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_ “पुराण सवंशास्त्रणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृतस्‌?

श्रीमन्महषिकृष्णद्वैपायनविरचितम्‌

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एकादशपुष्पम्‌ बह्पुराणम्‌ धह >

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a श्री गणेशाय नम;

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प्रथमो भागः

श्रीनाथादि शुरुत्रयं गणपति पीठत्रयम्भैरघम 3 सिद्धौघं चडुकत्रयस्पदयुगं दूतीक्रम मण्डलम्‌ | 4 वीरान्द्रयष्ट चतुष्कषष्टि नघक वीराघलीपञ्चकम्‌ ,

श्रीमन्मालिनिमन्त्रराजसहितं चन्दे गुरोमेण्डलम्‌

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Gurumandal Series No. XI.

THE Brahma Puranam

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By MAHARSHI KRISHNADWAIPAYAN VYAS

VOLUME 1.

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Vikram Era First Edition Christian Era . 2010 5000 | 1954

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आचायं करुणामय सरस्वती

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श्रीः सादरं समपणम्‌

Yaar गुरुचिष्णुगुरुदेंघो महेश्वरः | शुरु: MARR ब्रह्म तस्मे श्रीगुरवेनमः श्रीमतां पदचाक्यप्रमाणपाराचारीणधुरीणानां घिघिधविद्या- प्रन्थप्रणयनचणानां प्राच्यप्रतीच्ययहुशास्त्रचिचक्षणानां शास्त्र- जीचनानां निखिलानवद्यगुणगणालंकृतानां समस्तभूमण्डलनिग्रह- स्यानीकृतप्रतिपक्षजन्मनाम्‌ ध्मेधुर न्धराणां जगदस्बाप्रसादालव्ध- विश्वचिश्ुतबैदुष्यञ्जुषाम्‌ विद्वद्वौरेयाणां सवेतन्त्रस्चतन्त्राणां श्री६ शुरु्चरणानां सरस्वत्यपराचताराणां दुस्तरचिद्यार्णषसमुत्तरण- प्रकरीइतमहाघीरपराक्रमाणां शिष्यानुग्रहकाङ्क्षया प्रत्यक्षः शिघाचताराणाम्‌ करुणावरुणालयानां agarda चिद्वन्मण्डळ- मण्डनानाम्‌ घिक्रमपुरान्तर्गतरोलचासाइल ग्रामघास्तव्यानां प्रात:स्मरणीयपुण्यश्लोकचिद्याळङ्कारोपाधिकचामाचरणात्मजानां

तनभवता आचायग्रवराणां श्री करुणामयसरस्वतीम हाभागानां करकमलयोमिलिन्दायतताम्‌ गुरुमण्डर द्वादशपुष्पं

si Ber ह्यपुराणमिदम्‌ साद्रम्‌

किञ्चिन्नूतन घस्तु दातुं निष्ठाऽस्ति मामिका त्राह्ममेतद्धि भगघन्नपितं प्रीतयेमुदा इति

कलिकाता थ्री श्रीगुरुचरणेक शरणस्य

शिवरात्रित्रतम मनसुखरायमोरस्य

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श्री गणेशाय. नम; `

पुराण विद्या मानवीय जिज्ञासा की उत्कर पिपासा को गवेषणा द्वारा शान्त किया जाता है | ` गवेषणा का आधार है प्राचीन साहित्य, प्राचीन निर्माण तथा पुरातत्त्व सफळ जिज्ञासा से देश एवं जाति की प्रायः सब समस्याओं का सुलभ और उपयोगी समाधान हो जाता है। गवेषणा से ही वेदादि सच्छाञ्ज तथा कालोपयोगी वैज्ञानिक सिद्धियाँ प्रकाशित और saaga हुई हैं प्रखर क्रान्ति कारी जीवन का उद्गम गवेषणा है, तत्वानुसन्धान, तत्त्वचिनिमय एवं तत्त्व विश्लेषण से कितनी गूढ़ और agad कार्योपयोगो शक्तियों का आदान-प्रदान व्यवहार में रहा है

| यह सब गवेषणा का ही फळ है

| भारतीय गवेषणा के स्रोत पुराण ग्रन्थ हें। NR आध्या- kas, आधिदेषिक और आधिभौतिक, देव, मानुषी, आसुरी ' तथा चैतन्य एवं जड़ सब प्रकार की गवेषणा का सूक्ष्मरूप से ' विधान है। ब्राह्मण भाग और आरण्य भाग में विशेषतः आधि- | देविक एवं अधियज्ञ की गवेषणा प्रधानतया दिखाई देती हे पुराणों में सब प्रकार की बौद्धिक, व्यावहारिक, नैतिक, एवं ' सांस्कृतिक गवेषणाओं को इतिहास और कथानक के स्वरूप में

