेयमत: परम् ।
नलोपाख्यानमपि च धार्मिक करुणोदयम् ।। ५१ ।।
तत्पश्चात् इन्द्रलोकाभिगमनपर्व है, फिर धार्मिक तथा करुणोत्पादक नलोपाख्यानपर्व है ।। ५१ ।।
तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः ।
जटासुरवध: पर्व यक्षयुद्धमत: परम् ।। ५२ ।।
तदनन्तर बुद्धिमान् कुरुराजका तीर्थयात्रापर्व, जटासुरवधपर्व और उसके बाद यक्षयुद्धपर्व है ।। ५२ ।।
निवातकवचैरय्युद्ध पर्व चाजगरं ततः ।
मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते ।। ५३ ।।
इसके पश्चात् निवातकवचयुद्ध, आजगर और मार्कण्डेयसमास्यापर्व क्रमश: कहे गये हैं ।। ५३ ।।
संवादश्न तत: पर्व द्रौोपदीसत्यभामयो: ।
घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं तत: ।। ५४ ।।
व्रीहिद्रोणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च ।
द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम् ।। ५५ ।।
इसके बाद आता है द्रौपदी और सत्यभामाके संवादका पर्व, इसके अनन्तर घोषयात्रापर्व है, उसीमें मृगस्वप्नोद्भव और व्रीहिद्रौीणिक उपाख्यान है। तदनन्तर इन्द्रद्यम्नका आख्यान और उसके बाद द्रौपदीहरणपर्व है। उसीमें जयद्रथविमोक्षणपर्व है ।। ५४-५५ ।।
पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्रयाश्वैवमद्भुतम् ।
रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमत: परम् ।। ५६ ।।
इसके बाद पतित्रता सावित्रीके पातिव्रत्यका अदभुत माहात्म्य है। फिर इसी स्थानपर रामोपाख्यानपर्व जानना चाहिये ।। ५६ ।।
कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते ।
आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम् |
पाण्डवानां प्रवेशश्व॒ समयस्य च पालनम् ॥। ५७ ||
इसके बाद क्रमश: कुण्डलाहरण और आरणेय-पर्व कहे गये हैं। तदनन्तर विराटपर्वका आरम्भ होता है, जिसमें पाण्डवोंके नगरप्रवेश और समयपालन-सम्बन्धीपर्व हैं ।। ५७ ।।
कीचकानां वध: पर्व पर्व गोग्रहणं तत: ।
अभिमन्योश्र वैराट्या: पर्व वैवाहिकं स्मृतम् ।। ५८ ।।
इसके बाद कीचकवधपर्व, गोग्रहण (गोहरण)-पर्व तथा अभिमन्यु और उत्तराके विवाहका पर्व है ।। ५८ ।।
उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्व॑ महाद्भुतम् ।
ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमत: परम् ।। ५९ ।।
प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ।
पर्व सानत्सुजातं वै गुह्मध्यात्मदर्शनम् ।। ६० ।।
इसके पश्चात् परम अदभुत उद्योगपर्व समझना चाहिये। इसीमें संजययानपर्व कहा गया है। तदनन्तर चिन्ताके कारण धृतराष्ट्रके रातभर जागनेसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रजागरपर्व समझना चाहिये। तत्पश्चात् वह प्रसिद्ध सनत्सुजातपर्व है, जिसमें अत्यन्त गोपनीय अध्यात्मदर्शनका समावेश हुआ है ।। ५९-६० ।।
यानसन्धिस्तत: पर्व भगवद्यानमेव च ।
मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च ॥। ६१ ।।
सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च ।
जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षघोडशराजिकम् ।। ६२ ।।
इसके पश्चात् यानसन्धि तथा भगवदयानपर्व है, इसीमें मातलिका उपाख्यान, गालव- चरित, सावित्र, वामदेव तथा वैन्य-उपाख्यान, जामदग्न्य और षोडशराजिक-उपाख्यान आते हैं ।। ६१-६२ ।।
सभाप्रवेश: कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम् |
उद्योग: सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च ।। ६३ ।।
फिर श्रीकृष्णका सभाप्रवेश, विदुलाका अपने पुत्रके प्रति उपदेश, युद्धका उद्योग, सैन्यनिर्याण तथा विश्वोपाख्यान--इनका क्रमश: उल्लेख हुआ है ।। ६३ ।।
ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मन: ।
निर्याणं च तत: पर्व कुरुपाण्डवसेनयो: ।। ६४ ।।
इसी प्रसंगमें महात्मा कर्णका विवादपर्व है। तदनन्तर कौरव एवं पाण्डव-सेनाका निर्याणपर्व है ।। ६४ ।।
रथातिरथसंख्या च पर्वोक्ते तदनन्तरम् |
उलूकदूतागमन पर्वामर्षविवर्धनम् ।। ६५ ।।
तत्पश्चात् रथातिरथसंख्यापर्व और उसके बाद क्रोधकी आग प्रज्वलित करनेवाला उलूकदूतागमनपर्व है ।। ६५ ।।
अम्बोपाख्यानमन्रैव पर्व ज्ञेगमत: परम् |
भीष्माभिषेचन पर्व ततश्वाद्भुतमुच्यते ।। ६६ ।।
इसके बाद ही अम्बोपाख्यानपर्व है। तत्पश्चात् अदभुत भीष्माभिषेचनपर्व कहा गया है ।। ६६ |।
जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्ते तदनन्तरम् |
भूमिपर्व ततः प्रोक्ते द्वीपविस्तारकीर्तनम् ।। ६७ ।।
इसके आगे जम्बूखण्ड विनिर्माणपर्व है। तदनन्तर भूमिपर्व कहा गया है, जिसमें द्वीपोंके विस्तारका कीर्तन किया गया है ।। ६७ ।।
पर्वोक्ते भगवद्वीता पर्व भीष्मवधस्तत: ।
द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्तत: ।। ६८ ।।
इसके बाद क्रमश: भगवदगीता, भीष्मवध, द्रोणाभिषेक तथा संशप्तकवधपर्व हैं | ६८ ।।
अभिमन्युवध: पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते ।
जयद्रथवध: पर्व घटोत्कचवधस्तत: ।। ६९ ||
इसके बाद अभिमन्युवधपर्व, प्रतिज्ञापर्व, जयद्रथवधपर्व और घटोत्कचवधपर्व हैं ।। ६९ |।
ततो द्रोणवध: पर्व विज्ञेयं लोमहर्षणम् ।
मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते || ७० ।।
फिर रोंगटे खड़े कर देनेवाला द्रोणवधपर्व जानना चाहिये। तदनन्तर नारायणास्त्रमोक्षपर्व कहा गया है || ७० ।।
कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम् ।
ह्नदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमत: परम् ।। ७१ ।।
फिर कर्णपर्व और उसके बाद शल्यपर्व है। इसी पर्वमें हृदप्रवेश और गदायुद्धपर्व भी हैं ।। ७१ ।।
सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम् ।
अत ऊर्ध्व॑ सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते ।। ७२ ।।
तदनन्तर सारस्वतपर्व है, जिसमें तीर्थों और वंशोंका वर्णन किया गया है। इसके बाद है अत्यन्त बीभत्स सौप्तिकपर्व || ७२ |।
ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्व सुदारुणम्
जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्तत: परम् ।। ७३ ।।
इसके बाद अत्यन्त दारुण ऐषीकपर्वकी कथा है। फिर जलप्रदानिक और स्त्रीविलापपर्व आते हैं || ७३ ।।
भ्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदेहिकम् ।
चार्वाकनिग्रह: पर्व रक्षसो ब्रह्म॒रूपिण: ।। ७४ ।।
तत्पश्चात् श्राद्धपर्व है, जिसमें मृत कौरवोंकी अन्त्येष्टिक्रियाका वर्णन है। उसके बाद ब्राह्मण-वेषधारी राक्षस चार्वाकके निग्रहका पर्व है || ७४ ।।
आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमत: ।
प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्ते तदनन्तरम् ।। ७५ ।।
तदनन्तर धर्मबुद्धिसम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिरके अभिषेकका पर्व है तथा इसके पश्चात् गृहप्रविभागपर्व है || ७५ ।।
शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम् |
आपद्धर्मश्न पर्वोक्त मोक्षधर्मस्ततः परम् ।। ७६ ।।
इसके बाद शान्तिपर्व प्रारम्भ होता है; जिसमें राजधर्मानुशासन, आपद्धर्म और मोक्षधर्मपर्व हैं | ७६ ।।
शुकप्रश्नाभिगमन ब्रह्म॒प्रश्नानुशासनम् ।
प्रादुर्भावश्व दुर्वास: संवादश्वैव मायया ।। ७७ ।।
फिर शुकप्रश्नाभिगमन, ब्रह्मप्रश्नानुशासन, दुर्वासाका प्रादुर्भाव और मायासंवादपर्व हैं || ७७ |।
ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम् |
स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमत: ।॥। ७८ ।।
इसके बाद धर्माधर्मका अनुशासन करनेवाला आनुशासनिकपर्व है, तदनन्तर बुद्धिमान् भीष्मजीका स्वर्गारोहणपर्व है || ७८ ।।
ततो<5श्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम् ।
अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम् ।। ७९ ||
अब आता है आश्वमेधिकपर्व, जो सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। उसीमें अनुगीतापर्व है, जिसमें अध्यात्मज्ञानका सुन्दर निरूपण हुआ है ।। ७९ ।।
पर्व चाश्रमवासाख्य॑ पुत्रदर्शनमेव च ।
नारदागमनं पर्व ततः: परमिहोच्यते ।। ८० ।।
इसके बाद आश्रमवासिक, पुत्रदर्शन और तदनन्तर नारदागमनपर्व कहे गये हैं ।। ८० ।।
मौसल पर्व चोद्िष्टं ततो घोरं सुदारुणम् ।
महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं तत: ।। ८३ ।।
इसके बाद है अत्यन्त भयानक एवं दारुण मौसलपर्व। तत्पश्चात् महाप्रस्थानपर्व और स्वर्गारोहण-पर्व आते हैं ।। ८१ ।।
हरिवंशस्तत: पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्
विष्णुपर्व शिशोश्षचर्या विष्णो: कंसवधस्तथा ॥। ८२ ।।
इसके बाद हरिवंशपर्व है, जिसे खिल (परिशिष्ट) पुराण भी कहते हैं, इसमें विष्णुपर्व, श्रीकृष्णकी बाललीला एवं कंसवधका वर्णन है ।। ८२ ।।
भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत् ।
एतत् पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्ते महात्मना ।। ८३ ।।
इस खिलपर्वमें भविष्यपर्व भी कहा गया है, जो महान् अदभुत है। महात्मा श्रीव्यासजीने इस प्रकार पूरे सौ पर्वोकी रचना की है || ८३ ।।
यथावत् सूरपुत्रेण लौमहर्षणिना ततः ।
उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु ।। ८४ ।॥
सूतवंशशिरोमणि लोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवाजीने व्यासजीकी रचना पूर्ण हो जानेपर नैमिषारप्यक्षेत्रमें इन्हीं सौ पर्वोको अठारह पर्वोके रूपमें सुव्यवस्थित करके ऋषियोंके सामने कहा ।। ८४ ।।
समासो भारतस्यायमत्रोक्त: पर्वसंग्रह: ।
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ।। ८५ ।।
सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोर्वध: ।
तथा चैत्रर॒थं देव्या: पाज्चाल्याश्व॒ स्वयंवर: ।। ८६ ।।
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।
विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च ।। ८७ ।।
वनवासोडर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं तत: ।
हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च ॥। ८८ ।।
मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते ।
इस प्रकार यहाँ संक्षेपसे महाभारतके पर्वोका संग्रह बताया गया है। पौष्य, पौलोम, आस्तीक, आदिअंशावतरण, सम्भव, लाक्षागृह, हिडिम्बवध, बकवध, चैत्ररथ, देवी द्रौपदीका स्वयंवर, क्षत्रियधर्मसे राजाओंपर विजयप्राप्तिपूर्वक वैवाहिक विधि, विदुरागमन, राज्यलम्भ, अर्जुनका वनवास, सुभद्राका हरण, हरणाहरण, खाण्डवदाह तथा मयदानवसे मिलनेका प्रसंग--यहाँतककी कथा आदिपर्वमें कही गयी है || ८५-८८ ३ ।।
पौष्ये पर्वणि माहात्म्यमुत्तड़कस्योपवर्णितम् ।। ८९ ।।
पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तार: परिकीर्तित: ।
आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भव: ।। ९० ।।
पौष्यपर्वमें उत्तंकके माहात्म्यका वर्णन है। पौलोमपर्वमें भूगुवंशके विस्तारका वर्णन है। आस्तीकपर्वमें सब नागों तथा गरुड़की उत्पत्तिकी कथा है || ८९-९० ।|।
क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चै:अ्रवसस्तथा ।
यजत: सर्पसत्रेण राज्ञ: पारीक्षितस्थ च ।। ९१ ।।
कथेयमभिनिर्वत्ता भरतानां महात्मनाम् |
विविधा: सम्भवा राज्ञामुक्ता: सम्भवपर्वणि ।। ९२ ।।
अन््येषां चैव शूराणामृषेद्वैपायनस्य च ।
अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम् ।। ९३ ।।
इसी पर्वमें क्षीरसागरके मन्थन और उच्चै:श्रवा घोड़ेके जन्मकी भी कथा है। परीक्षित्नन्दन राजा जनमेजयके सर्पयज्ञमें इन भरतवंशी महात्मा राजाओंकी कथा कही गयी है। सम्भवपर्वमें राजाओंके भिन्न-भिन्न प्रकारके जन्मसम्बन्धी वृत्तान्तोंका वर्णन है। इसीमें दूसरे शूरवीरों तथा महर्षि द्वैपषायनके जन्मकी कथा भी है। यहीं देवताओंके अंशावतरणकी कथा कही गयी है || ९१--९३ ।।
दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम् ।
नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम् ।। ९४ ।।
अन््येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्धव: ।
महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विन: ।। ९५ ।।
शकुन्तलायां दुष्यन्ताद् भरतश्नापि जज्ञिवान्
यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम् ।। ९६ ।।
इसी पर्वमें अत्यन्त प्रभावशाली दैत्य, दानव, यक्ष, नाग, सर्प, गन्धर्व और पक्षियों तथा अन्य विविध प्रकारके प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन है। परम तपस्वी महर्षि कण्वके आश्रममें दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तलाके गर्भसे भरतके जन्मकी कथा भी इसीमें है। उन्हीं महात्मा भरतके नामसे यह भरतवंश संसारमें प्रसिद्ध हुआ है ।। ९४--९६ ।।
वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम् |
शान्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि ।। ९७ ।।
इसके बाद महाराज शान्तनुके गृहमें भागीरथी गंगाके गर्भसे महात्मा वसुओंकी उत्पत्ति एवं फिरसे उनके स्वर्गमें जानेका वर्णन किया गया है ।। ९७ ।।
तेजों5शानां च सम्पातो भीष्मस्याप्यत्र सम्भव: |
राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थिति: ।। ९८ ।।
प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राड्भदस्य च |
हते चित्राड्दे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयस: ।। ९९ ।।
विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम् ।
धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा || १०० ।।
कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा ।
धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्व॒ पाण्डवानां च सम्भव: ।। १०१ ||
इसी पर्वमें वसुओंके तेजके अंशभूत भीष्मके जन्मकी कथा भी है। उनकी राज्यभोगसे निवृत्ति, आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतमें स्थित रहनेकी प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञापालन, चित्रांगदकी रक्षा और चित्रांगदकी मृत्यु हो जानेपर छोटे भाई विचित्रवीर्यकी रक्षा, उन्हें राज्य-समर्पण, अणीमाण्डव्यके शापसे भगवान् धर्मकी विदुरके रूपमें मनुष्योंमें उत्पत्ति, श्रीकृष्णद्वैपायनके वरदानके कारण धृतराष्ट्र एवं पाण्डुका जन्म और इसी प्रसंगमें पाण्डवोंकी उत्पत्ति-कथा भी है | ९८--१०१ ॥।
वारणावततयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च ।
कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।। १०२ ।।
हितोपदेशश्न पथि धर्मराजस्य धीमत: ।
विदुरेण कृतो यत्र हितार्थ म्लेच्छभाषया ।। १०३ ।।
लाक्षागृहदाहपर्वमें पाण्डवोंकी वारणावत-यात्राके प्रसंगमें दुर्योधनके गुप्त षड़्यन्त्रका वर्णन है। उसका पाण्डवोंके पास कूटनीतिज्ञ पुरोचनको भेजनेका भी प्रसंग है। मार्गमें विदुरजीने बुद्धिमान् युधिष्ठिरके हितके लिये म्लेच्छभाषामें जो हितोपदेश किया, उसका भी वर्णन है ।। १०२-१०३ ।।
विदुरस्य च वाक्येन सुरज्रोपक्रमक्रिया ।
निषाद्या: पज्चपुत्राया: सुप्ताया जतुवेश्मनि ।॥। १०४ ।।
पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम् ।
पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्व दर्शनम् ।। १०५ ।।
तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात् ।
घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता | १०६ ।।
फिर विदुरकी बात मानकर सुरंग खुदवानेका कार्य आरम्भ किया गया। उसी लाक्षागृहमें अपने पाँच पुत्रोंके साथ सोती हुई एक भीलनी और पुरोचन भी जल मरे--यह सब कथा कही गयी है। हिडिम्बवधपर्वमें घोर वनके मार्गसे यात्रा करते समय पाण्डवोंको हिडिम्बाके दर्शन, महाबली भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासुरके वध तथा घटोत्कचके जन्मकी कथा कही गयी है ।। १०४--१०६ ।।
महर्षेर्दर्शन॑ं चैव व्यासस्यामिततेजस: ।
तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ।। १०७ ।।
अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तित: ।
बकस्य निधन चैव नागराणां च विस्मय: ।। १०८ ।।
अमिततेजस्वी महर्षि व्यासका पाण्डवोंसे मिलना और उनकी आज्ञासे एकचक्रा नगरीमें ब्राह्मणके घर पाण्डवोंके गुप्त निवासका वर्णन है। वहीं रहते समय उन्होंने बकासुरका वध किया, जिससे नागरिकोंको बड़ा भारी आश्चर्य हुआ || १०७-१०८ ।।
सम्भवश्वैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह ।
ब्राह्मणात् समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिता: ।। १०९ |।
द्रौपदी प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया ।
पज्चालानभितो जममुर्यत्र कौतूहलान्विता: ।। ११० ।।
इसके अनन्तर कृष्णा (द्रौपदी) और उसके भाई धृष्टद्युम्नकी उत्पत्तिका वर्णन है। जब पाण्डवोंको ब्राह्मणके मुखसे यह संवाद मिला, तब वे महर्षि व्यासकी आज्ञासे द्रौपदीकी
प्राप्तिकि लिये कौतूहलपूर्ण चित्तसे स्वयंवर देखने पांचालदेशकी ओर चल पड़े || १०९-११० ||
अड्भारपर्ण निर्जित्य गड़्ाकूले<र्जुनस्तदा ।
सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे ।। १११ ।।
तापत्यमथ वासिष्ठमौर्व चाख्यानमुत्तमम् ।
भ्रातृभि: सहित: सर्वे: पजड्चालानभितो ययौ ।। ११२ ।।
पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्ता धनंजय: ।
द्रौपदी लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम् ।। ११३ ।।
भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान् पृथिवीपतीन् ।
शल्यकर्णो च तरसा जितवन्तौ महामृथे ।। ११४ ।।
चैत्ररथपर्वमें गंगाके तटपर अर्जुनने अंगारपर्ण गन्धर्वको जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसीके मुखसे तपती, वसिष्ठ और और्वके उत्तम आख्यान सुने। फिर अर्जुनने वहाँसे अपने सभी भाइयोंके साथ पांचालकी ओर यात्रा की। तदनन्तर अर्जुनने पांचालनगरके बड़े-बड़े राजाओंसे भरी सभामें लक्ष्यवेध करके द्रौपदीको प्राप्त किया--यह कथा भी इसी पर्वमें है। वहीं भीमसेन और अर्जुनने रणांगणमें युद्धके लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओंको तथा शल्य और कर्णको भी अपने पराक्रमसे पराजित कर दिया || १११--११४ ।।
दृष्टवा तयोश्व तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम् ।
शड्कमानीौ पाण्डवांस्तान् रामकृष्णौ महामती ।। ११५ ।।
जग्मतुस्तै: समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि ।
पञज्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रपदस्य च ।। ११६ ।।