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आकर्षक और वुद्धिगस्य साहित्य में श्री वेदव्यासजी ने विस्तृत किया है। इसमें केवल स्मृति शास्त्रासिप्रेत, आचार, व्यवहार | प्रायश्चित्तादि दैनिक क्रियाओं की गवेषणा सात्र है, अपितु मनुष्य | जीवनोपयोगी महतो -भावनाओं का विस्तृत विधान है। भार- तोय ज्ञान गाथा में वेद वेदार्थ का ज्ञान प्राप्त. करने में मनुष्या | रूपी रासायनिक निधिकी प्राप्ति बताई गई है “इतिहासपुराणाम्यां | वेदं aga हयेत” महाभारतादि इतिहास तथा अष्टादश पुराणां | को समझने से वेद की निधि प्राप्त हो सकती है | | बिना पुराण ग्रन्थों के अध्ययन से तथा निरुकादि. शास्त्रों के जानने से वेदार्थं का यथार्थ ज्ञान एवं मानव जिज्ञासा, पूत्ति असम्भव di तपस्वी कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजी . ने उत्तर मीमांसा ब्रह्मसूत्र में चेद्‌ प्रतिपाद्य अध्यात्म- | निष्ठा से त्रिविध सन्ताप से मुक्त होने का सरळ उपाय ज्ञाननिष्ठा का प्रतिपादन किया है तथापि ज्ञाननिष्ठा का परिपाक और स्थितप्रज्ञ भूमि का साधन पुराण पाठो का अध्ययन बताया है। . प्रत्येक साधन को बुद्धि में सरलता पूवेक इतिहास कथानक ही i छा सकते हें यजुर्वेद सें “ईशाचास्यमिद्‌ सवं anna जगत्‌ तेन त्यक्ते भुञ्जीथा मा ग्रधःकस्य स्विद्धनम्‌” मचुष्यता के विकास का पूरा साधन इस मन्त्रमे आया है परन्तु केवळ मन्त्र पाठ.और उसके अर्थ ज्ञानमात्र से ही.जीचन में उस भावना का. . अश्वुण्ण सञ्चार होना कठिन है अतः. पुराणों में जो सत्य़ निष्ठा, त्याग-निष्ठा, अद्वोह-निष्ठा.के इतिहास altar शंखलिखित d

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च्यवन आदि के उत्त इतिहासो से मनन करते हुए .रीमाञ्चकारो क्रान्ति ad अश्रश्वारा. पात. से जीवन . में सत्य एवं करूणा कां रासायनिक .सञ्चार तत्काल होने लगता है। अतः वेदों में “ada धर्मञ्चर”. आदि वेद्‌ वाक्य . बोधित अर्था का इतिहास कथानक .के रूप में चारु और ग्राह्य प्रयास . वेदव्यासजी ने पुराण श्रन्थों में किया है |

मानवीय ऐहिक, एवं. पारमार्थिक जिज्ञासाओं की सफलता रूपी कल्प पादप अष्टादश पुराण व्याखजी के द्वारा प्रकट हुए हैं

यद्यपि पौराणिक शेली प्रधानतया त्रैगुण्य रचना और प्रकृति को विकाशक हैं और प्रत्येक पुराण में गुणत्रय और गुणा- तोत संसार ओर अःयक्त ब्रह्म का प्रतिपादन और उस प्रतिपाद्य की पासि के विधान हें तथापि कोई पुराण प्रधानतया सात्विक और कोई राजसिक एवं कोई तामसिक होनेसे होते हैं नचशक्त्यात्मक ओर नचशिवात्मक होने से अठारह संख्या होती है aga सख्या नो ही है। .परन्तु तन्त्र शास्त्र में शिवशक्त्यात्मक योग से 8 सख्या अष्टादश हो जाती हे .

इसी सिद्धान्त पर अष्टादश पुराण, अष्टादश प्रधान EHRT, अठारह'पवे, अष्टादश गीता के अध्याय आदि होते.. हैं ˆ अठारह पुराणों को गणना इस प्रकार है|. . . . .... 1... |; :

ब्रह्म, पद्य, विष्णु, वप्यु, भागवत, भविष्य, नारद: मार्कण्डेय,

` ब्रह्मवेवते,...अश्ि, लिङ्ग, घराह,.वामन, मत्स्य, कूर्मः स्कन्द; गरूड

ओर ब्रह्माण्ड | हा an Br FE 177 BNI EY 6५२४

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निरुक्त में पुराण शब्द का निर्वेचन इस प्रकार आया 2 IG | “पुरा नवं भवति” जिसकी नवद्युति सबसे प्रथम प्रगट. हुई चह | | पुराण है। इसलिये भगवान्‌ को भी. पुराणपुरुष कहते हैं। . ' पुराण का अर्थ जीणे नहीं है अपितु आदि दिका का है। गीता.

| में भगवान्‌ की प्रार्थना में आया है “कवि पुराणसशुशासितार'

भगवान्‌ क्रान्तदशों तथा पुराण होने से सबके agak हैं अतः | पुराण शब्द से आदि साहित्य का तात्पर्य हे! आदि साहित्य : बह है जिसमें आदिदेव आत्मज्ञान का प्रवोध हो इस आदि विद्या | को मानव जागृति के हेतु एवं जगत्कल्याणाथे बेद्व्यासजी ने इस. ' प्रकार प्रस्तुत किय़ा हे-- | “सांश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि वंशानुचरितञ्चेच पुराणं पञ्चलक्षणम्‌ ॥” | प्रधानतया पञ्चळक्षणों को लेकर धमे, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुवेगों का पुराणों में बड़ी प्रभाचपूर्ण शेळी में इतिहासः कथाओं को लेकर मानच संसार के ज्ञान प्रसारार्थ विश्व में | चिस्तार किया है। जितना सरळ्तासे पुराणोंके द्वारा agit सिद्धि | का साधन मिलेगा उतना अन्यत्र नहीं व्यासज्ञी ने अष्टादश | पुराणों में इतना महान्‌ साहित्य और चिज्ञान,. कला, योग तथा

|

तपस्या सदका सार परोपकार अर्थात्‌ सब जीवमात्र पर दया | और मैत्री करुणा करना पुण्य कहा है दूसरों को पीड़ा देना पाप | है। यह पाप पुण्य की परिभाषा मानव प्रगति को कितने सुचारु | रूप से जीषनचर्या का आधार बनाने के लिये आदेश करती है |

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और मनुष्यता का कितना सुन्दर मौलिक आचरण वता रहो है। अएाद्श पुराणानां व्यासस्य वचनद्वयम्‌। परोपकारः पुण्याय पापाय परपोंडनम्‌ पुराणोंमें सत्य की गवेषणा पर महाराज सत्यचादी हरिश्चन्द्र के कथानक से ज्ञात हो जायगा कि हरिश्चन्द्र जैसे सत्यत्रत आदशे राजा ने सत्य की खोज में कितना मूल्य लगाया है। खुकन्या ने देवियों की दृढ़ निष्ठा से:अपनी निष्ठा और सत्य से 'किस अलौकिक चमत्कार की सिद्धि प्राप्त की है यह आप लोगों से छिपा नहीं है। भगवान्‌ रामचन्द्र की जीवन चर्चा में उनके चरित्र की विशेषता और मर्यादा की गवेषणा की कैसी हृदय- आही शिक्षा बताई है देखिये-जनमत के सामने कुक कर उन्होंने अपनी ध्मेपल्ली खती सीता को छोड़ दिया पैतृक अनुशासन और आज्ञा का आदर्श स्थिर करने के लिये राज्य तक का त्यांग किया एवं दुराचार शमन के लिये एक अधितन्त्रचादी अधि-

A नायकका विध्वंस किया जो आदशे श्रीराम के चरित्र में है जिस

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उच्च भूमिका पर समाज के जीवन का नेतिक, सामाजिक, चारित्रिक, धामिक, व्यावहारिक, आध्यात्मिक और आधिभो तिक

रूप में स्तर प्रतिष्ठित करने:का अद्वितीय लक्ष्य है वह संसार

की किसी भी सभ्यता में दिखलाई नहीं पड़ता रामराज्य के शासनिक विवरण को वेदव्यासजी ने. इस प्रकार दिया है :- पुत्र मरणंकेचिद्रामे राज्यं प्रशासति ।”

इसे ही रामायण में महषि वाल्मीकि ने इस प्रकार कहा है:--

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a पुत्रमरणं केचिदुद्रक्ष्यस्ति पुरुषाःकचित्‌। ¦ ` . 4

नार्यश्चाचिधवा नित्यं भविष्यन्ति पतित्रताः

राम के राज्य में किसी प्रकार का उपद्रव नहीं होता था। |

पुण्य शासन का यही आदरे है संसार के शासन का राम के | शासन के अतिरिक्त क्या और दूखरा. उदाहरण . कहीं मिल

सकेगा ?