महामति बलराम एवं भगवान् श्रीकृष्णने जब भीमसेन एवं अर्जुनके अपरिमित और अतिमानुष बल-वीर्यको देखा, तब उन्हें यह शंका हुई कि कहीं ये पाण्डव तो नहीं हैं। फिर वे दोनों उनसे मिलनेके लिये कुम्हारके घर आये। इसके पश्चात् ट्रपदने 'पाँचों पाण्डवोंकी एक ही पत्नी कैसे हो सकती है'--इस सम्बन्धमें विचार-विमर्श किया ।। ११५-११६ ।।
पज्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्धुतमुच्यते ।
द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्नाप्यमानुष: ॥। ११७ ।।
इसी वैवाहिकपर्वमें पाँच इन्द्रोंका अदभुत उपाख्यान और द्रौपदीके देवविहित तथा मनुष्य-परम्पराके विपरीत विवाहका वर्णन हुआ है ।। ११७ ।।
क्षत्तुश्न धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।
विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शन॑ केशवस्य च ।। ११८ ।।
इसके बाद धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पास विदुरजीको भेजा है, विदुरजी पाण्डवोंसे मिले हैं तथा उन्हें श्रीकृष्णका दर्शन हुआ है ।। ११८ ।।
खाण्डवप्रस्थवासश्न तथा राज्यार्धथसर्जनम् ।
नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्या: समयक्रिया ।। ११९ ।।
इसके पश्चात् धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थमें पाण्डवोंका निवास करना एवं नारदजीकी आज्ञासे द्रौपदीके पास आने-जानेके सम्बन्धमें समय-निर्धारण आदि विषयोंका वर्णन है ।। ११९ ।।
सुन्दोपसुन्दयोस्तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम् ।
अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिछ्िरम् ।। १२० ।।
अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम् ।
मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थ कृतनिश्चय: ।। १२१ ।।
समयं पालयन् वीरो वन यत्र जगाम ह ।
पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगम: ।। १२२ ।।
इसी प्रसंगमें सुन्दर और उपसुन्दके उपाख्यानका भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदीके साथ बैठे हुए थे। अर्जुनने ब्राह्मणके लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मणकी वस्तु उसे प्राप्त करा दी और दृढ़ निश्चय करके वीरताके साथ मर्यादापालनके लिये वनमें चले गये। इसी प्रसंगमें यह कथा भी कही गयी है कि वनवासके अवसरपर मार्गमें ही अर्जुन और उलूपीका मेल-मिलाप हो गया ।। १२०-१२२ ।।
पुण्यतीर्थानुसंयानं बश्रुवाहनजन्म च ।
तत्रैव मोक्षयामास पठ्च सो5प्सरस: शुभा: | १२३ ||
शापाद् ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विन: ।
प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागम: ।। १२४ ।।
इसके बाद अर्जुनने पवित्र तीर्थोकी यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदाके गर्भसे बभ्रुवाहनका जन्म हुआ है और इसी यात्रामें उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओंको मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मणके शापसे ग्राह हो गयी थीं। फिर प्रभासतीर्थमें श्रीकृष्ण और अर्जुनके मिलनका वर्णन है ।। १२३-१२४ ।।
द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी ।
वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना ॥। १२५ ।।
तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारकामें सुभद्रा और अर्जुन परस्पर एक-दूसरेपर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्णकी अनुमतिसे अर्जुनने सुभद्राको हर लिया ।। १२५ ।।
गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने ।
अभिमन्यो: सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजस: ।। १२६ ।।
तदनन्तर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके दहेज लेकर पाण्डवोंके पास पहुँचनेकी और सुभद्राके गर्भसे परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्युके जन्मकी कथा है || १२६ ।।
द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवो«नुप्रकीर्तित: ।
विहारार्थ च गतयो: कृष्णयोर्यमुनामनु || १२७ ।।
सम्प्राप्तिश्नक्रधनुषो: खाण्डवस्य च दाहनम् |
मयस्य मोक्षो ज्वलनाद् भुजड़स्य च मोक्षणम् ।। १२८ ।।
इसके पश्चात् द्रौपदीके पुत्रोंकी उत्पत्तिकी कथा है। तदनन्तर जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुनाजीके तटपर विहार करनेके लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुषकी प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डववनके दाह, मयदानवके छुटकारे और अग्निकाण्डसे सर्पके सर्वथा बच जानेका वर्णन हुआ है ।। १२७-१२८ ।।
महर्षेमन्दपालस्य शार्ड्र्या तनयसम्भव: ।
इत्येतदादिपर्वोक्त प्रथमं बहुविस्तरम् ।। १२९ ।।
इसके बाद महर्षि मन्दपालका शार्ड्ी पक्षीके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करनेकी कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्वका सबसे प्रथम निरूपण हुआ है ।। १२९ ।।
अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा ।
सप्तविंशतिरथ्याया व्यासेनोत्तमतेजसा ।। १३० ।।
परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यासने इस पर्वमें दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंकी रचना की है ।। १३० ।।
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।
श्लोकाश्न चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना ।। १३१ ।।
महात्मा व्यास मुनिने इन दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंमें आठ हजार आठ सौ चौरासी (८,८८४) श्लोक कहे हैं ।। १३१ ।।
द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते ।
सभाक्रिया पाण्डवानां किड्कराणां च दर्शनम् ।। १३२ ।।
लोकपालसभाख्यानं नारदाद् देवदर्शिन: ।
राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा || १३३ ।।
गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम् ।
तथा दिग्विजयोअ्चत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तित: ।। १३४ ।।
दूसरा सभापर्व है। इसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन है। पाण्डवोंका सभानिर्माण, किंकर नामक राक्षसोंका दीखना, देवर्षि नारदद्वारा लोकपालोंकी सभाका वर्णन, राजसूययज्ञका आरम्भ एवं जरासन्धवध, गिरिव्रजमें बंदी राजाओंका श्रीकृष्णके द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवोंकी दिग्विजयका भी इसी सभापर्वमें वर्णन किया गया है ।। १३२--१३४ ।।
राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतौ ।
राजसूये<र्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा ।। १३५ ।।
राजसूय महायज्ञमें उपहार ले-लेकर राजाओंके आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषयको लेकर छिड़े हुए विवादमें शिशुपालके वधका प्रसंग भी इसी सभापर्वमें आया है ।। १३५ ||
यज्ञे विभूतिं तां दृष्टवा दुःखामर्षान्वितस्य च |
दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले ।। १३६ ।।
यज्ञमें पाण्डवोंका यह वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईरष्यासे मन-ही-मनमें जलने लगा। इसी प्रसंगमें सभाभवनके सामने समतल भूमिपर भीमसेनने उसका उपहास किया ।। १३६ |।
यत्रास्य मन्युरुदभूतो येन द्यूतमकारयत् ।
यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनि: कितवो5जयत् ।। १३७ ।।
उसी उपहासके कारण दुर्योधनके हृदयमें क्रोधाग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूएके खेलका षड़्यन्त्र रचा। इसी जूएमें कपटी शकुनिने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको जीत लिया ।। १३७ |।
यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदी नौरिवार्णवात् ।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञ: स्नुषां परमदु:खिताम् ।। १३८ ।।
तारयामास तांस््तीर्णान ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः ।
पुनरेव ततो द्यूते समाह्दयत पाण्डवान् | १३९ ।।
जैसे समुद्रमें डूबी हुई नौकाको कोई फिरसे निकाल ले, वैसे ही द्यूतके समुद्रमें डूबी हुई परमदु:खिनी पुत्रवधू द्रौपदीको परम बुद्धिमान् धृतराष्ट्रने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधनको जूएकी विपत्तिसे पाण्डवोंके बच जानेका समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पितासे आग्रह करके) जूएके लिये बुलवाया | १३८-१३९ ।।
जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्तत: ।
एतत् सर्व सभापर्व समाख्यातं महात्मना ।। १४० ।।
दुर्योधनने उन्हें जूएमें जीतकर वनवासके लिये भेज दिया। महर्षि व्यासने सभापर्वमें यही सब कथा कही है ।। १४० ।।
अध्याया: सप्ततिरज्ञैयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया ।
श्लोकानां द्वे सहस्ने तु पजच शलोकशतानि च ।। १४१ ।।
श्लोकाश्नैकादश ज्ञेया: पर्वण्यस्मिन् द्विजोत्तमा: ।
अतः पर तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत् ।। १४२ ।।
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या अठहत्तर (७८) है और श्लोकोंकी संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (२,५११) बतायी गयी है। इसके पश्चात् महत्त्वपूर्ण वनपर्वका आरम्भ होता है ।। १४१-१४२ ।।
वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु ।
पौरानुगमन चैव धर्मपुत्रस्य धीमत: ।। १४३ ।।
जिस समय महात्मा पाण्डव वनवासके लिये यात्रा कर रहे थे, उस समय बहुत-से पुरवासी लोग बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरके पीछे-पीछे चलने लगे ।। १४३ ।।
अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना ।
द्विजानां भरणार्थ च कृतमाराधनं रवे: ।। १४४ ।।
महात्मा युधिष्ठिरने पहले अनुयायी ब्राह्मणोंक भरण-पोषणके लिये अन्न और ओषधियाँ प्राप्त करनेके उद्देश्यसे सूर्यभभगवान्की आराधना की || १४४ ॥।
धौम्योपदेशात् तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भव: ।
हित॑ च ब्रुवत: क्षत्तु: परित्यागोडम्बिकासुतात् ।। १४५ ।।
त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा ।
पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात् ।। १४६ ।।
कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मते: ।
वनस्थान् पाण्डवान् हन्तुं मन्त्रों दुर्योधनस्य च || १४७ ।।
महर्षि धौम्यके उपदेशसे उन्हें सूर्यभगवान्की कृपा प्राप्त हुई और अक्षय अन्नका पात्र मिला। उधर विदुरजी धृतराष्ट्रको हितकारी उपदेश कर रहे थे, परंतु धृतराष्ट्रने उनका परित्याग कर दिया। धुृतराष्ट्रके परित्यागपर विदुरजी पाण्डवोंके पास चले गये और फिर धृतराष्ट्रका आदेश प्राप्त होनेपर उनके पास लौट आये। धुृतराष्ट्रनन्दन दुर्मति दुर्योधनने कर्णके प्रोत्साहनसे वनवासी पाण्डवोंको मार डालनेका विचार किया ।। १४५--१४७ ।।
त॑ दुष्टभावं॑ विज्ञाय व्यासस्यागमन द्रुतम् ।
निर्याणप्रतिषेधश्व सुरभ्याख्यानमेव च ।। १४८ ।।
दुर्योधनके इस दूषित भावको जानकर महर्षि व्यास झटपट वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने दुर्योधनकी यात्राका निषेध कर दिया। इसी प्रसंगमें सुरभिका आख्यान भी है ।। १४८ ।।
मैत्रेयागमन चात्र राज्ञश्नैवानुशासनम् ।
शापोत्सर्गश्न तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च ।। १४९ ।।
मैत्रेय ऋषिने आकर राजा धृतराष्ट्रको उपदेश किया और उन्होंने ही राजा दुर्योधनको शाप दे दिया ।। १४९ |।
किर्मीरस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे |
वृष्णीनामागमश्चात्र पज्चालानां च सर्वश: ।। १५० ।।
इसी पर्वमें यह कथा है कि युद्धमें भीमसेनने किर्मीरको मार डाला। पाण्डवोंके पास वृष्णिवंशी और पांचाल आये। पाण्डवोंने उन सबके साथ वार्तालाप किया ।। १५० ।।
श्रुत्वा शकुनिना द्ूते निकृत्या निर्जितांश्व॒ तान् ।
क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्नैव किरीटिना || १५१ ।।
जब श्रीकृष्णने यह सुना कि शकुनिने जूएमें पाण्डवोंको कपटसे हरा दिया है, तब वे अत्यन्त क्रोधित हुए; परंतु अर्जुनने हाथ जोड़कर उन्हें शान्त किया || १५१ ।।
परिदेवनं च पाज्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ |
आश्चासनं च कृष्णेन दु:खार्ताया: प्रकीर्तितम् ।। १५२ ।।
द्रौपदी श्रीकृष्णके पास बहुत रोयी-कलपी। श्रीकृष्णने दुःखार्त द्रौपदीको आश्वासन दिया। यह सब कथा वनपर्वमें है ।। १५२ ।।
तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा ।
सुभद्राया: सपुत्राया: कृष्णेन द्वारकां पुरीम् ।। १५३ ।।
नयन द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह ।
प्रवेश: पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतववने तत: ।। १५४ ।।
इसी पर्वमें महर्षि व्यासने सौभवधकी कथा कही है। श्रीकृष्ण सुभद्राको पुत्रसहित द्वारकामें ले गये। धृष्टद्युम्न द्रौपदीके पुत्रोंकी अपने साथ लिवा ले गये। तदनन्तर पाण्डवोंने परम रमणीय द्वैतवनमें प्रवेश किया ।। १५३-१५४ ।।
धर्मराजस्य चात्रैव संवाद: कृष्णया सह ।
संवादश्न तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तित: ।। १५५ ||
इसी पर्वमें युधिष्ठिर एवं द्रौपदीका संवाद तथा युधिष्ठिर और भीमसेनके संवादका भलीभाँति वर्णन किया गया है || १५५ ।।
समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा ।
प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दान राज्ञो महर्षिणा ।। १५६ ।।
महर्षि व्यास पाण्डवोंके पास आये और उन्होंने राजा युधिष्ठिरको प्रतिस्मृति नामक मन्त्रविद्याका उपदेश दिया ।। १५६ ।।
गमन॑ काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः ।
अस्त्रहेतोर्विवासक्ष पार्थस्यामिततेजस: ।। १५७ ||
व्यासजीके चले जानेपर पाण्डवोंने काम्यकवनकी यात्रा की। इसके बाद अमिततेजस्वी अर्जुन अस्त्र प्राप्त करनेके लिये अपने भाइयोंसे अलग चले गये ।। १५७ ।।
महादेवेन युद्ध च किरातवपुषा सह ।
दर्शन॑ं लोकपालानामग्त्रप्राप्तिस्तथैव च ।। १५८ ।।
वहीं किरातवेशधारी महादेवजीके साथ अर्जुनका युद्ध हुआ, लोकपालोंके दर्शन हुए और अस्त्रकी प्राप्ति हुई || १५८ ।।
महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिन: ।
यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी ।। १५९ ।।
इसके बाद अर्जुन अस्त्रके लिये इन्द्रलोकमें गये यह सुनकर धृतराष्ट्रको बड़ी चिन्ता हुई ।। १५९ ||
दर्शन बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मन: ।
युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसन परिदेवनम् ।। १६० ।।
इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको शुद्धहृदय महर्षि बृहदश्वका दर्शन हुआ। युधिष्छिरने आर्त होकर उन्हें अपनी दुःखगाथा सुनायी और विलाप किया ।। १६० ।।
नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करूणोदयम् ।
दमयन्त्या: स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा ।। १६१ ।।
इसी प्रसंगमें नलोपाख्यान आता है, जिसमें धर्मनिष्ठाका अनुपम आदर्श है और जिसे पढ़-सुनकर हृदयमें करुणाकी धारा बहने लगती है। दमयन्तीका दृढ़ धैर्य और नलका चरित्र यहीं पढ़नेको मिलते हैं || १६१ ।।
तथाक्षह्गदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षित: ।
लोमशस्यागमस्तत्र स्वर्गात् पाण्डुसुतान् प्रति ॥॥ १६२ ।।
वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम् |
स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै ।। १६३ ।।
उन्हीं महर्षिसे पाण्डवोंको अक्षहृदय (जूएके रहस्य)-की प्राप्ति हुई। यहीं स्वर्गसे महर्षि लोमश पाण्डवोंके पास पधारे। लोमशने ही वनवासी महात्मा पाण्डवोंको यह बात बतलायी कि अर्जुन स्वर्गमें किस प्रकार अस्त्र-विद्या सीख रहे हैं ।। १६२-१६३ ।।
संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया ।
तीर्थानां च फलप्राप्ति: पुण्यत्वं चापि कीर्तितम् ।। १६४ ।।
इसी पर्वमें अर्जुनका संदेश पाकर पाण्डवोंने तीर्थयात्रा की। उन्हें तीर्थयात्राका फल प्राप्त हुआ और कौन तीर्थ कितने पुण्यप्रद होते हैं--इस बातका वर्णन हुआ है ।। १६४ ।।
पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा ।
तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम् ।। १६५ ।।
कर्णस्य परिमोक्षो5त्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्
तथा यज्ञविभूतिश्न गयस्यात्र प्रकीर्तिता ।। १६६ ।।
इसके बाद महर्षि नारदने पुलस्त्यतीर्थकी यात्रा करनेकी प्रेरणा दी और महात्मा पाण्डवोंने वहाँकी यात्रा की। यहीं इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित करनेका तथा राजा गयके यज्ञवैभवका वर्णन किया गया है ।। १६५-१६६ ।।
आगस््त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम् |
लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा ।। १६७ ।।
इसके बाद अगस्त्य-चरित्र है, जिसमें उनके वातापिभक्षण तथा संतानके लिये लोपामुद्राके साथ समागमका वर्णन है ।। १६७ ।।
ऋष्यशृज्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिण: ।
जामदग्न्यस्य रामस्य चरित॑ं भूरितेजस: ।। १६८ ।।
इसके पश्चात् कौमार ब्रह्मचारी ऋष्यशृंगका चरित्र है। फिर परम तेजस्वी जमदग्निनन्दन परशुरामका चरित्र है ।। १६८ ।।
कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते |
प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्व॒ समागम: ।। १६९ ||
इसी चरित्रमें कार्तवीर्य अर्जुन तथा हैहयवंशी राजाओंके वधका वर्णन किया गया है। प्रभासतीर्थमें पाण्डवों एवं यादवोंके मिलनेकी कथा भी इसीमें है || १६९ ।।
सीकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गव: ।
शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान् सोमपीतिनौ ।। १७० ।।
इसके बाद सुकन्याका उपाख्यान है। इसीमें यह कथा है कि भृगुनन्दन च्यवनने शर्यातिके यज्ञमें अश्विनीकुमारोंकोी सोमपानका अधिकारी बना दिया || १७० |।
ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यावनं प्रतिपादित: ।
मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोड्त्रैव प्रकीर्तितम् ।। १७१ ।।
उन्हीं दोनोंने च्यवन मुनिको बूढ़ेसे जवान बना दिया। राजा मान्धाताकी कथा भी इसी पर्वमें कही गयी है ।। १७१ ।।
जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमक: ।
पुत्रार्थभयजद् राजा लेभे पुत्रशतं च सः ।। १७२ ।।
यहीं जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमकने बहुत-से पुत्र प्राप्त करनेके लिये एक पुत्रसे यजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये || १७२ ।।
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम् |
इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थ शिबिं नृूपम् ।। १७३ ।।
इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर)-का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्र और अग्नि राजा शिबिके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये आये हैं || १७३ ।।
अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना ।
अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेडभवत् ।। १७४ ।।
नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च ।
पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना ॥। १७५ |।
विजित्य सागर प्राप्तं पितरं लब्धवानृषि: ।
यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मन: ।
गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे ।। १७६ ।।
इसी पर्वमें अष्टावक्रका चरित्र भी है। जिसमें बन्दीके साथ जनकके यज्ञमें ब्रह्मर्षि अष्टावक्रके शास्त्रार्थका वर्णन है। वह बन्दी वरुणका पुत्र था और नैयायिकोंमें प्रधान था। उसे महात्मा अष्टावक्रने वाद-विवादमें पराजित कर दिया। महर्षि अष्टावक्रने बन्दीको हराकर समुद्रमें डाले हुए अपने पिताको प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा
रैभ्यका उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवोंकी गन्धमादनयात्रा और नारायणाश्रममें निवासका वर्णन है । १७४--१७६ ||
नियुक्तो भीमसेन श्व द्रौपद्या गन्धमादने ।
व्रजन् पथि महाबाहुर्दृष्टटान् पवनात्मजम् ।। १७७ ।।
कदलीखण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम् ।
यत्र सौगन्धिकार्थेड्सौ नलिनीं तामधर्षयत् ।। १७८ ।।
द्रौपदीने सौगन्धिक कमल लानेके लिये भीमसेनको गन्धमादन पर्वतपर भेजा। यात्रा करते समय महाबाहु भीमसेनने मार्गमें कदलीवनमें महाबली पवननन्दन श्रीहनुमानजीका दर्शन किया। यहीं सौगन्धिक कमलके लिये भीमसेनने सरोवरमें घुसकर उसे मथ डाला || १७७-१७८ ||
यत्रास्य युद्धमभवत् सुमहद् राक्षसै: सह ।
यक्षैश्षैव महावीर्यर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा ।। १७९ ।।
वहीं भीमसेनका राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान् आदि यक्षोंके साथ घमासान युद्ध हुआ ।। १७९ ।।
जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात् ।
वृषपर्वणश्न राजर्षेस्ततो 5भिगमनं स्मृतम् ।। १८० ।।
आर्डिषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च ।
प्रोत्साहनं च पाउचाल्या भीमस्यात्र महात्मन: ।। १८१ ।।
कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षेर्बलोत्कटै: ।
युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखै: सह ।। १८२ ।।
तत्पश्चात् भीमसेनके द्वारा जटासुर राक्षसका वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि वृषपर्वा और आर्श्षिणके आश्रमपर गये और वहीं रहने लगे। यहीं द्रौपदी महात्मा भीमसेनको प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलासपर्वतपर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्तिके नशेमें चूर मणिमान् आदि यक्षोंके साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ || १८०-१८२ ।।
समागमश्न पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च ।
समागमश्नार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभि: सह ।। १८३ ।।
यहीं पाण्डवोंका कुबेरके साथ समागम हुआ। इसी स्थानपर अर्जुन आकर अपने भाइयोंसे मिले || १८३ ।।
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थ सव्यसाचिना ।
निवातकवचैर्युद्ध हिरण्यपुरवासिभि: ।। १८४ ।।
इधर सव्यसाची अर्जुनने अपने बड़े भाईके लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवोंके साथ उनका घोर युद्ध हुआ ।। १८४ ।।
निवातकवचैघररिर्दानवै: सुरशत्रुभि: ।
पौलोमै: कालकेयैश्व यत्र युद्ध किरीटिन: ।। १८५ ।।
वधश्नैषां समाख्यातों राज्ञस्तेनेव धीमता ।
अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ ।। १८६ ।।
वहाँ देवताओंके शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयोंके साथ अर्जुनने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान् अर्जुनने स्वयं राजा युधिष्ठिरको सुनाया। इसके बाद अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरके पास अपने अस्त्र-शस्त्रोंका प्रदर्शन करना चाहा ।। १८५-१८६ ।।
पार्थस्य प्रतिषेधश्व॒ नारदेन सुर््िणा ।
अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात् ।। १८७ ।।
इसी समय देवर्षि नारदने आकर अर्जुनको अस्त्र-प्रदर्शनसे रोक दिया। अब पाण्डव गन्धमादन पर्वतसे नीचे उतरने लगे || १८७ ।।
भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा ।
भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन् सुगहने वने || १८८ ।।
फिर एक बीहड़ वनमें पर्वतके समान विशाल शरीरधारी बलवान् अजगरने भीमसेनको पकड़ लिया ।। १८८ ।।
अमोक्षयद् यत्र चैन॑ प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिर: ।
काम्यकागमन चैव पुनस्तेषां महात्मनाम् ।। १८९ |।
धर्मराज युधिष्ठिरने अजगर-वेशधारी नहुषके प्रश्नोंका उत्तर देकर भीमसेनको छुड़ा लिया। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुन: काम्यकवनमें आये ।। १८९ ।।
तत्रस्थांश्व पुनर्द्रष्ट पाण्डवान् पुरुषर्षभान् ।
वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम् ।। १९० ।।
जब नरपुंगव पाण्डव काम्यकवनमें निवास करने लगे, तब उनसे मिलनेके लिये वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण उनके पास आये--यह कथा इसी प्रसंगमें कही गयी है ।। १९० ।।
मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वश: ।
पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा ।। १९१ ।।
पाण्डवोंका महामुनि मार्कण्डेयके साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षिने बहुत-से उपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पृुथुका भी उपाख्यान है ।। १९१ ।।
संवादश्न सरस्वत्यास्ताक्ष्यरषें: सुमहात्मन: ।
मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम् ।। १९२ ।।
इसी प्रसंगमें प्रसिद्ध महात्मा महर्षि ताक्ष्य और सरस्वतीका संवाद है। तदनन्तर मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है ।। १९२ ।।
मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते ।
ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च ।। १९३ ।।
इसी मार्कण्डेय-समागममें पुराणोंकी अनेक कथाएँ, राजा इन्द्रद्युम्नका उपाख्यान तथा धुन्धुमारकी कथा भी है ।। १९३ ।।
पतिव्रतायाश्नाख्यानं तथैवाज्धिरसं स्मृतम् ।
द्रौपद्या: कीर्तितश्चात्र संवाद: सत्यभामया ।। १९४ ।।
पतिव्रताका और आंगिरसका उपाख्यान भी इसी प्रसंगमें है। द्रौपदीका सत्यभामाके साथ संवाद भी इसीमें है ।। १९४ ।।
पुनर्द्धतवनं चैव पाण्डवा: समुपागता: ।
घोषयात्रा च गन्धर्वर्यत्र बद्ध: सुयोधन: ।। १९५ ।।
तदनन्तर धर्मात्मा पाण्डव पुन: द्वैतवनमें आये। कौरवोंने घोषयात्रा की और गन्धर्वोने दुर्योधनको बन्दी बना लिया | १९५ ||
ह्वियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितो5सौ किरीटिना |
धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम् ।। १९६ ।।
वे मन्दमति दुर्योधनको कैद करके लिये जा रहे थे कि अर्जुनने युद्ध करके उसे छुड़ा लिया। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको स्वप्नमें हरिणके दर्शन हुए ।। १९६ ।।
काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते ।
व्रीहिद्रोणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् । १९७ ।।
इसके पश्चात् पाण्डवगण काम्यक नामक श्रेष्ठ वनमें फिरसे गये। इसी प्रसंगमें अत्यन्त विस्तारके साथ व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान भी कहा गया है || १९७ ।।
दुर्वाससो<प्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् |
जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात् ।। १९८ ।।
इसीमें दुर्वासाजीका उपाख्यान और जयद्रथके द्वारा आश्रमसे द्रौपदीके हरणकी कथा भी कही गयी है || १९८ ।।
यत्रैनमन्वयाद् भीमो वायुवेगसमो जवे ।
चक्रे चैनं पजचशिखं यत्र भीमो महाबल: ।। १९९ ||
उस समय महाबली भयंकर भीमसेनने वायुवेगसे दौड़कर उसका पीछा किया था तथा जयद्रथके सिरके सारे बाल मूँड़कर उसमें पाँच चोटियाँ रख दी थीं ।। १९९ ।।
रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ।
यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि ।। २०० ।।
वनपर्वमें बड़े ही विस्तारके साथ रामायणका उपाख्यान है, जिसमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने युद्धभूमिमें अपने पराक्रमसे रावणका वध किया है || २०० ।।
सावितन्र्याश्नाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।
कर्णस्य परिमोक्षो5त्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात् ।। २०१ ।।
इसके बाद ही सावित्रीका उपाख्यान और इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित कर देनेकी कथा है || २०१ |।
यत्रास्य शरक्ति तुष्टोठससावदादेकवधाय च ।
आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोडन्वशात् सुतम् ।। २०२ ।।
इसी प्रसंगमें इन्द्रने प्रसन्न होकर कर्णको एक शक्ति दी थी, जिससे कोई भी एक वीर मारा जा सकता था। इसके बाद है आरणेय उपाख्यान, जिसमें धर्मराजने अपने पुत्र युधिष्ठिरको शिक्षा दी है । २०२ ।।
जम्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवा: पश्चिमां दिशम्
एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम् ।। २०३ ।।
अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिति ।
एकोनसप्ततिश्नैव तथाध्याया: प्रकीर्तिता: ।। २०४ ।।
और उनसे वरदान प्राप्तकर पाण्डवोंने पश्चिम दिशाकी यात्रा की। यह तीसरे वनपर्वकी सूची कही गयी। इस पर्वमें गिनकर दो सौ उनहत्तर (२६९) अध्याय कहे गये
हैं | २०३-२०४ ।।
एकादशसहस्राणि शलोकानां षट् शतानि च |
चतुःषष्टिस्तथाश्लोका: पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिता: ।। २०५ ।।
ग्यारह हजार छ: सौ चौंसठ (११,६६४) श्लोक इस पर्वमें हैं ।। २०५ ||
अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम् ।
विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम् ।। २०६ ।।
दृष्टवा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा हयायुधान्युत ।
यत्र प्रविश्य नगरं छटझ्मना न्यवसंस्तु ते | २०७ ।।
इसके बाद विराटपर्वकी विस्तृत सूची सुनो। पाण्डवोंने विराटनगरमें जाकर श्मशानके पास एक विशाल शमीका वृक्ष देखा। उसीपर उन्होंने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र रख दिये। तदनन्तर उन्होंने नगरमें प्रवेश किया और छठ्मावेशमें वहाँ निवास करने लगे || २०६-२०७ ।।
पाजउ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतस: ।
दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात् || २०८ ।।
कीचक स्वभावसे ही दुष्ट था। द्रौपदीको देखते ही उसका मन कामबाणसे घायल हो गया। वह द्रौपदीके पीछे पड़ गया। इसी अपराधसे भीमसेनने उसे मार डाला। यह कथा इसी पर्वमें है । २०८ ।।
पाण्डवान्वेषणार्थ च राज्ञो दुर्योधनस्यथ च ।
चारा: प्रस्थापिताश्चात्र निपुणा: सर्वतोदिशम् | २०९ ।।
राजा दुर्योधनने पाण्डवोंका पता चलानेके लिये बहुत-से निपुण गुप्तचर सब ओर भेजे || २०९ |।
नच प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम् |
गोग्रहश्न विराटस्य त्रिगर्ते: प्रथमं कृत: ।। २१० ।।
परंतु उन्हें महात्मा पाण्डवोंकी गतिविधिका कोई हालचाल न मिला। इन्हीं दिनों त्रिगर्तोने राजा विराटकी गौओंका प्रथम बार अपहरण कर लिया ।। २१० ।।
यत्रास्य युद्ध सुमहत् तैरासीललोमहर्षणम् ।
ह्वियमाणश्ष् यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षित: ।। २११ ।।
राजा विराटने त्रिगर्तोंके साथ रोंगटे खड़े कर देनेवाला घमासान युद्ध किया। त्रिगर्त विराटको पकड़कर लिये जा रहे थे; किंतु भीमसेनने उन्हें छुड़ा लिया || २११ ।।
गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवै: ।
अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम् ।। २१२ ।।
साथ ही पाण्डवोंने उनके गोधनको भी त्रिगर्तोंसे छुड़ा लिया। इसके बाद ही कौरवोंने विराटनगरपर चढ़ाई करके उनकी (उत्तर दिशाकी) गायोंको लूटना प्रारम्भ कर
दिया ।। २१२ ।।
समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिता: कुरवो युधि ।
प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना ।। २१३ ।।
इसी अवसरपर किरीटधारी अर्जुनने अपना पराक्रम प्रकट करके संग्रामभूमिमें सम्पूर्ण कौरवोंको पराजित कर दिया और विराटके गोधनको लौटा लिया ।। २१३ ।।
विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिन: ।
अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम् ।। २१४ ।।
(पाण्डवोंके पहचाने जानेपर) राजा विराटने अपनी पुत्री उत्तरा शत्रुघाती सुभद्रानन्दन अभिमन्युसे विवाह करनेके लिये पुत्रवधूके रूपमें अर्जुनको दे दी || २१४ ।।
चतुर्थमेतद् विपुलं वैराट्ट पर्व वर्णितम् ।
अत्रापि परिसंख्याता अध्याया: परमर्षिणा || २१५ ।।
सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु ।
श्लोकानां द्वे सहस्ने तु *लोका: पठ्चाशदेव तु ।। २१६ ।।
उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन् महर्षिणा ।
उद्योगपर्व विज्ञेयं पजचमं शृण्वत: परम् ।। २१७ ।।
इस प्रकार इस चौथे विराटपर्वकी सूचीका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया। परमर्षि व्यासजी महाराजने इस पर्वमें गिनकर सड़सठ (६७) अध्याय रखे हैं। अब तुम मुझसे श्लोकोंकी संख्या सुनो। इस पर्वमें दो हजार पचास (२,०५०) श्लोक वेदवेत्ता महर्षि वेदव्यासने कहे हैं। इसके बाद पाँचवाँ उद्योगपर्व समझना चाहिये। अब तुम उसकी विषय- सूची सुनो | २१५--२१७ ।।
उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया ।
दुर्योधनो<र्जुनश्वैव वासुदेवमुपस्थितो ।। २१८ ।।
जब पाण्डव उपप्लव्यनगरमें रहने लगे, तब दुर्योधन और अर्जुन विजयकी आकांक्षासे भगवान् श्रीकृष्णके पास उपस्थित हुए ।। २१८ ।।
साहाय्यमस्मिन् समरे भवान् नौ कर्तुमर्हति |
इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामति: ।। २१९ |।
दोनोंने ही भगवान् श्रीकृष्णसे प्रार्थना की कि “आप इस युद्धमें हमारी सहायता कीजिये।” इसपर महामना श्रीकृष्णने कहा-- ।। २१९ ।।
अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ ।
अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य कि वा ददाम्यहम् ।। २२० ।।
“दुर्योधन और अर्जुन! तुम दोनों ही श्रेष्ठ पुरुष हो। मैं स्वयं युद्ध न करके एकका मन्त्री बन जाऊँगा और दूसरेको एक अक्षौहिणी सेना दे दूँगा। अब तुम्हीं दोनों निश्चय करो कि किसे क्या दूँ?" || २२० ।।
वच्रे दुर्योधन: सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मति: ।
अयुध्यमानं सचिवं वत्रे कृष्णं धनज्जय: ।। २२१ ।।
अपने स्वार्थके सम्बन्धमें अनजान एवं खोटी बुद्धिवाले दुर्योधनने एक अक्षौहिणी सेना माँग ली और अर्जुनने यह माँग की कि “श्रीकृष्ण युद्ध भले ही न करें, परंतु मेरे मन्त्री बन जायूँ' || २२१ ।।
मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान् प्रति ।
उपहारैर्वज्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधन: ।। २२२ ।।
वरदं त॑ वरं वत्रे साहाय्यं॑ क्रियतां मम ।
शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान् ।। २२३ ।।
शान्तिपूर्व चाकथयद् यत्रेन्द्रविजयं नृप: ।
पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवै: कौरवान् प्रति || २२४ ।।
मद्रदेशके अधिपति राजा शल्य पाण्डवोंकी ओरसे युद्ध करने आ रहे थे, परंतु दुर्योधनने मार्गमें ही उपहारोंसे धोखेमें डालकर उन्हें प्रसन्न कर लिया और उन वरदायक नरेशसे यह वर माँगा कि “मेरी सहायता कीजिये।” शल्यने दुर्योधनसे सहायताकी प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद वे पाण्डवोंके पास गये और बड़ी शान्तिके साथ सब कुछ समझा- बुझाकर सब बात कह दी। राजाने इसी प्रसंगमें इन्द्रकी विजयकी कथा भी सुनायी। पाण्डवोंने अपने पुरोहितको कौरवोंके पास भेजा | २२२--२२४ ।।
वैचित्रवीर्यस्थ वच: समादाय पुरोधस: ।
तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधस: || २२५ ।।
संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान् प्रति ।
यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्र: प्रतापवान् ।। २२६ ।।
धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पुरोहितके इन्द्रविजयविषयक वचनको सादर श्रवण करते हुए उनके आगमनके औवचित्यको स्वीकार किया। तत्पश्चात् परम प्रतापी महाराज धृतराष्ट्रने भी शान्तिकी इच्छासे दूतके रूपमें संजयको पाण्डवोंके पास भेजा || २२५-२२६ ।।
श्रुत्वा च पाण्डवान् यत्र वासुदेवपुरोगमान् |
प्रजागर: सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया | २२७ ।।
विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च ।
श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम् ।। २२८ ।।
जब धुृतराष्ट्रने सुना कि पाण्डवोंने श्रीकृष्णको अपना नेता चुन लिया है और वे उन्हें आगे करके युद्धके लिये प्रस्थान कर रहे हैं, तब चिन्ताके कारण उनकी नींद भाग गयी--वे रातभर जागते रह गये। उस समय महात्मा विदुरने मनीषी राजा धृतराष्ट्रको विविध प्रकारसे अत्यन्त आश्चर्यजनक नीतिका उपदेश किया है (वही विदुरनीतिके नामसे प्रसिद्ध है) || २२७-२२८ ।।
तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम् |
मनस्तापान्वितो राजा श्रावित: शोकलालस: ।। २२९ ||
उसी समय महर्षि सनत्सुजातने खिन्नचित्त एवं शोकविह्नल राजा धुृतराष्ट्रको सर्वोत्तम अध्यात्मशास्त्रका श्रवण कराया || २२९ ||
प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभो: ।
ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च ॥। २३० ।।
प्रातःकाल राजसभामें संजयने राजा धृतराष्ट्रसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके ऐकात्म्य अथवा मित्रताका भलीभाँति वर्णन किया || २३० ।।
यत्र कृष्णो दयापन्न: संधिमिच्छन् महामति: ।
स्वयमागाच्छमं कर्तु नगरं नागसाह्नयम् ।। २३१ ।।
इसी प्रसंगमें यह कथा भी है कि परम दयालु सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण दया-भावसे युक्त हो शान्ति-स्थापनके लिये सन्धि करानेके उद्देश्यसे स्वयं हस्तिनापुर नामक नगरमें पधारे ।। २३१ ।।