मार्कण्डेय के चरित्र से Ang की गवेषणा एवं दिलीप और ' कोत्स के विनयाथिकार की खोज से विद्या का चमत्कार और आदि | 'मानवीय उच्च नीच भावनाओं की अनुकरणीय गाथाओं से अनेक ' शुरु शिष्य का सम्बन्ध तथा अनुशासनमय जीवनकी घटनाओंकी ' गवेषणा पुराण साहित्य से प्राप्त होती है। इसी प्रकार | मानच जीवन को उदात्त बनाने चाली चारित्य और पुरुषार्थ की | गवेषणा पुराण अन्थों से प्राप्य है इतना ही नहीं, आध्यात्मिक | ओर आधिदेचिक गवेषणा के अतिरिक्त आधिभौतिकचाद और : आधिमोतिक सिद्धान्त अणुशक्ति की गवेषणा की भी प्रचुर ||

सामग्री पुराण ग्रन्थों में है |

पुराण ग्रन्थों से अणुशक्ति का ज्ञान पराप्त कर वेशेषिक दर्शन- |

कार कणाद ने आकारा में निश्चेष्ट परमाण के परस्पर सम्मिश्रण

से सप्त पदार्थों को रचना को मीमांसा का प्रशिक्षण बताया है। | इस समय अणुगवेषणा पर भौतिक अनुसन्धान के विशेषज्ञो ने ' संहारक अण॒ शक्ति का पता लगाया है परन्तु प्रजनन और पालन

अणुशक्ति.का अभी उनको ज्ञान नहीं है.। वह. .विज्ञान ` संस्कृत

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साहित्य में मिळता है।: . इस पर ध्यान देकर यन्त्रों द्वारा अनुः सान्धानकर प्रत्यक्षीकरण किया जाय तो संसार का महान्‌ -उप- कार होगा! जेसे, “तनीयांसं पांसु तव चरणपङ्क रुह भवम्‌ , विरञ्चि | चिन्वन्‌ विरचयति लोकानचिकलम्‌ -घहत्येनं शौरिः कथमपि aaa शिरसां, 'हरः संश्चुम्येनं भजति भसितोद्धळनचिधिम्‌ (Meri)

अर्थात्‌ शक्ति जिसे भगवती या महाशक्ति के नाम से सस्कृत साहित्यमें कहा गया है उस आकाशा. रूपिणी अव्यक्त शक्ति से अणुवृष्टि हुई उन अणुओं में से सजेनात्मक अणुओं को संचित कर संसार को रचना की गई इसे ब्राह्मी अणुशक्ति कहा है। दूसरे प्रकार के अणुआंको गवेषणा द्वारा संचित कर वैष्णव अणुसे संसार की पालनात्मक सामग्री यनी है। संहारात्मक अणु ( विस्फोटक पदार्थ) एकत्र कर रोद्र अणुओ के पिण्डीकरण | i _ से संसार के विनाश को शक्ति बनी है। इस क्रम से ब्राह्मी, 1 वैष्णवी, और रौद्र अणुशक्ति-ये तीन प्रकार के. अणु “बताये गये हैं इस गवेषणाको यदि वर्तमान अणु परीक्षण समिति आधुनिक साधनों से गम्भीर परीक्षण का प्रयत्न करेतो चतेमान

काल भी पुराण काळ के सहूश वेज्ञानिक महत्त्व को प्राप्त कर सकता है

पुराणों. में सिद्धपीठ स्थळी, भूमण्डलके विभाग, पुण्यसरिता महानद, सरोवर,भूगर्भवाहिनी नाड़ियां,मरुस्थली और शस्यश्यासकु भूभाग. आदिका..चणेन दिया. है, जिनसे प्रचुर मात्रा में ब्राह्मी,