प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै ।
शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोहितम् ।। २३२ |।
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण दोनों ही पक्षोंका हित चाहते थे और शान्तिके लिये प्रार्थना कर रहे थे, परंतु राजा दुर्योधनने उनका विरोध कर दिया ।। २३२ ||
दम्भोद्धवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।
वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्ष महात्मन: ।। २३३ ।।
इसी पर्वमें दम्भोद्भधवकी कथा कही गयी है और साथ ही महात्मा मातलिका अपनी कन्याके लिये वर ढूँढ़नेका प्रसंग भी है || २३३ ।।
महर्षेश्नापि चरितं कथितं गालवस्य वै ।
विदुलायाश्न पुत्रस्य प्रोक्ते चाप्पनुशासनम् ।। २३४ ।।
इसके बाद महर्षि गालवके चरित्रका वर्णन है। साथ ही विदुलाने अपने पुत्रको जो शिक्षा दी है, वह भी कही गयी है || २३४ ।।
कर्णदुर्योधनादीनां दुष्ट विज्ञाय मन्त्रितम् ।
योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम् । २३५ ।।
भगवान् श्रीकृष्णने कर्ण और दुर्योधन आदिकी दूषित मन्त्रणाको जानकर राजाओंकी भरी सभामें अपने योगैश्वर्यका प्रदर्शन किया || २३५ ।।
रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोडनुमन्त्रित: ।
उपायपूर्व शौटीर्यात् प्रत्याख्यातश्व॒ तेन सः || २३६ ।।
भगवान् श्रीकृष्णने कर्णको अपने रथपर बैठाकर उसे (पाण्डवोंके पक्षमें आनेके लिये) अनेक युक्तियोंसे बहुत समझाया-बुझाया, परंतु कर्णने अहंकारवश उनकी बात अस्वीकार
कर दी ।। २३६ |।
आगम्य हा[स्तिनपुरादुपप्लव्यमरिन्दम: ।
पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान् हरि: ।। २३७ ।।
शत्रुसूदन श्रीकृष्णने हस्तिनापुरसे उपप्लव्यनगर आकर जैसा कुछ वहाँ हुआ था, सब पाण्डवोंको कह सुनाया || २३७ ।।
ते तस्य वचन श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम् |
सांग्रामिकं ततः सर्व सज्जं चक्र: परंतपा: ।। २३८ ।।
शत्रुधाती पाण्डव उनके वचन सुनकर और क्या करनेमें हमारा हित है--यह परामर्श करके युद्ध-सम्बन्धी सब सामग्री जुटानेमें लग गये || २३८ ।।
ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिन: ।
नगराद्धास्तिनपुराद् बलसंख्यानमेव च ।। २३९ ।।
इसके पश्चात् हस्तिनापुर नामक नगरसे युद्धके लिये मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियोंकी चतुरंगिणी सेनाने कूच किया। इसी प्रसंगमें सेनाकी गिनती की गयी है ।। २३९ ।।
यत्र राज्ञा ह्मुलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।
श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान् प्रभु: ॥। २४० ।।
फिर यह कहा गया है कि शक्तिशाली राजा दुर्योधनने दूसरे दिन प्रात:कालसे होनेवाले महायुद्धके सम्बन्धमें उलूकको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजा || २४० ।।
रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च ।
एतत् सुबहुवृत्तान्तं पजचमं पर्व भारते || २४१ ।।
इसके अनन्तर इस पर्वमें रथी, अतिरथी आदिके स्वरूपका वर्णन तथा अम्बाका उपाख्यान आता है। इस प्रकार महाभारतमें उद्योगपर्व पाँचवाँ पर्व है और इसमें बहुत-से सुन्दर-सुन्दर वृत्तान्त हैं || २४१ ।।
उद्योगपर्व निर्दिष्ट संधिविग्रहमिश्रितम्
अध्यायानां शतं प्रोक्त षडशीतिर्महर्षिणा || २४२ ।।
श्लोकानां पट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च ।
श्लोकाश्ष नवति: प्रोक्तास्तथैवाष्टी महात्मना ।। २४३ ।।
व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधना: ।
इस उद्योगपर्ममें श्रीकृष्णके द्वारा सन्धि-संदेश और उलूकके विग्रह-संदेशका महत्त्वपूर्ण वर्णन हुआ है। तपोधन महर्षियो! विशालबुद्धि महर्षि व्यासने इस पर्वमें एक सौ छियासी (१८६) अध्याय रखे हैं और शलोकोंकी संख्या छ: हजार छ: सौ अट्ठानबे (६,६९८) बतायी है ।। २४२-२४३ ३ ।।
अतः पर विचित्रार्थ भीष्मपर्व प्रचक्षते | २४४ ।।
जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्ते संजयेन ह |
यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत् परम् ।। २४५ ।।
यत्र युद्धमभूद् घोरं दशाहानि सुदारुणम् ।
कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामति: ।। २४६ ।।
मोहजं नाशयामास हेतुभिमोंक्षदर्शिभि: ।
समीक्ष्याधोक्षज: क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रत: ॥। २४७ ।।
रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारथी: ।
प्रतोदपाणिराधावद् भीष्म हन्तु व्यपेतभी: ।। २४८ ।।
इसके बाद विचित्र अर्थोंसे भरे भीष्मपर्वकी विषय-सूची कही जाती है, जिसमें संजयने जम्बूद्वीपकी रचनासम्बन्धी कथा कही है। इस पर्वमें दस दिनोंतक अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध होनेका वर्णन आता है, जिसमें धर्मराज युधिष्ठिरकी सेनाके अत्यन्त दुःखी होनेकी कथा है। इसी युद्धके प्रारम्भमें महातेजस्वी भगवान् वासुदेवने मोक्षतत्त्वका ज्ञान करानेवाली युक्तियोंद्वारा अर्जुनके मोहजनित शोक-संतापका नाश किया था (जो कि भगवदगीताके नामसे प्रसिद्ध है)। इसी पर्वमें यह कथा भी है कि युधिष्ठिरके हितमें संलग्न रहनेवाले निर्भय, उदारबुद्धि, अधोक्षज, भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनकी शिथिलता देख शीघ्र ही हाथमें चाबुक लेकर भीष्मको मारनेके लिये स्वयं रथसे कूद पड़े और बड़े वेगसे दौड़े || २४४--२४८ ।।
वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डव: ।
गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभूृतां वर: ॥। २४९ ।।
साथ ही सब शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ गाण्डीवधन्वा अर्जुनको युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णने व्यंग्य-वाक्यके चाबुकसे मार्मिक चोट पहुँचायी || २४९ ।।
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनु: ।
विनिध्नन् निशितैर्बाणै रथाद् भीष्ममपातयत् ।। २५० ।।
तब महाथधनुर्धर अर्जुनने शिखण्डीको सामने करके तीखे बाणोंसे घायल करते हुए भीष्मपितामहको रथसे गिरा दिया || २५० ||
शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह ।
षष्ठमेतत् समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम् ।। २५१ ।।
जबकि भीष्मपितामह शरशय्यापर शयन करने लगे। महाभारतमें यह छठा पर्व विस्तारपूर्वक कहा गया है ।। २५१ ।।
अध्यायानां शतं प्रोक्त तथा सप्तदशापरे ।
पजञ्च श्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टी शतानि च ।। २५२ |।
श्लोकाश्न चतुराशीतिरस्मिन् पर्वणि कीर्तिता: ।
व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि ॥। २५३ ।।
वेदके मर्मज्ञ विद्वान् श्रीकृष्णद्वैधायन व्यासने इस भीष्मपर्वमें एक सौ सत्रह (११७) अध्याय रखे हैं। श्लोकोंकी संख्या पाँच हजार आठ सौ चौरासी (५,८८४) कही गयी है ।। २५२-२५३ ।।
द्रोणपर्व ततश्रित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते ।
सैनापत्येडभिषिक्तो5थ यत्राचार्य: प्रतापवान् ।। २५४ ।।
तदनन्तर अनेक वृत्तान्तोंसे पूर्ण अद्भुत द्रोणपर्वकी कथा आरम्भ होती है, जिसमें परम प्रतापी आचार्य द्रोणके सेनापतिपदपर अभिषिक्त होनेका वर्णन है ।। २५४ ।।
दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थ प्रतिजज्ञे महास्त्रवित् ।
ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमत: ।। २५५ ।।
वहीं यह भी कहा गया है कि अस्त्रविद्याके परमाचार्य द्रोणने दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरको पकड़नेकी प्रतिज्ञा कर ली || २५५ ।।
यत्र संशप्तका: पार्थमपनिन्यू रणाजिरात् |
भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि ।। २५६ ।।
सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्त: किरीटिना ।
इसी पर्वमें यह बताया गया है कि संशप्तक योद्धा अर्जुनको रणांगणसे दूर हटा ले गये। वहीं यह कथा भी आयी है कि ऐरावतवंशीय सुप्रतीक नामक हाथीके साथ महाराज भगदत्त भी, जो युद्धमें इन्द्रके समान थे, किरीटधारी अर्जुनके द्वारा मौतके घाट उतार दिये गये || २५६३ ।।
यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेके महारथा: || २५७ ।।
जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम् |
इसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि शूरवीर बालक अभिमन्युको, जो अभी जवान भी नहीं हुआ था और अकेला था, जयद्रथ आदि बहुत-से विश्वविख्यात महारथियोंने मार डाला ।। २५७३ ||
हतेडभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे ॥। २५८ ।।
अक्षौहिणी: सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथ: ।
अभिमन्युके वधसे कुपित होकर अर्जुनने रणभूमिमें सात अक्षौहिणी सेनाओंका संहार करके राजा जयद्रथको भी मार डाला || २५८ ३ ।।
यत्र भीमो महाबाहु: सात्यकिश्व॒ महारथ: ।। २५९ ।।
अन्वेषणार्थ पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया ।
प्रविष्टी भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि || २६० ।।
उसी अवसरपर महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञासे अर्जुनको ढूँढ़नेके लिये कौरवोंकी उस सेनामें घुस गये, जिसकी मोर्चेबन्दी बड़े-बड़े देवता भी नहीं तोड़ सकते थे || २५९-२६० ।|।
संशप्तकावशेषं च कृतं नि:शेषमाहवे ।
संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम् ।। २६१ ।।
किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम् |
धृतराष्ट्रस्य पुत्राशक्ष तथा पाषाणयोधिन: ।। २६२ ।।
नारायणाक्ष गोपाला: समरे चित्रयोधिन: ।
अलनम्बुष: श्रुतायुश्न जलसन्धश्न वीर्यवान् ।। २६३ ।।
सौमदत्तिविराटश्न द्रुपदश्चन महारथ: ।
घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि ।। २६४ ।।
अर्जुनने संशप्तकोंमेंसे जो बच रहे थे, उन्हें भी युद्धभूमिमें निःशेष कर दिया। महामना संशप्तक वीरोंकी संख्या नौ करोड़ थी; परंतु किरीटधारी अर्जुनने आक्रमण करके अकेले ही उन सबको यमलोक भेज दिया। धुृतराष्ट्रपुत्र, बड़े-बड़े पाषाणखण्ड लेकर युद्ध करनेवाले म्लेच्छ-सैनिक, समरांगणमें युद्धके विचित्र कला-कौशलका परिचय देनेवाले नारायण नामक गोप, अल्म्बुष, श्रुतायु, पराक्रमी जलसन्ध, भूरिश्रवा, विराट, महारथी द्रपद तथा घटोत्कच आदि जो बड़े-बड़े वीर मारे गये हैं, वह प्रसंग भी इसी पर्वमें है ।। २६१ -२५६४ ।।
अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते ।
अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षित: ।। २६५ ।।
इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि युद्धमें जब पिता द्रोणाचार्य मार गिराये गये, तब अश्वत्थामाने भी शत्रुओंके प्रति अमर्षमें भरकर “नारायण” नामक भयानक अस्त्रको प्रकट किया था ।। २६५ ||
आगनेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम् ।
व्यासस्य चाप्यागमन माहात्म्यं कृष्णपार्थयो: ।। २६६ ।।
इसीमें आग्नेयास्त्र तथा भगवान् रुद्रके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया गया है। व्यासजीके आगमन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके माहात्म्यकी कथा भी इसीमें है || २६६ ।।
सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाह्नतम्
यत्र ते पृथिवीपाला: प्रायशो निधनं गता: ।। २६७ ।।
द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टा: पुरुषर्षभा: ।
अत्राध्यायशतं प्रोक्ते तथाध्यायाश्व॒ सप्तति: ।। २६८ ।।
अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च ।
श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। २६९ |।
पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि ।
महाभारतमें यह सातवाँ महान् पर्व बताया गया है। कौरव-पाण्डवयुद्धमें जो नरश्रेष्ठ नरेश शूरवीर बताये गये हैं, उनमेंसे अधिकांशके मारे जानेका प्रसंग इस द्रोणपर्वमें ही आया है। तत्त्वदर्शी पराशरनन्दन मुनिवर व्यासने भलीभाँति सोच-विचारकर द्रोणपर्वमें एक सौ सत्तर (१७०) अध्यायों और आठ हजार नौ सौ नौ (८,९०९) श्लोकोंकी रचना एवं गणना की है | २६७७--२६९ ३ ।।
अतः: परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम् ।। २७० ।।
सारथ्ये विनियोगश्न मद्रराजस्य धीमतः ।
आख यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम् ।। २७१ ।।
इसके बाद अत्यन्त अदभुत कर्णपर्वका परिचय दिया गया है। इसीमें परम बुद्धिमान् मद्रराज शल्यको कर्णके सारथि बनानेका प्रसंग है, फिर त्रिपुरके संहारकी पुराणप्रसिद्ध कथा आयी है | २७०-२७१ ।।
प्रयागे परुषक्षात्र संवाद: कर्णशल्ययो: ।
हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम् ।। २७२ ।।
युद्धके लिये जाते समय कर्ण और शल्यमें जो कठोर संवाद हुआ है, उसका वर्णन भी इसी पर्वमें है। तदनन्तर हंस और कौएका आक्षेपपूर्ण उपाख्यान है ।। २७२ ।।
वध: पाण्ड्यस्य च तथा अभश्वत्थाम्ना महात्मना ।
दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा ।। २७३ ।।
उसके बाद महात्मा अअश्रृत्थामाके द्वारा राजा पाण्ड्यके वधकी कथा है। फिर दण्डसेन और दण्डके वधका प्रसंग है || २७३ ।।
द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिर: ।
संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम् ।। २७४ ।।
इसी पर्वमें कर्णके साथ युधिष्ठिरके द्वैरथ (द्वन्द्ठ) युद्धका वर्णन है, जिसमें कर्णने सब धनुर्धर वीरोंके देखते-देखते धर्मराज युधिष्ठिरके प्राणोंको संकटमें डाल दिया था || २७४ ।।
अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनो: ।
यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्थ हि ।। २७५ ।।
तत्पश्चात् युधिष्ठिर और अर्जुनके एक-दूसरेके प्रति क्रोधयुक्त उदगार हैं, जहाँ भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको समझा-बुझाकर शान्त किया है || २७५ |।
प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्थ च ।
भित्त्वा वृकोदरो रक्त पीतवान् यत्र संयुगे | २७६ ।।
इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि भीमसेनने पहलेकी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार दुःशासनका वक्ष:स्थल विदीर्ण करके रक्त पीया था ।। २७६ ।।
देैरथे यत्र पार्थेन हत: कर्णो महारथ: ।
अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद् भारतचिन्तकैः ।। २७७ ।।
तदनन्तर द्वब््युद्धमें अर्जुनने महारथी कर्णको जो मार गिराया, वह प्रसंग भी कर्णपर्वमें ही है। महाभारतका विचार करनेवाले विद्वानोंने इस कर्णपर्वको आठवाँ पर्व कहा है || २७७ |।
एकोनसप्तति: प्रोक्ता अध्याया: कर्णपर्वणि ।
चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च ॥। २७८ ।।
चतुःषष्टिस्तथा श्लोका: पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिता: ।
कर्णपर्वमें उनहत्तर (६९) अध्याय कहे गये हैं और चार हजार नौ सौ चौंसठ (४,९६४) श्लोकोंका पाठ इस पर्वमें किया गया है ।। २७८ $ ।।
अतः परं विचित्रार्थ शल्यपर्व प्रकीर्तितम् ।। २७९ ।।
तत्पश्चात् विचित्र अर्थयुक्त विषयोंसे भरा हुआ शल्यपर्व कहा गया है ।। २७९ ।।
हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरो5 भवत् ।
यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च | २८० ।।
इसीमें यह कथा आयी है कि जब कौरवसेनाके सभी प्रमुख वीर मार दिये गये, तब मद्रराज शल्य सेनापति हुए। वहीं कुमार कार्तिकेयका उपाख्यान और अभिषेककर्म कहा गया है || २८० ।।
वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागश: ।
विनाश: कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते | २८१ ।।
शल्यस्य निधन चात्र धर्मराजान्महात्मन: ।
शकुनेश्व वधो<बत्रैव सहदेवेन संयुगे | २८२ ।।
साथ ही वहाँ रथियोंके युद्धका भी विभागपूर्वक वर्णन किया गया है। शल्यपर्वमें ही कुरुकुलके प्रमुख वीरोंके विनाशका तथा महात्मा धर्मराजद्वारा शल्यके वधका वर्णन किया गया है। इसीमें सहदेवके द्वारा युद्धमें शकुनिके मारे जानेका प्रसंग है । २८१-२८२ ।।
सैन्ये च हतभूयिष्टे किंचिच्छिष्टे सुयोधन: ।
हृद॑ प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थित: ।। २८३ |।
जब अधिक-से-अधिक कौरवसेना नष्ट हो गयी और थोड़ी-सी बच रही, तब दुर्योधन सरोवरमें प्रवेश करके पानीको स्तम्भित कर वहीं विश्रामके लिये बैठ गया || २८३ ।।
प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकै: ।
क्षेपयुक्तैर्वचोभि श्ष॒ धर्मराजस्य धीमत: ।। २८४ ।।
हृदात् समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोडत्यमर्षण: ।
भीमेन गदया युद्ध यत्रासी कृतवान् सह | २८५ ।।
किंतु व्याधोंने भीमसेनसे दुर्योधनकी यह चेष्टा बतला दी। तब बुद्धिमान् धर्मराजके आक्षेपयुक्त वचनोंसे अत्यन्त अमर्षमें भरकर धुृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन सरोवरसे बाहर निकला और उसने भीमसेनके साथ गदायुद्ध किया। ये सब प्रसंग शल्यपर्वमें ही हैं | २८४-२८५ ।।
समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम् ।
सरस्वत्याश्व तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता ।। २८६ ।।
गदायुद्ध॑ं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम् ।
उसीमें युद्धूके समय बलरामजीके आगमनकी बात कही गयी है। इसी प्रसंगमें सरस्वतीतटवर्ती तीर्थोंके पावन माहात्म्यका परिचय दिया गया है। शल्यपर्वमें ही भयंकर गदायुद्धका वर्णन किया गया है || २८६३ ।।
दुर्योधनस्य राज्ञोडथ यत्र भीमेन संयुगे ।। २८७ ।।
ऊरू भरनी प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया ।
नवमं पर्व निर्दिप्टमेतदद्भुतमर्थवत् ।। २८८ ।।
जिसमें युद्ध करते समय भीमसेनने हठपूर्वक (युद्धके नियमको भंग करके) अपनी भयानक वेग-शालिनी गदासे राजा दुर्योधनकी दोनों जाँघें तोड़ डालीं, यह अद्भुत अर्थसे युक्त नवाँ पर्व बताया गया है || २८७-२८८ ।।
एकोनषष्टिरध्याया: पर्वण्यत्र प्रकीर्तिता: ।
संख्याता बहुवृत्तान्ता: श्लोकसंख्यात्र कथ्यते | २८९ ।।
इस पर्वमें उनसठ (५९) अध्याय कहे गये हैं, जिसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन आया है। अब इसकी श्लोक-संख्या कही जाती है || २८९ ।।
त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा ।
मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभूता ।। २९० ।।
कौरव-पाण्डवोंके यशका पोषण करनेवाले मुनिवर व्यासने इस पर्वमें तीन हजार दो सौ बीस (३,२२०) श्लोकोंकी रचना की है | २९० ।।
अतः: पर प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम् ।
भग्नोरुँ यत्र राजान॑ दुर्योधनममर्षणम् ।। २९१ ।।
अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्ते5 भ्याययू रथा: ।
कृतवर्मा कृपो द्रौणि: सायाद्ले रुधिरोक्षितम् ।। २९२ ।।
इसके पश्चात् मैं अत्यन्त दारुण सौप्तिकपर्वकी सूची बता रहा हूँ, जिसमें पाण्डवोंके चले जानेपर अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए टूटी जाँघवाले राजा दुर्योधनके पास, जो खूनसे लथपथ हुआ पड़ा था, सायंकालके समय कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा--ये तीन महारथी आये ।। २९१-२९२ ।।
समेत्य ददृशुर्भूमी पतितं रणमूर्थनि ।
प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्त्र महारथ: ।। २९३ ।।
अहत्वा सर्वपज्चालान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ।
पाण्डवांश्व सहामात्यान् न विमोक्ष्यामि दंशनम् ।। २९४ ।।
निकट आकर उन्होंने देखा, राजा दुर्योधन युद्धके मुहानेपर इस दुर्दशामें पड़ा था। यह देखकर महारथी अभश्व॒त्थामाको बड़ा क्रोध हुआ और उसने प्रतिज्ञा की कि “मैं धृष्टद्युम्न आदि सम्पूर्ण पांचालों और मन्त्रियोंसहित समस्त पाण्डवोंका वध किये बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा” || २९३-२९४ ।।
यत्रैवमुक्त्वा राजानमफक्रम्य त्रयो रथा: ।
सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद् बनम् ।। २९५ ।।
सौप्तिकपर्वमें राजा दुर्योधनसे ऐसी बात कहकर वे तीनों महारथी वहाँसे चले गये और सूर्यास्त होते-होते एक बहुत बड़े वनमें जा पहुँचे || २९५ ।।
न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद् व्यवस्थिता: ।
ततः काकान् बहून् रात्रौ दृष्टवोलूकेन हिंसितान् ।। २९६ ।।
द्रौणि: क्रोधसमाविष्ट: पितुर्वधमनुस्मरन् ।
पज्चालानां प्रसुप्तानां वध प्रति मनो दधे || २९७ ।।
वहाँ तीनों एक बहुत बड़े बरगदके नीचे विश्रामके लिये बैठे। तदनन्तर वहाँ एक उल्लूने आकर रातमें बहुत-से कौओंको मार डाला। यह देखकर क्रोधमें भरे अश्वत्थामाने अपने पिताके अन्यायपूर्वक मारे जानेकी घटनाको स्मरण करके सोते समय ही पांचालोंके वधका निश्चय कर लिया | २९६-२९७ ||
गत्वा च शिविरद्धारि दुर्दुशं तत्र राक्षसम्
घोररूपमपश्यत् स दिवमावृत्य धिष्ठितम् | २९८ ।।
तत्पश्चात् पाण्डवोंके शिविरके द्वारपर पहुँचकर उसने देखा, एक बड़ा भयंकर राक्षस, जिसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन है, वहाँ खड़ा है। उसने पृथ्वीसे लेकर आकाशतकके प्रदेशको घेर रखा था ।। २९८ ।।
तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च ।
द्रौणिर्यत्र विरूपाक्ष॑ रुद्रमाराध्य सत्वर: ।। २९९ ।।
अश्वत्थामा जितने भी अस्त्र चलाता, उन सबको वह राक्षस नष्ट कर देता था। यह देखकर द्रोणकुमारने तुरंत ही भयंकर नेत्रोंवाले भगवान् रुद्रकी आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया ।। २९९ ।।
प्रसुप्तान् निशि विश्वस्तान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ।
पञ्चालान् सपरीवारान् द्रौपदेयांश्व॒ सर्वश: ।। ३०० ।।
कृतवर्मणा च सहित: कृपेण च निजध्निवान् ।
यत्रामुच्यन्त ते पार्था: पजच कृष्णबलाश्रयात् ।। ३०१ ।।
सात्यकिश्न महेष्वास: शेषाश्ष निधनं गता: ।
पज्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद् वध: ।। ३०२ ।।
धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदित:ः ।
द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता ।। ३०३ |।
तत्पश्चात् अश्वत्थामाने रातमें निःशंक सोये हुए धृष्टद्युम्म आदि पांचालों तथा द्रौपदीपुत्रोंकी कृतवर्मा और कृपाचार्यकी सहायतासे परिजनोंसहित मार डाला। भगवान् श्रीकृष्णकी शक्तिका आश्रय लेनेसे केवल पाँच पाण्डव और महान धनुर्धर सात्यकि बच गये, शेष सभी वीर मारे गये। यह सब प्रसंग सौप्तिकपर्वमें वर्णित है। वहीं यह भी कहा गया है कि धृष्टद्युम्नके सारथिने जब पाण्डवोंको यह सूचित किया कि द्रोणपुत्रने सोये हुए पांचालोंका वध कर डाला है, तब द्रौपदी पुत्रशोकसे पीड़ित तथा पिता और भाईकी हत्यासे व्यथित हो उठी || ३००--३०३ ।।
कृतानशनसंकल्पा यत्र ६ 0 शत् |
द्रौोपदीवचनाद् यत्र भीमो : ॥| ३०४ |
प्रियं तस्याश्रिकीर्षन् वै गदामादाय वीर्यवान् |
अन्वधावत् सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरो: सुतम् । ३०५ ।।
वह पतियोंको अभश्वत्थामासे इसका बदला लेनेके लिये उत्तेजित करती हुई आमरण अनशनका संकल्प ले अन्न-जल छोड़कर बैठ गयी। द्रौपदीके कहनेसे भयंकर पराक्रमी महाबली भीमसेन उसका प्रिय करनेकी इच्छासे हाथमें गदा ले अत्यन्त क्रोधमें भरकर गुरुपुत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड़े || ३०४-३०५ ।।
भीमसेनभयाद् यत्र दैवेनाभिप्रचोदित: ।
अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत् ।। ३०६ ।।
तब भीमसेनके भयसे घबराकर दैवकी प्रेरणासे पाण्डवोंके विनाशके लिये अश्न॒त्थामाने रोषपूर्वक दिव्यास्त्रका प्रयोग किया || ३०६ ।।
मैवमित्यब्रवीत् कृष्ण: शमयंस्तस्य तद् वच: ।
यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुन: ।। ३०७ ।।
किंतु भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके रोषपूर्ण वचनको शान्त करते हुए कहा --'मैवम्/--'पाण्डवोंका विनाश न हो।” साथ ही अर्जुनने अपने दिव्यास्त्रद्वारा उसके अस्त्रको शान्त कर दिया || ३०७ ||
द्रौणेश्व द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा ।
द्रौणिद्वेपायनादीनां शापाक्षान्योन्यकारिता: ।। ३०८ ||
उस समय पापात्मा द्रोणपुत्रके द्रोहपूर्ण विचारको देखकर द्वैपायन व्यास एवं श्रीकृष्णने अश्वत्थामाको और अअश्वत्थामाने उन्हें शाप दिया। इस प्रकार दोनों ओरसे एक- दूसरेको शाप प्रदान किया गया || ३०८ ।।
मर्णिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात् ।
पाण्डवा: प्रददुर्ह्वष्ट द्रौपद्यै जितकाशिन: ।| ३०९ ।।
महारथी अभश्वत्थामासे मणि छीनकर विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डवोंने प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदीको दे दी | ३०९ ।।
एतदू वै दशामं पर्व सौप्तिकं समुदाह्तम् ।
अष्टादशास्मिन्नध्याया: पर्वण्युक्ता महात्मना ।। ३१० ।।
इन सब तवृत्तान्तोंसे युक्त सौप्तिकपर्व दसवाँ कहा गया है। महात्मा व्यासने इसमें अठारह (१८) अध्याय कहे हैं || ३१० ।।
श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया ।
श्लोकाश्न सप्तति:ः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्म॒वादिना ।। ३११ ।।
इसी प्रकार उन ब्रह्मवादी मुनिने इस पर्वमें श्लोकोंकी संख्या आठ सौ सत्तर (८७०) बतायी है ।। ३११ ।।
सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा ।
अत ऊर्ध्व॑मिदं प्राहु: स्त्रीपर्व करूणोदयम् ॥। ३१२ ।।
उत्तम तेजस्वी व्यासजीने इस पर्वमें सौप्तिक और ऐषीक दोनोंकी कथाएँ सम्बद्ध कर दी हैं। इसके बाद दिद्वानोंने स्त्रीपर्व कहा है, जो करुणरसकी धारा बहानेवाला है || ३१२ ।।
पुत्रशोकाभिसंतप्त: प्रज्ञाचक्षुर्नराधिप: ।
कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम्ू || ३१३ ।।
भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धतराष्ट्री बभज्ज ह ।
तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमत: ।। ३१४ ।।
संसारगहनं बुद्धया हेतुभिमोंक्षदर्शनै: ।
विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासन कृतम् ।। ३१५ ।।
प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्रने पुत्रशोकसे संतप्त हो भीमसेनके प्रति द्रोहबुद्धि कर ली और श्रीकृष्णद्वारा अपने समीप लायी हुई लोहेकी मजबूत प्रतिमाको भीमसेन समझकर भुजाओंमें भर लिया तथा उसे दबाकर टूक-टूक कर डाला। उस समय पुत्रशोकसे पीड़ित बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको विदुरजीने मोक्षका साक्षात्कार करानेवाली युक्तियों तथा विवेकपूर्ण बुद्धिके द्वारा संसारकी दुःखरूपताका प्रतिपादन करते हुए भलीभाँति समझा- बुझाकर शान्त किया ।। ३१३--३१५ |।
धृतराष्ट्रस्य चात्रव कौरवायोधनं तथा ।
सानन््तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम् ।। ३१६ ।।
इसी पर्वमें शोकाकुल धृतराष्ट्रका अन्तःपुरकी स्त्रियोंक साथ कौरवोंके युद्धस्थानमें जानेका वर्णन है || ३१६ ।।
विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुण: स्मृत: ।
क्रोधावेश: प्रमोहश्च॒ गान्धारीधृतराष्ट्रयो: ।। ३१७ ।।
वहीं वीरपत्नियोंके अत्यन्त करुणापूर्ण विलापका कथन है। वहीं गान्धारी और धृतराष्ट्रके क्रोधावेश तथा मूर्च्छित होनेका उल्लेख है || ३१७ ।।
यत्र तान् क्षत्रिया: शूरान् संग्रामेष्वनिवर्तिन: ।
पुत्रान् भ्रातृन् पितृश्चैव ददृशुर्निहतान् रणे ।। ३१८ ।।
उस समय जन क्षत्राणियोंने युद्धमें पीठ न दिखानेवाले अपने शूरवीर पुत्रों, भाइयों और पिताओंको रणभूमिमें मरा हुआ देखा ।। ३१८ ।।
पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता ।
गान्धार्याश्वापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया ।। ३१९ ।।
पुत्रों और पौत्रोंके वधसे पीड़ित गान्धारीके पास आकर भगवान् श्रीकृष्णने उनके क्रोधको शान्त किया। इस प्रसंगका भी इसी पर्वमें वर्णन किया गया है ।। ३१९ ।।
यत्र राजा महाप्राज्ञ: सर्वधर्मभृतां वर: ।
राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रत: | ३२० ।।
वहीं यह भी कहा गया है कि परम बुद्धिमान् और सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने वहाँ मारे गये समस्त राजाओंके शरीरोंका शास्त्रविधिसे दाह-संस्कार किया और कराया || ३२० ।।
तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके ।
गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथया55त्मन: ।। ३२१ ।।
सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा |
एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम् ॥। ३२२ |।
प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम् ।
सप्तविंशतिरध्याया: पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिता: ।। ३२३ ।।
श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता ।
संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता ।। ३२४ ।।
तदनन्तर राजाओंको जलांजलिदानके प्रसंगमें उन सबके लिये तर्पणका आरम्भ होते ही कुन्तीद्वारा गुप्तरूपसे उत्पन्न हुए अपने पुत्र कर्णका गूढ़ वृत्तान्त प्रकट किया गया, यह प्रसंग आता है। महर्षि व्यासने ये सब बातें स्त्रीपर्वमें कही हैं। शोक और विकलताका संचार करनेवाला यह ग्यारहवाँ पर्व श्रेष्ठ पुरुषोंके चित्तको भी विह्नल करके उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा प्रवाहित करा देता है। इस पर्वमें सत्ताईस (२७) अध्याय कहे गये हैं। इसके श्लोकोंकी संख्या सात सौ पचहत्तर (७७५) कही गयी है। इस प्रकार परम बुद्धिमान् व्यासजीने महाभारतका यह उपाख्यान कहा है ।| ३२१--३२४ ।।
अतः: परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम् ।
यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिर: || ३२५ ।।
घातयित्वा पितृन् भ्रातृन् पुत्रान् सम्बन्धिमातुलान् ।
शान्तिपर्वणि धर्माक्ष व्याख्याता: शारतल्पिका: ।। ३२६ ।।
स्त्रीपर्वके पश्चात् बारहवाँ पर्व शान्तिपर्वके नामसे विख्यात है। यह बुद्धि और विवेकको बढ़ानेवाला है। इस पर्वमें यह कहा गया है कि अपने पितृतुल्य गुरुजनों, भाइयों, पुत्रों, सगे- सम्बन्धी एवं मामा आदिको मरवाकर राजा युधिष्लिरके मनमें बड़ा निर्वेद (दुःख एवं वैराग्य) हुआ। शान्तिपर्वमें बाणशय्यापर शयन करनेवाले भीष्मजीके द्वारा उपदेश किये हुए धर्मोका वर्णन है ।। ३२५-३२६ ||
राजभिवेंदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभि: |
आपद्धर्माश्चे तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिन: ।। ३२७ ।।
यान् बुद्ध्वा पुरुष: सम्यक् सर्वज्ञत्वमवाप्रुयात् ।
मोक्षधर्माश्न कथिता विचित्रा बहुविस्तरा: | ३२८ ।।
उत्तम ज्ञानकी इच्छा रखनेवाले राजाओंको उन्हें भलीभाँति जानना चाहिये। उसी पर्वमें काल और कारणकी अपेक्षा रखनेवाले देश और कालके अनुसार व्यवहारमें लानेयोग्य आपद्धर्मोका भी निरूपण किया गया है, जिन्हें अच्छी तरह जान लेनेपर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। शान्तिपर्वमें विविध एवं अद्भुत मोक्ष-धर्मोका भी बड़े विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है | ३२७-३२८ ।।
द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत् प्राज्ञजनप्रियम् ।
अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम् ।। ३२९ ।।
त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधना: ।
चतुर्दश सहस्नाणि तथा सप्त शतानि च ॥। ३३० |।
सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया ।
अत ऊर्ध्व॑ च विज्ञेगमनुशासनमुत्तमम् ।। ३३१ ।।
इस प्रकार यह बारहवाँ पर्व कहा गया है, जो ज्ञानीजनोंको अत्यन्त प्रिय है। इस पर्वमें तीन सौ उनन््तालीस (३३९) अध्याय हैं और तपोधनो! इसकी श्लोक-संख्या चौदह हजार सात सौ बत्तीस (१४,७३२) है। इसके बाद उत्तम अनुशासनपर्व है, यह जानना चाहिये || ३२९--३३१ ।।
यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम् ।
भीष्माद् भागीरथीपुत्रात् कुरुराजो युधिष्िर: | ३३२ ।।
जिसमें कुरुराज युधिष्छिर गंगानन्दन भीष्मजीसे धर्मका निश्चित सिद्धान्त सुनकर प्रकृतिस्थ हुए, यह बात कही गयी है ।। ३३२ ।।
व्यवहारोजत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तित: ।
विविधानां च दानानां फलयोगा: प्रकीर्तिता: ।। ३३३ ।।
इसमें धर्म और अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले हितकारी आचार-व्यवहारका निरूपण किया गया है। साथ ही नाना प्रकारके दानोंके फल भी कहे गये हैं | ३३३ ।।
तथा पात्रविशेषाक्ष दानानां च परो विधि: ।
आचारविधियोगश्न सत्यस्य च परा गति: ।। ३३४ ।।
महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च ।
रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम् ।। ३३५ ।।
एतत् सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम् |
भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्ति: स्वर्गस्य परिकीर्तिता ।। ३३६ ।।
दानके विशेष पात्र, दानकी उत्तम विधि, आचार और उसका विधान, सत्यभाषणकी पराकाष्ठा, गौओं और ब्राह्मणोंका माहात्म्य, धर्मोंका रहस्य तथा देश और काल (तीर्थ और पर्व)-की महिमा--ये सब अनेक वृत्तान्त जिसमें वर्णित हैं, वह उत्तम अनुशासन-पर्व है। इसीमें भीष्मको स्वर्गकी प्राप्ति कही गयी है ।। ३३४--३३६ ।।
एतत् त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम् |
अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु ।। ३३७ ।।
धर्मका निर्णय करनेवाला यह पर्व तेरहवाँ है। इसमें एक सौ छियालीस (१४६) अध्याय हैं || ३३७ ।।
श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया ।
ततो<श्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्त चतुर्दशम् ॥। ३३८ ।।
और पूरे आठ हजार (८,०००) श्लोक कहे गये हैं। तदनन्तर चौदहवें आश्वमेधिक नामक पर्वकी कथा है ॥। ३३८ ।।
तत् संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम् ।
सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षित: ।। ३३९ ।।
जिसमें परम उत्तम योगी संवर्त तथा राजा मरुत्तका उपाख्यान है। युधिष्ठिरको सुवर्णके खजानेकी प्राप्ति और परीक्षित्के जन्मका वर्णन है || ३३९ ।।
दग्थस्यास्त्राग्निना पूर्व कृष्णात् संजीवनं पुन: ।
चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छत: ।। ३४० ।।
तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणै: ।
चित्राड़दाया: पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजय: | ३४१ ।।
संग्रामे बश्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शित: ।
अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च ।। ३४२ ।।
इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम् ।
अध्यायानां शतं चैव त्रयो< ध्यायाश्ष कीर्तिता: ।। ३४३ ।।
त्रीणि श"्लोकसहस््राणि तावन्त्येव शतानि च ।
विंशतिश्न तथा श्लोका: संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३४४ ।।
पहले अभश्व॒त्थामाके अस्त्रकी अग्निसे दग्ध हुए बालक परीक्षित्का पुनः श्रीकृष्णके अनुग्रहसे जीवित होना कहा गया है। सम्पूर्ण राष्ट्रों घूमनेके लिये छोड़े गये अश्वमेधसम्बन्धी अश्वके पीछे पाण्डुनन्दन अर्जुनके जाने और उन-उन देशोंमें कुपित राजकुमारोंके साथ उनके युद्ध करनेका वर्णन है। पुत्रिकाधर्मके अनुसार उत्पन्न हुए चित्रांगदाकुमार बश्रुवाहनने युद्धमें अर्जुनको प्राणसंकटकी स्थितिमें डाल दिया था; यह कथा भी अश्वमेधपर्वमें ही आयी है। वहीं अश्वमेध-महायज्ञमें नकुलोपाख्यान आया है। इस प्रकार यह परम अद्भुत आश्वमेधिकपर्व कहा गया है। इसमें एक सौ तीन अध्याय पढ़े गये हैं। तत्त्वदर्शी व्यासजीने इस पर्वमें तीन हजार तीन सौ बीस (३, ३२०) श्लोकोंकी रचना की है || ३४०--३४४ ।।
ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम् ।
यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृप: ।। ३४५ ।।
धृतराष्ट्रो55श्रमपदं विदुरश्चन॒ जगाम ह ।
य॑ दृष्टवा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययां तदा || ३४६ ।।
पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता ।
तदनन्तर आश्रमवासिक नामक पंद्रहवें पर्वका वर्णन है। जिसमें गान्धारीसहित राजा धृतराष्ट्र और विदुरके राज्य छोड़कर वनके आश्रममें जानेका उल्लेख हुआ है। उस समय धृतराष्ट्रको प्रस्थान करते देख सती साध्वी कुन्ती भी गुरुजनोंकी सेवामें अनुरक्त हो अपने पुत्रका राज्य छोड़कर उन्हींके पीछे-पीछे चली गयीं ।। ३४५-३४६३ ।।
यत्र राजा हतान् पुत्रान् पौत्रानन्यांश्व पार्थिवान् । ३४७ ।।
लोकान्तरगतान् वीरानपश्यत् पुनरागतान् ।
ऋषे: प्रसादात् कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम् ।। ३४८ ।।
त्यक्त्वा शोकं सदारक्ष सिद्धिं परमिकां गतः ।
यत्र धर्म समाश्रित्य विदुर: सुगतिं गत: ।। ३४९ ।।
संजयश्न सहामात्यो विद्वान् गावल्गणिर्वशी ।
ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिर: || ३५० ।।
जहाँ राजा धुृतराष्ट्रने युद्धमें मरकर परलोकमें गये हुए अपने वीर पुत्रों, पौत्रों तथा अन्यान्य राजाओंको भी पुनः अपने पास आया हुआ देखा। महर्षि व्यासजीके प्रसादसे यह उत्तम आश्चर्य देखकर गान्धारीसहित धृतराष्ट्रने शोक त्याग दिया और उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि विदुरजीने धर्मका आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की। साथ ही मन्त्रियोंसहित जितेन्द्रिय विद्वान् गवल्गणपुत्र संजयने भी उत्तम पद प्राप्त कर लिया। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि धर्मराज युधिष्ठिरको नारदजीका दर्शन हुआ || ३४७--३५० ।।
नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत् |
एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्त महदद्भुतम् ।। ३५१ ।।
नारदजीसे ही उन्होंने यदुवंशियोंके महान् संहारका समाचार सुना। यह अत्यन्त अदभुत आश्रमवासिकपर्व कहा गया है || ३५१ ।।
द्विचत्वारिंशदध्याया: पर्वतदभिसंख्यया ।
सहस्रमेकं॑ श्लोकानां पठच श्लोकशतानि च ।। ३५२ ।।
षडेव च तथा श्लोका: संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।
अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम् ।। ३५३ ।।
इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या बयालीस (४२) है। तत्त्वदर्शी व्यासजीने इसमें एक हजार पाँच सौ छः: (१,५०६) “लोक रखे हैं। इसके बाद मौसलपर्वकी सूची सुनो--यह पर्व अत्यन्त दारुण है || ३५२-३५३ ।।
यत्र ते पुरुषव्याप्रा: शस्त्रस्पर्शहता युधि |
ब्रहद्मवण्डविनिष्पिष्टा: समीपे लवणाम्भस: || ३५४ ।।
इसीमें यह बात आयी है कि वे श्रेष्ठ यदुवंशी वीर क्षारसमुद्रके तटपर आपसके युद्धमें अस्त्र-शस्त्रोंके स्पर्शमात्रसे मारे गये। ब्राह्मणोंके शापने उन्हें पहले ही पीस डाला था || ३५४ ।।
आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिता: ।
एरकारूपिभिरर्ज्ै्निजघ्नुरितरेतरम् ।। ३५५ ।।
उन सबने मधुपानके स्थानमें जाकर खूब पीया और नशेसे होश-हवास खो बैठे। फिर दैवसे प्रेरित हो परस्पर संघर्ष करके उन्होंने एरकारूपी वज़्से एक-दूसरेको मार डाला || ३५५ ||
यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ ।
नातिचक्रामतु: काल प्राप्तं सर्वहरं महत् ।। ३५६ ।।
वहीं सबका संहार करके बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाइयोंने समर्थ होते हुए भी अपने ऊपर आये हुए सर्वसंहारकारी महान् कालका उल्लंघन नहीं किया (महर्षियोंकी वाणी सत्य करनेके लिये कालका आदेश स्वेच्छासे अंगीकार कर लिया) ।। ३५६ ।।
यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम् ।
दृष्टवा विषादमगमत् परां चार्ति नरर्षभ: ।। ३५७ ।।
वहीं यह प्रसंग भी है कि नरश्रेष्ठ अर्जुन द्वारकामें आये और उसे वृष्णिवंशियोंसे सूनी देखकर विषादमें डूब गये। उस समय उनके मनमें बड़ी पीड़ा हुई || ३५७ ।।
स संस्कृत्य नरश्रेष्ठ मातुलं शौरिमात्मन: ।
ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत् । ३५८ ।।
उन्होंने अपने मामा नरश्रेष्ठ वसुदेवजीका दाहसंस्कार करके आपानस्थानमें जाकर यदुवंशी वीरोंके विकट विनाशका रोमांचकारी दृश्य देखा || ३५८ ।।
शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मन: ।
संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानत: ।। ३५९ ।।
वहाँसे भगवान् श्रीकृष्ण, महात्मा बलराम तथा प्रधान-प्रधान वृष्णिवंशी वीरोंके शरीरोंको लेकर उन्होंने उनका संस्कार सम्पन्न किया || ३५९ ||
स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम् |
ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम् ।। ३६० ।।
तदनन्तर अर्जुनने द्वारकाके बालक, वृद्ध तथा स्त्रियोंको साथ ले वहाँसे प्रस्थान किया; परंतु उस दुःखदायिनी विपत्तिमें उन्होंने अपने गाण्डीव धनुषकी अभूतपूर्व पराजय देखी ।। ३६० ।।
सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम् |
नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावाणामनित्यताम् ।। ३६१ ।।
दृष्टवा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदित: ।
धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत् ।। ३६२ ।।
उनके सभी दिव्यास्त्र उस समय अप्रसन्न-से होकर विस्मृत हो गये। वृष्णिकुलकी स्त्रियोंका देखते-देखते अपहरण हो जाना और अपने प्रभावोंका स्थिर न रहना--यह सब देखकर अर्जुनको बड़ा निर्वेद (दु:ख) हुआ। फिर उन्होंने व्यासजीके वचनोंसे प्रेरित हो धर्मराज युधिष्ठटिस्से मिलकर संन्यासमें अभिरुचि दिखायी || ३६१-३६२ ।।
इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम् |
अध्यायाष्टौ समाख्याता: श्लोकानां च शतत्रयम् ।। ३६३ ।।
श्लोकानां विंशतिश्वैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।
महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्व सप्तदशं स्मृतम् ।। ३६४ ।।
इस प्रकार यह सोलहवाँ मौसलपर्व कहा गया है। इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासने गिनकर आठ (८) अध्याय और तीन सौ बीस (३२०) श्लोक कहे हैं। इसके पश्चात् सत्रहवाँ महाप्रस्थानिकपर्व कहा गया है ।। ३६३--३६४ ।।
यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवा: पुरुषर्षभा: ।
द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिता: ।। ३६५ ।।
जिसमें नरश्रेष्ठ पाण्डव अपना राज्य छोड़कर द्रौपदीके साथ महाप्रस्थानके- पथपर आ गये ।। ३६५ ।।
यत्र तेडग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्प सागरम् ।
यत्राग्निना चोदितकश्ष पार्थस्तस्मै महात्मने ।। ३६६ ।।
ददौ सम्पूज्य तदू दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम् ।
यत्र भ्रातृन् निपतितान् द्रौपदी च युधिष्ठिर: ॥। ३६७ ।।
दृष्टवा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन् |
एतत् सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम् ।। ३६८ ।।
उस यात्रामें उन्होंने लाल सागरके पास पहुँचकर साक्षात् अग्निदेवको देखा और उन्हींकी प्रेरणासे पार्थने उन महात्माको आदरपूर्वक अपना उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष अर्पण कर दिया। उसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि राजा युधिष्ठिरने मार्गमें गिरे हुए अपने भाइयों और द्रौपदीको देखकर भी उनकी क्या दशा हुई यह जाननेके लिये पीछेकी ओर फिरकर नहीं देखा और उन सबको छोड़कर आगे बढ़ गये। यह सत्रहवाँ महाप्रस्थानिकपर्व कहा गया है ।। ३६६-३६८ ।।
यत्राध्यायास्त्रय: प्रोक्ता: श्लोकानां च शतत्रयम् ।
विंशतिश्व॒ तथा श्लोका: संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३६९ ।।
इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासजीने तीन (३) अध्याय और एक सौ तेईस (१२३) श्लोक गिनकर कहे हैं ।। ३६९ ।।
स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत् तदमानुषम् ।
प्राप्तं दैवरथं स्वगन्निष्टवान् यत्र धर्मराट् ।। ३७० ।।
आरोढूुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना ।
तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मन: ।। ३७१ ।।
श्वरूप॑ यत्र तत् त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वित: ।
स्वर्ग प्राप्त: स च तथा यातना विपुला भृशम् ।। ३७२ ||
देवदूतेन नरक यत्र व्याजेन दर्शितम् ।
शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातृणां करुणा गिर: ॥। ३७३ ।।
निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम् ।
अनुदर्शितश्व धर्मेण देवराजेन पाण्डव: ।। ३७४ ।।
तदनन्तर स्वर्गारोहणपर्व जानना चाहिये। जो दिव्य वृत्तान्तोंसे युक्त और अलौकिक है। उसमें यह वर्णन आया है कि स्वर्गसे युधिष्ठिरको लेनेके लिये एक दिव्य रथ आया, किंतु महाज्ञानी धर्मराज युधिष्ठिरने दयावश अपने साथ आये हुए कुत्तेको छोड़कर अकेले उसपर चढ़ना स्वीकार नहीं किया। महात्मा युधिष्ठिरकी धर्ममें इस प्रकार अविचल स्थिति जानकर कुत्तेने अपने मायामय स्वरूपको त्याग दिया और अब वह साक्षात् धर्मके रूपमें स्थित हो गया। धर्मके साथ युधिष्ठछिर स्वर्गमें गये। वहाँ देवदूतने व्याजसे उन्हें नरककी विपुल यातनाओंका दर्शन कराया। वहीं धर्मात्मा युधिष्ठिरने अपने भाइयोंकी करुणाजनक पुकार सुनी थी। वे सब वहीं नरकप्रदेशमें यमराजकी आज्ञाके अधीन रहकर यातना भोगते थे। तत्पश्चात् धर्मराज तथा देवराजने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको वास्तवमें उनके भाइयोंको जो सदगति प्राप्त हुई थी, उसका दर्शन कराया || ३७०--३७४ ।।
आप्लुत्याकाशगज़ायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम् |
स्वधर्मनिर्जित स्थान स्वर्गे प्राप्प स धर्मराट् । ३७५ ।।
मुमुदे पूजित: सर्व: सेन्द्रै: सुरगणै: सह ।
एतदष्टादशं पर्व प्रोक्त व्यासेन धीमता ।। ३७६ ।।
इसके बाद धर्मराजने आकाशगंगामें गोता लगाकर मानवशरीरको त्याग दिया और स्वर्गलोकमें अपने धर्मसे उपार्जित उत्तम स्थान पाकर वे इन्द्रादि देवताओंके साथ उनसे सम्मानित हो आनन्दपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार बुद्धिमान् व्यासजीने यह अठारहवाँ पर्व कहा है ।। ३७५-३७६ ।।
अध्याया: पज्च संख्याता: पर्वण्यस्मिन् महात्मना ।
श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधना: ।। ३७७ ।।
नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याता: परमर्षिणा ।
अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषत: ।। ३७८ ।।
तपोधनो! परम ऋषि महात्मा व्यासजीने इस पर्वमें गिने-गिनाये पाँच (५) अध्याय और दो सौ नौ (२०९) श्लोक कहे हैं। इस प्रकार ये कुल मिलाकर अठारह पर्व कहे गये हैं ।। ३७७-३७८ ।।
खिलेषु हरिवंशश्व भविष्यं च प्रकीर्तितम् ।
दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छूलोेकशतानि च ॥। ३७९ ।।
खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा ।
एतत् सर्व समाख्यातं भारते पर्वसंग्रह: ।। ३८० ।।
खिलपर्वोमें हरिवंश तथा भविष्यका वर्णन किया गया है। हरिवंशके खिलपर्वोमें महर्षि व्यासने गणनापूर्वक बारह हजार (१२,०००) श्लोक रखे हैं। इस प्रकार महाभारतमें यह सब पर्वोका संग्रह बताया गया है |। ३७९-३८० |।
अष्टादश समाजम्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया ।
तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशा भवत् ॥। ३८१ ।।
कुरक्षेत्रमें युद्धकी इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं और वह महाभयंकर युद्ध अठारह दिनोंतक चलता रहा ।। ३८१ ।।
यो विद्याच्चतुरो वेदान् साड़्ोपनिषदो द्विज: ।
न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद् विचक्षण: ।। ३८२ ।।
जो द्विज अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंको जानता है, परंतु इस महाभारत- इतिहासको नहीं जानता, वह विशिष्ट विद्वान् नहीं है ।। ३८२ ।।
अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्त धर्मशास्त्रमिदं महत् |
कामशास्त्रमिदं प्रोक्ते व्यासेनामितबुद्धिना ।। ३८३ ।।
असीम बुद्धिवाले महात्मा व्यासने यह अर्थशास्त्र कहा है। यह महान धर्मशास्त्र भी है, इसे कामशास्त्र भी कहा गया है (और मोक्षशास्त्र तो यह है ही) ।। ३८३ ।।
श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते ।
पुंस्कोकिलरुतं श्रुत्वा रूक्षा ध्वाड्क्षस्य वागिव ।। ३८४ ।।
इस उपाख्यानको सुन लेनेपर और कुछ सुनना अच्छा नहीं लगता। भला कोकिलका कलरव सुनकर कौओंकी कठोर “काँय-काँय' किसे पसंद आयेगी? ।। ३८४ ।।
इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धय: ।
पज्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रय: ॥। ३८५ ।।
जैसे पाँच भूतोंसे त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) लोकसृष्टियाँ प्रकट होती हैं, उसी प्रकार इस उत्तम इतिहाससे कवियोंको काव्यरचनाविषयक बुद्धियाँ प्राप्त होती हैं | ३८५ ।।
अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजा: ।
अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधा: | ३८६ ।।
द्विजवरो! इस महाभारत-इतिहासके भीतर ही अठारह पुराण स्थित हैं, ठीक उसी तरह, जैसे आकाशमें ही चारों प्रकारकी प्रजा (जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्धिज्ज) विद्यमान हैं || ३८६ ।।
क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रय: ।
इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रिया: ।। ३८७ ।।
जैसे विचित्र मानसिक क्रियाएँ ही समस्त इन्द्रियोंकी चेष्टाओंका आधार हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण लौकिक-वैदिक कर्मोके उत्कृष्ट फल-साधनोंका यह आख्यान ही आधार है | ३८७ |।
अनश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते ।
आहारमनपगश्रिित्य शरीरस्येव धारणम् ।। ३८८ ।।
जैसे भोजन किये बिना शरीर नहीं रह सकता, वैसे ही इस पृथ्वीपर कोई भी ऐसी कथा नहीं है जो इस महाभारतका आश्रय लिये बिना प्रकट हुई हो || ३८८ ।।
इदं कविवरै: सर्वैराख्यानमुपजीव्यते ।
उदयप्रेप्सुभिर्भुत्यैरैभिजात इवेश्वर: ।। ३८९ ।।
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे ।
साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमा: ।। ३९० ।।
सभी श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी कथाका आश्रय लेते हैं और लेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे उन्नति चाहनेवाले सेवक श्रेष्ठ स्वामीका सहारा लेते हैं। जैसे शेष तीन आश्रम उत्तम गृहस्थ आश्रमसे बढ़कर नहीं हो सकते, उसी प्रकार संसारके कवि इस महाभारत काव्यसे बढ़कर काव्य-रचना करनेमें समर्थ नहीं हो सकते || ३८९-३९० ।।
धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां
स होक एव परलोकगतस्य बन्धु: । अर्था: स्त्रियश्न निपुणैरपि सेव्यमाना
नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम् ।। ३९१ ।। तपस्वी महर्षियो! (तथा महाभारतके पाठको!)) आप सब लोग सदा सांसारिक आसक्तियोंसे ऊँचे उठें और आपका मन सदा धर्ममें लगा रहे; क्योंकि परलोकमें गये हुए जीवका बन्धु या सहायक एकमात्र धर्म ही है। चतुर मनुष्य भी धन और स्त्रियोंका सेवन तो करते हैं, किंतु वे उनकी श्रेष्ठतापर विश्वास नहीं करते और न उन्हें स्थिर ही मानते हैं ।। ३९१ ।। द्वैपायनोष्ठपुटनि:सृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च । यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं कि तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ।। ३९२ |। जो व्यासजीके मुखसे निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय) पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्याणमय महाभारतको दूसरोंके मुखसे सुनता है, उसे पुष्करतीर्थके जलमें गोता लगानेकी क्या आवश्यकता है? ।। ३९२ ।। यदल्ला कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्वरन् । महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम् ।। ३९३ ।। ब्राह्मण दिनमें अपनी इन्द्रियोंद्वारा जो पाप करता है, उससे सायंकाल महाभारतका पाठ करके मुक्त हो जाता है ।। ३९३ ।। यद् रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा । महाभारतमाख्याय पूर्वा संध्यां प्रमुच्यते || ३९४ ।। इसी प्रकार वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा रातमें जो पाप करता है, उससे प्रात:काल महाभारतका पाठ करके छूट जाता है ।। ३९४ ।। यो गोशतं कनकश्ज्रमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय । पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ।। ३९५ ।। जो गौओंके सींगमें सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मणको प्रतिदिन सौ गौएँ दान देता है और जो केवल महाभारत-कथाका श्रवणमात्र करता है, इन दोनोंमेंसे प्रत्येकको बराबर ही फल मिलता है ।। ३९५ |। आख््यानं तदिदमनुत्तमं महार्थ विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण । श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्ण लवणजलं यथा प्लवेन ।। ३९६ ।।
यह महान् अर्थसे भरा हुआ परम उत्तम महाभारत-आख्यान यहाँ पर्वसंग्रहाध्यायके द्वारा समझना चाहिये। इस अध्यायको पहले सुन लेनेपर मनुष्योंके लिये महाभारत-जैसे महासमुद्रमें प्रवेश करना उसी प्रकार सुगम हो जाता है जैसे जहाजकी सहायतासे अनन्त जल-राशिवाले समुद्रमें प्रवेश सहज हो जाता है ।। ३९६ ।।
इति श्रीमहा भारते आदिपर्वणि पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयो$ध्याय: ।। २ ।। इस प्रकार श्रीमह्माभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पर्वसंग्रहपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥।
८-52 अर अं ४-4
३. अधिक नीचा-ऊँचा होना, काँटेदार वृक्षोंसे व्याप्हहोना तथा कंकड़-पत्थरोंकी अधिकताका होना आदि भूमिसम्बन्धी दोष माने गये हैं।
२, समन्त नामक क्षेत्रमें पाँच कुण्ड या सरोवर होनेसे उस क्षेत्र और उसके समीपवर्ती प्रदेशका भी समनन््तपंचक नाम हुआ। परंतु उसका समन्त नाम क्यों पड़ा, इसका कारण इस श्लोकमें बता रहे हैं--'समेतानाम् अन्तो यस्मिन् स समनन््त:'--समागत सेनाओंका अन्त हुआ हो जिस स्थानपर, उसे समनन््त कहते हैं। इसी व्युत्पत्तिके अनुसार वह क्षेत्र समनन््त कहलाता है।
> घर छोड़कर निराहार रहते हुए, स्वेच्छासे मृत्युका वरण करनेके लिये निकल जाना और विभिन्न दिशाओंमें भ्रमण करते हुए अन्तमें उत्तर दिशा--हिमालयकी ओर जाना--महाप्रस्थान कहलाता है--पाण्डवोंने ऐसा ही किया।
(पौष्यपर्व) तृतीयो<ध्याय:
जनमेजयको सरमाका शाप, जनमेजयद्वारा सोमश्रवाका पुरोहितके पदपर वरण, आरुणि, उपमन्यु, वेद और उत्तंककी गुरुभक्ति तथा उत्तंकका सर्पयज्ञके लिये जनमेजयको प्रोत्साहन देना
सौतिरुवाच
जनमेजय: पारीक्षित: सह भ्रातृभि: कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्रमुपास्ते | तस्य भ्रातरस्त्रय: श्रुतसेन उग्रसेनो भीमसेन इति । तेषु तत्सत्रमुपासीनेष्वागच्छत् सारमेय: ।। १ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं--परीक्षितके पुत्र जनममेजय अपने भाइयोंके साथ कुरक्षेत्रमें दीर्घकालतक चलनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे--श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन। वे तीनों उस यज्ञमें बैठे थे। इतनेमें ही देवताओंकी कुतिया सरमाका पुत्र सारमेय वहाँ आया ।। १ ।।
स जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतो रोरूयमाणो मातु: समीपमुपागच्छत् ।। २ ।।
जनमेजयके भाइयोंने उस कुत्तेकों मारा। तब वह रोता हुआ अपनी माँके पास गया ।। २ ।।
त॑ माता रोरूयमाणमुवाच । कि रोदिषि केनास्यभिहत इति ।। ३ ।।
बार-बार रोते हुए अपने उस पुत्रसे माताने पूछा--“बेटा! क्यों रोता है? किसने तुझे मारा है?' ।। ३ ।।
स एवमुक्तो मातरं प्रत्युवाच जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतोडस्मीति || ४ ।।
माताके इस प्रकार पूछनेपर उसने उत्तर दिया--'माँ! मुझे जनमेजयके भाइयोंने मारा है! | ४ ।।
त॑ माता प्रत्युवाच व्यक्त त्वया तत्रापराद्धं येनास्यभिहत इति | ५ ।।
तब माता उससे बोली--“बेटा! अवश्य ही तूने उनका कोई प्रकटरूपमें अपराध किया होगा, जिसके कारण उन्होंने तुझे मारा है” || ५ ।।
स तां पुनरुवाच नापराध्यामि किंचिचन्नावेक्षे हवींषि नावलिह इति ।। ६ ।।
तब उसने मातासे पुनः इस प्रकार कहा--“मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तो उनके हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही है” ।। ६ ।।
तच्छुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रदुःखार्ता तत् सत्रमुपागच्छद् यत्र स जनमेजय: सह भ्रातृभिदर्दीर्घ-सत्रमुपास्ते || ७ ।।
यह सुनकर पुत्रके दुःखसे दुःखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्रमें आयी, जहाँ जनमेजय अपने भाइयोंके साथ दीर्घकालीन सत्रका अनुष्ठान कर रहे थे ।। ७ ।।
स तया क्ुद्धया तत्रोक्तो<यं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति नावेक्षते हवींषि नावलेढि किमर्थमभिहत इति ।। ८ ।।
वहाँ क्रोधमें भरी हुई सरमाने जनमेजयसे कहा--'मैरे इस पुत्रने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया था, न तो इसने हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसे क्यों मारा?” ।। ८ ।।
न किज्चिदुक्तवन्तस्ते सा तानुवाच यस्मादयमभिहतो5नपकारी तस्मादद्ष्टं त्वां भयमागमिष्यतीति ।। ९ ।।
किंतु जनमेजय और उनके भाइयोंने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमाने उनसे कहा, "मेरा पुत्र निरपराध था, तो भी तुमने इसे मारा है; अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात् ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहलेसे कोई सम्भावना न रही हो” ।। ९ ।।
जनमेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया भृशं सम्भ्रान्तो विषण्णश्वासीत् ।। १० ।।
देवताओंकी कुतिया सरमाके इस प्रकार शाप देनेपर जनमेजयको बड़ी घबराहट हुई और वे बहुत दुःखी हो गये ।। १० ।।
स तस्मिन् सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोहितमनुरूपमन्विच्छमान: परं यत्नमकरोदू यो मे पापकृत्यां शमयेदिति ।। ११ ।।
उस सत्रके समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुरमें आये और अपनेयोग्य पुरोहितकी खोज करते हुए इसके लिये बड़ा यत्न करने लगे। पुरोहितके ढूँढ़नेका उद्देश्य यह था कि वह मेरी इस शापरूप पापकृत्याको (जो बल, आयु और प्राणका नाश करनेवाली है) शान्त कर दे ।। ११ ||
स कदाचिन्मृगयां गतः पारीक्षितों जनमेजय: कम्मिंश्वित्ु स्वविषय आश्रममपश्यत् ।। १२ ।।
एक दिन परीक्षितपुत्र जनममेजय शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने एक आश्रम देखा, जो उन्हींके राज्यके किसी प्रदेशमें विद्यमान था ।। १२ ।।
तत्र कश्चिदृषिरासांचक्रे श्रुतश्रवा नाम | तस्य तपस्यभिरत: पुत्र आस्ते सोमश्रवा नाम ।। १३ ||
उस आश्रममें श्रुतश्रवा नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे। उनके पुत्रका नाम था सोमश्रवा। सोमश्रवा सदा तपस्यामें ही लगे रहते थे ।। १३ ।।
तस्य तं॑ पुत्रमभिगम्य जनमेजय: पारीक्षित: पौरोहित्याय वत्रे || १४ ।।
परीक्षितकुमार जनमेजयने महर्षि श्रुतश्रवाके पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवाका पुरोहितपदके लिये वरण किया ।। १४ ।।
स नमस्कृत्य तमृषिमुवाच भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितो$स्त्विति | १५ ।।
राजाने पहले महर्षिको नमस्कार करके कहा--“भगवन्! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरे पुरोहित हों! ।। १५ ।।
स एवमुक्त: प्रत्युवाच जनमेजयं भो जनमेजय पुत्रो5यं मम सर्प्या जातो महातपस्वी स्वाध्याय-सम्पन्नो मत्तपोवीर्यसम्भूतो मच्छुक्रे पीतवत्यास्तस्या: कुक्षौ जात: ।। १६ ।।
उनके ऐसा कहनेपर श्रुतश्रवाने जनमेजयको इस प्रकार उत्तर दिया--“महाराज जनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणीके गर्भसे पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी और स्वाध्यायशील है। मेरे तपोबलसे इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणीने मेरा वीर्यपान कर लिया था, अत: उसीके पेटसे इसका जन्म हुआ है ।। १६ ।।
समर्थो5यं भवत: सर्वा: पापकृत्या: शमयितु-मन्तरेण महादेवकृत्याम् ।। १७ ।।
यह तुम्हारी सम्पूर्ण पापकृत्याओं (शापजनित उपद्रवों)-का निवारण करनेमें समर्थ है। केवल भगवान् शंकरकी कृत्याको यह नहीं टाल सकता ।। १७ ।।
अस्य त्वेकमुपांशुब्रतं यदेनं कश्रिद् ब्राह्मण: कंचिदर्थमभियाचेत् तं तस्मै दद्यादयं यद्येतदुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति ।। १८ ।।
किंतु इसका एक गुप्त नियम है। यदि कोई ब्राह्मण इसके पास आकर इससे किसी वस्तुकी याचना करेगा तो यह उसे उसकी अभीष्ट वस्तु अवश्य देगा। यदि तुम उदारतापूर्वक इसके इस व्यवहारको सहन कर सको अथवा इसकी इच्छापूर्तिका उत्साह दिखा सको तो इसे ले जाओ' ।। १८ ।।
तेनैवमुक्तो जनमेजयस्तं प्रत्युवाच भगवंस्तत् तथा भविष्यतीति ।। १९ ।।
श्रुतश्रवाके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उत्तर दिया--“भगवन्! सब कुछ उनकी रुचिके अनुसार ही होगा” ।। १९ ||
स त॑ पुरोहितमुपादायोपावृत्तों भ्रातूनुवाच मयायं वृत उपाध्यायो यदयं ब्रूयात् तत् कार्यमविचारयद्/िर्भवद्धिरिति । तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा चक्कु: | स तथा भ्रातृन् संदिश्य तक्षशिलां प्रत्यभिप्रतस्थे त॑ च देशं वशे स्थापयामास ।। २० ।।
फिर वे सोमश्रवा पुरोहितको साथ लेकर लौटे और अपने भाइयोंसे बोले--*इन्हें मैंने अपना उपाध्याय (पुरोहित) बनाया है। ये जो कुछ भी कहें, उसे तुम्हें बिना किसी सोच- विचारके पालन करना चाहिये।” जनमेजयके ऐसा कहनेपर उनके तीनों भाई पुरोहितकी प्रत्येक आज्ञाका ठीक-ठीक पालन करने लगे। इधर राजा जनमेजय अपने भाइयोंको
पूर्वोक्त आदेश देकर स्वयं तक्षशिला जीतनेके लिये चले गये और उस प्रदेशको अपने अधिकारमें कर लिया || २० ||
एतस्मिन्नन्तरे कश्चिदृषिर्धोम्यो नामायोदस्तस्य शिष्यास्त्रयो बभूवुरुपमन्युरारुणिवेंदश्वेति । २१ ।।
(गुरुकी आज्ञाका किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषयमें आगेका प्रसंग कहा जाता है--) इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे। उनके तीन शिष्य हुए-- उपमन्यु, आरुणि पांचाल तथा वेद ।। २१ ।।
स एकं शिष्यमारुणिं पाज्चाल्यं प्रेषयामास गच्छ केदारखण्डं बधानेति ॥। २२ ।।
एक दिन उपाध्यायने अपने एक शिष्य पांचालदेशवासी आरुणिको खेतपर भेजा और कहा--“वत्स! जाओ, क्यारियोंकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो” ।। २२ ।।
स॒उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणि: पाज्चाल्यस्तत्र गत्वा तत् केदारखण्डं बद्धूं नाशकत् | स क्लिश्यमानोडपश्यदुपायं भवत्वेवं करिष्यामि ।। २३ ।।
उपाध्यायके इस प्रकार आदेश देनेपर पांचालदेशवासी आरुणि वहाँ जाकर उस धानकी क्यारीकी मेड़ बाँधने लगा; परंतु बाँध न सका। मेड़ बाँधनेके प्रयत्नमें ही परिश्रम करते-करते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन-ही-मन बोल उठा--“अच्छा; ऐसा ही करूँ” || २३ |।
स तत्र संविवेश केदारखण्डे शयाने च तथा तस्मिंस्तदुदकं तस्थौ ।। २४ ।।
वह क्यारीकी टूटी हुई मेड़की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जानेपर वहाँका बहता हुआ जल रुक गया ।। २४ ।।
ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्य: शिष्यानपृच्छत् क्व आरुणि: पाज्चाल्यो गत इति ।। २५ ||
फिर कुछ कालके पश्चात् उपाध्याय आयोदधौम्यने अपने शिष्योंसे पूछा --'पांचालनिवासी आरुणि कहाँ चला गया?” || २५ ||
ते त॑ प्रत्यूचुर्भगवंस्त्वयैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं बधानेति | स एवमुक्तस्ताज्कछिष्यान् प्रत्युवाच तस्मात् तत्र सर्वे गच्छामो यत्र स गत इति ।। २६ ।।
शिष्योंने उत्तर दिया--“भगवन्! आपहीने तो उसे यह कहकर भेजा था कि “जाओ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो।' शिष्योंके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उनसे कहा--“तो चलो, हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरुणि गया है” ।। २६ ।।
स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्द चकार | भो आरुणे पाज्चाल्य क्वासि वत्सैहीति ।। २७ ।।
वहाँ जाकर उपाध्यायने उसे आनेके लिये आवाज दी--'पांचालनिवासी आरुणि! कहाँ हो वत्स! यहाँ आओ” || २७ ।।
स॒तच्छुत्वा आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात् केदारखण्डातू सहसोत्थाय तमुपाध्यायमुपतस्थे ।। २८ ।।
उपाध्यायका यह वचन सुनकर आरुणि पांचाल सहसा उस क्यारीकी मेड़से उठा और उपाध्यायके समीप आकर खड़ा हो गया ॥। २८ ।।
प्रोवाच चैनमयमस्म्यत्र केदारखण्डे नि:सरमाणमुदकमवारणीयं संरोद्धूं संविष्टो भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भवन्तमुपस्थित: ।। २९ |।
फिर उनसे विनयपूर्वक बोला--'भगवन्! मैं यह हूँ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़से निकलते हुए अनिवार्य जलको रोकनेके लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ ।। २९ |।।
तदभिवादये भगवन्न्तमाज्ञापयतु भवान् कमर्थ करवाणीति ।। ३० ॥।
“मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन-सा कार्य करूँ?” ।। ३० ।।
स॒ एवमुक्त उपाध्याय: प्रत्युवाच यस्मादू् भवान् केदारखण्डं विदार्योत्थितस्तस्मादुद्दालक एव नाम्ना भवान् भविष्यतीत्युपाध्यायेनानुगृहीत: ।। ३१ ।।
आरुणिके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया--“तुम क्यारीके मेड़को विदीर्ण करके उठे हो, अत: इस उद्दलनकर्मके कारण उद्दालक नामसे ही प्रसिद्ध होओगे।' ऐसा कहकर उपाध्यायने आरुणिको अनुगृहीत किया ।। ३१ ।।
यस्माच्च त्वया मद्बचनमनुष्ठितं तस्माच्छेयो&वाप्स्यसि । सर्वे च ते वेदा: प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति ॥। ३२ ।।
साथ ही यह भी कहा कि, “तुमने मेरी आज्ञाका पालन किया है, इसलिये तुम कल्याणके भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धिमें स्वयं प्रकाशित हो जायूँगे” || ३२ ।।
स॒ एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देश जगाम । अथापर: शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्योपमन्युर्नाम ।। ३३ ।।
उपाध्यायके इस प्रकार आशीर्वाद देनेपर आरुणि कृतकृत्य हो अपने अभीष्ट देशको चला गया। उन्हीं आयोदधौम्य उपाध्यायका उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था ।। ३३ ।।
त॑ चोपाध्याय: प्रेषषामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति ।। ३४ ।।
उसे उपाध्यायने आदेश दिया--“वत्स उपमन्यु! तुम गौओंकी रक्षा करो” ।। ३४ ।।
स॒ उपाध्यायवचनादरक्षद् गाः;: स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रत: स्थित्वा नमश्नक्रे || ३५ ।।
उपाध्यायकी आज्ञासे उपमन्यु गौओंकी रक्षा करने लगा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहकर संध्याके समय गुरुजीके घरपर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार
करता ।। ३५ ||
तमुपाध्याय: पीवानमपश्यदुवाच चैनं वत्सोपमन्यो केन वृत्ति कल्पयसि पीवानसि दृढमिति ।॥। ३६ ।।
उपाध्यायने देखा उपमन्यु खूब मोटा-ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा--“बेटा उपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट-पुष्ट हो रहे हो?” ।। ३६ ।।
स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्यैण वृत्ति कल्पयामीति ।। ३७ ।।
उसने उपाध्यायसे कहा--'गुरुदेव! मैं भिक्षासे जीवन-निर्वाह करता हूँ” || ३७ ।।
तमुपाध्याय: प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति | स तयथेत्युक्त्वा भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत् ।। ३८ ।।
यह सुनकर उपाध्याय उपमन्युसे बोले--“मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षाका अन्न अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये।” उपमन्युने “बहुत अच्छा” कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपाध्यायको अर्पण करने लगा ।। ३८ ।।
स तस्मादुपाध्याय: सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्नात्ू | स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद् गा: । अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रत: स्थित्वा नमश्नक्रे ।। ३९ ।।
उपाध्याय उपमन्युसे सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु “तथास्तु” कहकर पुनः पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहता और (संध्याके समय) पुनः गुरुके घरपर आकर गुरुके सामने खड़ा हो नमस्कार करता था ।। ३९ |।।
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्टवोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्ष्यं गृह्नामि केनेदानीं वृत्ति कल्पयसीति ।। ४० ।।
उस दशामें भी उपमन्युको पूर्ववत् हृष्ट-पुष्ट ही देखकर उपाध्यायने पूछा--“बेटा उपमन्यु! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन-निर्वाह करते हो?” ।। ४० ।।
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं कल्पयामीति ।। ४१ ।।
उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उन्हें उत्तर दिया--“भगवन्! पहलेकी लायी हुई भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसीसे अपनी जीविका चलाता हूँ || ४१ ।।
तमुपाध्याय: प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनां वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोडसीति ।। ४२ ।।
यह सुनकर उपाध्यायने कहा--“यह न्याययुक्त एवं श्रेष्ठ वृत्ति नहीं है। तुम ऐसा करके दूसरे भिक्षाजीवी लोगोंकी जीविकामें बाधा डालते हो; अतः लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षा नहीं लानी चाहिये)” ।। ४२ ।।
स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत् । रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपा ध्यायस्याग्रत: स्थित्वा नमश्षक्रे || ४३ ।।
उसने “तथास्तु” कहकर गुरुकी आज्ञा मान ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा। एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकालको) उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया || ४३ ।।
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्टवा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्व भैक्ष्यं गृह्नामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्ति कल्पयसीति ।। ४४ ।।
उपाध्यायने उसे फिर भी मोटा-ताजा ही देखकर पूछा--“बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। आजकल कैसे खाना-पीना चलाते हो?” ।। ४४ ।।
स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्ति कल्पयामीति । तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं भवतो मया नाभ्यनुज्ञातमिति ।। ४५ ।।
इस प्रकार पूछनेपर उपमन्युने उपाध्यायको उत्तर दिया--“भगवन्! मैं इन गौओंके दूधसे जीवन-निर्वाह करता हूँ।” (यह सुनकर) उपाध्यायने उससे कहा---मैंने तुम्हें दूध पीनेकी आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओंके दूधका उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित है! | ४५ ||
स तयथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायगृहमेत्य गुरोरग्रत: स्थित्वा नमश्षुक्रे || ४६ ।।
उपमन्युने “बहुत अच्छा” कहकर दूध न पीनेकी भी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारणके पश्चात् वह पुनः उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया || ४६ ।।
तमुपाध्याय: पीवानमेव दृष्टवोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्नासि न चान्यच्चरसि पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्ति कल्पयसीति ।। ४७ ।।
उपाध्यायने अब भी उसे हृष्ट-पुष्ट ही देखकर पूछा--“बेटा उपमन्यु! तुम भिक्षाका अन्न नहीं खाते, दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते और गौओंका दूध भी नहीं पीते; फिर भी बहुत मोटे हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो?” ।। ४७ ।।
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भो: फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातृणां स्तनात् पिबन्त उद्गिरन्ति | ४८ ।।
इस प्रकार पूछनेपर उसने उपाध्यायको उत्तर दिया--'भगवन्! ये बछड़े अपनी माताओंके स्तनोंका दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसीको पी लेता हूँ” || ४८ ।।
तमुपाध्याय: प्रत्युवाच--एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्सा: प्रभूततरं फेनमुद्गिरन्ति । तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमान: | फेनमपि भवान् न पातुमर्हतीति । स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद् गा: ।। ४९ ।।
यह सुनकर उपाध्यायने कहा--'ये बछड़े उत्तम गुणोंसे युक्त हैं, अतः तुमपर दया करके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ोंकी जीविकामें बाधा उपस्थित करते हो, अत: आजसे फेन भी न पिया करो।” उपमन्युने “बहुत अच्छा” कहकर उसे न पीनेकी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा ।। ४९ |।
तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेन॑ नोपयुद्धक्ते । स कदाचिदरणप्ये क्षुधार्तोंडर्कपत्राण्यभक्षयत् ।। ५० ।।
इस प्रकार मना करनेपर उपमन्यु न तो भिक्षाका अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओंका दूध पीता और न बछड़ोंके फेनको ही उपयोगमें लाता था (अब वह भूखा रहने लगा)। एक दिन वनमें भूखसे पीड़ित होकर उसने आकके पत्ते चबा लिये || ५० ।।
स तैरर्कपन्रैर्भक्षितै: क्षारतिक्तकदुरूक्षैस्तीक्षणविपाकैश्नक्षुष्युपहतो5न्धो बभूव । ततः सो<न्धोडपि चड्क्रम्यमाण: कूपे पपात ।। ५१ ।।
आकके पत्ते खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकालमें वे पेटके अंदर आगकी ज्वाला-सी उठा देते हैं)) अतः: उनको खानेसे उपमन्युकी आँखोंकी ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गया। अन्धा होनेपर भी वह इधर- उधर घूमता रहा; अतः कुएँमें गिर पड़ा || ५१ ।।
अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्य चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्याय: शिष्यानवोचत्-- नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति ॥। ५२ ।।
तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचलकी चोटीपर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरुके घरपर नहीं आया, तो उपाध्यायने शिष्योंसे पूछा--“उपमन्यु क्यों नहीं आया?' वे बोले--“वह तो गाय चरानेके लिये वनमें गया था” || ५२ ।।
तानाह उपाध्यायो मयोपमन्यु: सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो नागच्छति चिरं ततो<न्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यै: सार्थमरण्यं गत्वा तस्याद्वानाय शब्दं चकार भो उपमन्यो क्वासि वत्सैहीति ।। ५३ |।
तब उपाध्यायने कहा--'मैंने उपमन्युकी जीविकाके सभी मार्ग बंद कर दिये हैं, अतः निश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जानेपर भी वह नहीं आया, अतः हमें चलकर उसे खोजना चाहिये।” ऐसा कहकर शिष्योंके साथ वनमें जाकर उपाध्यायने उसे बुलानेके लिये आवाज दी--'ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा! चले आओ” ।। ५३ ।।
स॒ उपाध्यायवचनं श्रु॒त्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन्ू कूपे पतितो5हमिति तमुपाध्याय: प्रत्युवाच कथ॑ं त्वमस्मिन् कूपे पतित इति ।। ५४ ।।
उसने उपाध्यायकी बात सुनकर उच्च स्वरसे उत्तर दिया--“गुरुजी! मैं कुएँमें गिर पड़ा हूँ।' तब उपाध्यायने उससे पूछा--“वत्स! तुम कुएँमें कैसे गिर गये?” ।। ५४ ।।
स उपाध्यायं प्रत्युवाच--अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतो5स्म्यत: कूपे पतित इति ।। ५५ || उसने उपाध्यायको उत्तर दिया--'भगवन्! मैं आकके पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; इसीलिये कुएँमें गिर गया” || ५५ ।। तमुपाध्याय: प्रत्युवाच--अश्विनौ स्तुहि । तौ देवभिषजोौ त्वां चक्षुष्मन्तं कर्ताराविति । स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युरश्विनौ स्तोतुमुपचक्रमे देवावश्चिनौ वाम्भिऋग्भि: ।। ५६ || तब उपाध्यायने कहा--“वत्स! दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके वैद्य हैं। तुम उन्हींकी स्तुति करो। वे तुम्हारी आँखें ठीक कर देंगे।' उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने अश्विनीकुमार नामक दोनों देवताओंकी ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा स्तुति प्रारम्भ की || ५६ ।। प्रपूर्वगौ पूर्वजी चित्रभानू गिरा वा55शंसामि तपसा हानन्तौ । दिव्यौ सुपर्णा विरजौ विमाना- वधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा ॥। ५७ ।। हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों सृष्टिसे पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही चित्रभानु हैं। मैं वाणी और तपके द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। दिव्यस्वरूप हैं। सुन्दर पंखवाले दो पक्षीकी भाँति सदा साथ रहनेवाले हैं। रजोगुणशून्य तथा अभिमानसे रहित हैं। सम्पूर्ण विश्वमें आरोग्यका विस्तार करते हैं |। ५७ ।। हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ नासत्यदस्रौ सुनसौ वै जयन्तौ । शुक्ल वयन्तौ तरसा सुवेमा- वधिव्ययन्तावसितं विवस्वत: ।। ५८ ।। सुनहरे पंखवाले दो सुन्दर विहंगमोंकी भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं। पारलौकिक उन्नतिके साधनोंसे सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दख्न--ये दोनों आपके नाम हैं। आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चितरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले हैं। आप ही विवस्वान् (सूर्यदेव)-के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूपमें स्थित हो दिन तथा रात्रिरूप काले तन््तुओंसे संवत्सररूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्रद्वारा वेगपूर्वक देवयान और पितृयान नामक सुन्दर मार्गोको प्राप्त कराते हैं || ५८ ।। ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिका- ममुज्चतामश्विनौ सौभगाय । तावत् सुवृत्तावनमन्त मायया वसत्तमा गा अरुणा उदावहन् ॥। ५९ ।।
परमात्माकी कालशक्तिने जीवरूपी पक्षीको अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों अश्विनीकुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषोंने ज्ञान देकर कैवल्यरूप महान् सौभाग्यकी प्राप्तिके लिये उस जीवको कालके बन्धनसे मुक्त किया है। मायाके सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जबतक राग आदि विषयोंसे आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियोंके समक्ष नत-मस्तक रहते हैं, तबतक वे अपने-आपको शरीरसे आबद्ध ही मानते हैं ।। ५९ ।। षष्टिक्ष गावस्त्रिशताक्ष धेनव एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति । नानागोष्ठा विहिता एकदोहना- स्तावश्विनौ दुहतो घर्ममुक्थ्यम् ।। ६० ।। दिन एवं रात--ये मनोवांछित फल देनेवाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक ही संवत्सररूपी बछड़ेको जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़ेको निमित्त बनाकर उन गौओंसे विभिन्न फल देनेवाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं; उन सब क्रियाओंका एक (तत्त्वज्ञानकी इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओंको आप दोनों अश्विनीकुमार ही दुहते हैं || ६० ।। एकां नाभि सप्तशता अरा:ः श्रिता: प्रधिष्वन्या विंशतिरपिंता अरा: । अनेमि चक्र परिवर्तते5जरं मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी ।। ६३१ ।। हे अश्विनीकुमारो! इस कालचक्रकी एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिसपर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरोंको थामनेवाले पुट्टठों)-में जुड़े हुए हैं। अश्विनीकुमारो! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र बिना नेमिके ही अनियत गतिसे घूमता तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकोंकी प्रजाओंका विनाश करता रहता है || ६१ ।। एकं॑ चक्र वर्तते द्वादशारं षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम् | यस्मिन् देवा अधि विश्वे विषक्ता- स्तावश्चिनौ मुज्चतं मा विषीदतम् ।। ६२ ।। अश्विनीकुमारो! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः: नाभियाँ हैं और संवत्सर जिसकी एक धुरी है, वह एकमात्र कालचक्र सब ओर चल रहा है। यही कर्मफलको धारण करनेवाला आधार है। इसीमें सम्पूर्ण कालाभिमानी देवता स्थित हैं। आप दोनों मुझे इस कालचक्रसे मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदिके दुःखसे अत्यन्त वष्ट पा रहा हूँ ।। ६२ ।।
अश्विनाविन्दुममृतं वृत्त भूयौ तिरोधत्तामश्चिनौ दासपत्नी । हित्वा गिरिमश्रचिनौ गा मुदा चरन्तौ तद्वृष्टिमल्वा प्रस्थितो बलस्य ।। ६३ ।। हे अश्विनीकुमारो! आप दोनोंमें सदाचारका बाहुल्य है। आप अपने सुयशसे चन्द्रमा, अमृत तथा जलकी उज्ज्वलताको भी तिरस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरु पर्वतको छोड़कर आप पृथ्वीपर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बलकी वर्षा करनेके लिये ही आप दोनों भाई दिनमें प्रस्थान करते हैं || ६३ ।। युवां दिशो जनयथो दशाग्रे समान मूर्थ्नि रथयानं वियन्ति । तासां यातमृषयोअनुप्रयान्ति देवा मनुष्या: क्षितिमाचरन्ति ।। ६४ ।। हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों ही सृष्टिके प्रारम्भकालमें पूर्वांदि दसों दिशाओंको प्रकट करते--उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओंके मस्तक अर्थात् अन्तरिक्ष-लोकमें रथसे यात्रा करनेवाले तथा सबको समानरूपसे प्रकाश देनेवाले सूर्यदेवका और आकाश आदि पाँच भूतोंका भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओंमें सूर्यका जाना देखकर ऋषिलोग भी उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकारके अनुसार) स्वर्ग या मर्त्पलोककी भूमिका उपयोग करते हैं ।। ६४ ।। युवां वर्णान् विकुरुथो विश्वरूपां- स्तेडधिक्षियन्ते भुवनानि विश्वा | ते भानवो5प्यनुसूता श्चरन्ति देवा मनुष्या: क्षितिमाचरन्ति || ६५ ।। हे अश्विनीकुमारो! आप अनेक रंगकी वस्तुओंके सम्मिश्रणसे सब प्रकारकी ओषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्वका पोषण करती हैं। वे प्रकाशभान ओषधियाँ सदा आपका अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकारके अनुसार स्वर्ग और मर्त्यलोककी भूमिमें रहकर उन ओषधियोंका सेवन करते हैं ।। ६५ ।। तौ नासत्यावद्चिनौ वां महे5हं स्रजं च यां बिभूथ: पुष्करस्य । तौ नासत्यावमृतावृतावृधा- वृते देवास्तत्प्रपदे न सूते || ६६ ।। अश्विनीकुमारो! आप ही दोनों “नासत्य' नामसे प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमलकी माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होनेके साथ ही
सत्यका पोषण और विस्तार करनेवाले हैं। आपके सहयोगके बिना देवता भी उस सनातन सत्यकी प्राप्तिमें समर्थ नहीं हैं || ६६ ।। मुखेन गर्भ लभेतां युवानौ गतासुरेतत् प्रपदेन सूते । सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भ- स्तावश्विनौ मुज्चथो जीवसे गा: ।। ६७ ।। युवक माता-पिता संतानोत्पत्तिके लिये पहले मुखसे अन्नरूप गर्भ धारण करते हैं। तत्पश्चात् पुरुषोंमें वीर्यरूपमें और स्त्रीमें रजोरूपसे परिणत होकर वह अन्न जड शरीर बन जाता है। तत्पश्चात् जन्म लेनेवाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही माताके स्तनोंका दूध पीने लगता है। हे अश्विनीकुमारो! पूर्वोक्त रूपसे संसार-बन्धनमें बँधे हुए जीवोंको आप तत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाहके लिये मेरी नेत्रेन्द्रियको भी रोगसे मुक्त करें ।। ६७ ।। स्तोतुं न शकनोमि गुणैर्भवन्तौ चक्षुविहीन: पथि सम्प्रमोह: । दुर्गेडहहमस्मिन् पतितो5स्मि कूपे युवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये || ६८ ।। अश्विनीकुमारो! मैं आपके गुणोंका बखान करके आप दोनोंकी स्तुति नहीं कर सकता। इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचाननेमें भी भूल हो जाती है; इसीलिये इस दुर्गम कूपमें गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं; अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ || ६८ ।। इत्येवं तेनाभिष्टतावश्वचिनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एब ते5पूपो5शानैनमिति ॥। ६९ || इस प्रकार उपमन्युके स्तवन करनेपर दोनों अश्विनीकुमार वहाँ आये और उससे बोले --'उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खानेके लिये पूआ है, इसे खा लो' ।। ६९ || स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्ती न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे गुरवेडनिवेद्येति ॥। ७० ।। उनके ऐसा कहनेपर उपमन्यु बोला--'भगवन्! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरुजीको निवेदन किये बिना इस पूएको अपने उपयोगमें नहीं ला सकता” || ७० ।। ततस्तमश्रिनावूचतु:--आवाभ्यां पुरस्ताद् भवत उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टृता भ्यामपूपो दत्त उपयुक्त: स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति ।। ७१ ।।
तब दोनों अश्विनीकुमार बोले--“वत्स! पहले तुम्हारे उपाध्यायने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हमने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरुजीको निवेदन किये बिना ही काममें ले लिया था। तुम्हारे उपाध्यायने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करो” || ७१ ।।
स एवमुक्तः प्रत्युवाच--एतत् प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेडहमनिवेद्य गुरवे5पूपमुपयोक्तुमिति ॥। ७२ ।।
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उत्तर दिया--'इसके लिये तो आप दोनों अश्विनीकुमारोंकी मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ। गुरुजीके निवेदन किये बिना मैं इस पूएको नहीं खा सकता” ।। ७२ ।।
तमश्विनावाहतु: प्रीतो स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा दन्ता भवतोडपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्ष॒ भविष्यसीति श्रेयक्षावाप्स्पसीति ।। ७३ ।।
तब अश्विनीकुमार उससे बोले, “तुम्हारी इस गुरु-भक्तिसे हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्यायके दाँत काले लोहेके समान हैं। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायाँगे। तुम्हारी आँखें भी ठीक हो जायँगी और तुम कल्याणके भागी भी होओगे” ।। ७३ ।।
स एवमुक्तोउश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत् ।। ७४ ।।
अश्विनीकुमारोंक ऐसा कहनेपर उपमन्युको आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्यायके समीप आकर उन्हें प्रणाम किया ।। ७४ ।।
आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान् बभूव || ७५ ।।
तथा सब बातें गुरुजीसे कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए || ७५ ।।
आह चैन यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोडवाप्स्यसि || ७६ ।।
और उससे बोले--'जैसा अभश्विनीकुमारोंने कहा है, उसी प्रकार तुम कल्याणके भागी होओगे ।। ७६ ।।
सर्वे च ते वेदा: प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति । एषा तस्यापि परीक्षोपमन्यो: ।। ७७ ।।
“तुम्हारी बुद्धिमें सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।” इस प्रकार यह उपमन्युकी परीक्षा बतायी गयी ।। ७७ ।।
अथापर: शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्याय: समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्न्मम गृहे कंचित् काल॑ शुश्रूषुणा च भविततव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति ।। ७८ ।।
उन्हीं आयोदधौम्यके तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्यायने आज्ञा दी, “वत्स वेद! तुम कुछ कालतक यहाँ मेरे घरमें निवास करो। सदा शुश्रूषामें लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा” ।। ७८ ।।
स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरो 5वसदू गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्ष नियोज्यमान: शीतोष्ण क्षुत्तृष्णादुःखसह: सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरु: परितोष॑ जगाम || ७९ |।
वेद “बहुत अच्छा” कहकर गुरुके घरमें रहने लगे। उन्होंने दीर्घकालतक गुरुकी सेवा की। गुरुजी उन्हें बैलकी तरह सदा भारी बोझ ढोनेमें लगाये रखते थे और वेद सरदी-गरमी तथा भूख-प्यासका कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओंमें गुरुके अनुकूल ही रहते थे। इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरुजी उनपर पूर्णतः संतुष्ट हुए || ७९ ।।
तत्परितोषाच्च श्रेय: सर्वज्ञतां चावाप | एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य ॥। ८० ।।
गुरुके संतोषसे वेदने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली। इस प्रकार यह वेदकी परीक्षाका वृत्तान्त कहा गया ।। ८० ।।
स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद् गुरुकुलवासाद गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत । तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रय: शिष्या बभूवु: स शिष्यान् न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतां गुरुशुश्रूषा चेति । दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान् परिक्लेशेन योजयितुं नेयेष ।। ८१ ।।
तदनन्तर उपाध्यायकी आज्ञा होनेपर वेद समावर्तन-संस्कारके पश्चात् स्नातक होकर गुरुगहसे लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया। अपने घरमें निवास करते समय आचार्य वेदके पास तीन शिष्य रहते थे, किंतु वे “काम करो अथवा गुरुसेवामें लगे रहो” इत्यादि रूपसे किसी प्रकारका आदेश अपने शिष्योंको नहीं देते थे; क्योंकि गुरुके घरमें रहनेपर छात्रोंको जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उससे वे परिचित थे। इसलिये उनके मनमें अपने शिष्योंको क्लेशदायक कार्यमें लगानेकी कभी इच्छा नहीं होती थी ।। ८१ ।।
अथ कम्मिंश्वित् काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजय: पौष्यश्न क्षत्रियावुपेत्य वरयित्वोपाध्यायं चक्रतु:ः ॥ ८२ ॥ स कदाचिद् याज्यकार्येणाभिप्रस्थित उत्तड़कनामानं शिष्यं नियोजयामास ।। ८३ ॥| भो यत् किंचिदस्मदगृहे परिहीयते तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योत्तड़क॑ वेद: प्रवासं जगाम || ८४ ।।
एक समयकी बात है--ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेदके पास आकर “जनमेजय और पौष्य' नामवाले दो क्षत्रियोंने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेदने यजमानके कार्यसे बाहर जानेके लिये उद्यत हो उत्तंक नामवाले शिष्यको अग्निहोत्र आदिके कार्यमें नियुक्त किया और कहा--“वत्स उत्तंक! मेरे घरमें मेरे बिना जिस किसी वस्तुकी कमी हो जाय, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।' उत्तंकको ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये || ८२--८४ ।।
अथोत्तड़्क: शुश्रूषुर्गुकुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति सम । स तत्र वसमान उपाध्यायस्त्रीभि: सहिताभिराहूयोक्त: ।। ८५ ।।
उत्तंक गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए सेवापरायण हो गुरुके घरमें रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्यायके आश्रयमें रहनेवाली सब स्त्रियोंने मिलकर बुलाया और कहा -- ८५ ॥।।
उपाध्यायानी ते ऋतुमती, उपाध्यायश्न प्रोषितो5स्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवति तथा क्रियतामेषा विषीदतीति ।। ८६ ।।
तुम्हारी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो; इसके लिये गुरुपत्नी बड़ी चिन्तामें पड़ी हैं || ८६ ।।
एवमुक्तस्ता: स्त्रिय: प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्य करणीयम् । न हाहमुपाध्यायेन संदिष्टोडकार्यमपि त्वया कार्यमिति ॥। ८७ ।।
यह सुनकर उत्तंकने उत्तर दिया--'मैं स्त्रियोंक कहनेसे यह न करनेयोग्य निन्द्य कर्म नहीं कर सकता। उपाध्यायने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि “तुम न करनेयोग्य कार्य भी कर डालना” ||