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वेष्णवी और रोद्री आणवी शक्ति के विषय में अबुसन्धान सफल हो सकते हैं।- स्कन्द पुराण में एक राजकन्या वकरी नामकी | आई है जिसने शारीरिक निर्माण के कारणों का ज्ञान प्राप्त कर | अपने मुखमण्डल को वेज्ञानिक प्रक्रियाओं दारा करी सुख से | इसी देह में सुन्दर सुखमण्डल के रूप में चदूछ दिया और aa | विधुवदना बन गई। इसके आठ साई और एक बहिनि थी उस |

राजा ने समस्त देश नव विभागा में विभाजित कर प्रत्येक को एक एक खण्ड दिया था तव से नवखण्ड and भारतवषे की ख्याति हुई उन पृथक्‌ पृथक्‌ खण्डों में अनेक प्रकार के भूगभे

गत धातुओं का वर्णन है प्राणों में केवळ भमि की ही गवेषणा |

नहीं है अपितु आकाशचारी ग्रह नक्षत्रों की दूरी और उनकी

गति, शिशुमार चक्र, झुवस्थान आदि तथा उत्तरायण, दक्षिणायन | ऋतु और:मास विज्ञान भी पर्याप्त मात्रा में है इसलिए पराण |

ग्रन्थ भारतवर्ष की चड़ी निधि है। गुर्मण्डळ के सरक्षक मनसुखराय झोरजी ने स्मरति एवं

निरुक्त का तथा पराण ग्रथों का स्वयं अध्ययन कर माचच जीवन '

|

|

की निधि जानकर गुरुमण्डल के प्रकाशन ग्रन्थों में पराण .

प्रकाशन का काये तन, मन, घनसे प्रारम्भ कर दिया है। मोरजी आजकल समाचार पत्रों में हिन्दी और संस्कत के लेख पढने

से ज्ञात होता है कि उनकी उत्तरोत्तर विद्या प्रकाशन को प्रगति अहनिश तीव्र भावना में है

श्री मोरजी ने मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण और लिङ्ग पुराणको

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अनन कर कितनी ही अज्ञात समस्याओं का सुचारु रूप से समाधान कर दिया है। मत्स्य पुराण से श्राद्ध कमे(अ० १६)का यथाथे ज्ञान अर्थात्‌ शतात्मा जिस योनि में हो पुत्रों से शास्त्र विहित श्राद्वान्ञ उसे उस योनि की तृप्ति के पदार्थ में परिणत होकर मिळता है। अशि पुराण और लिङ्ग पुराण से तो उन्होंने aga हित का बहुत साहित्य एकत्रित किया है। पुराण प्रका- शन में उन्होंने सबसे प्रथम उत्पत्ति थिति संहार इस क्रम के अनुसार उत्पत्ति प्राधान्य ब्रह्मपुराण का प्रकाशन अग्रिम रक्खा है। संस्कृत साहित्य में आप देखेंगे प्रथम उत्पत्ति प्रकरण तब स्थिति अनन्तर लय आदि कचि वाद्मीकि के योगवासिष में यही क्रम आया है? | त्रह्मपुराण में-सृष्टि क्रम से लेकर वंश वर्णन, कतेव्य चर्णन और ती्थंघर्णन अध्यात्मनिष्ठा आई है। मोरजी ने अपनी भूमिका में अति सुन्दरता से पुराण मीमांसा का चर्णन किया है। È शुरुमण्डळ दीन ढुबेल दुःखी जनता के सुख सस्द्धि के लिए यथासाध्य कृत प्रयत्न है | इस मण्डल का प्रथम पुष्प श्रमजीघन होने से विचारचती जनता समझ सकती है कि सबसे प्रथम श्रमजीवी कृषक कुलियों की स्थिति पर विचार करना भारत का आदशे कार्यक्रम सृष्टि के प्रारम्भ से चलता रहा है श्रमजीचियों की तथा दीनदुःखियों की स्थिति को ठीक कर देना भारतीय अमे परम्परा से चला आया है यहाँ से ही भूमण्डल के अन्यान्य देशों ने श्रमजीचियों से अन्याय करने का मार्ग त्याग देना सोखा

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( १० ) '

है.। यथा “कामये दुःखतप्तानास्पाणिनामात्ति नाशनम्‌” (महाभारत), | यह भारत का घर्मे एवं पुराणों की शिक्षा है। हम प्राणी मात्र को" ' आशीर्वाद देते हैं किइन पुराणों के अध्ययन . से आप में दूसरी जनता के हित के भाच देनन्दिन uns होकर संसार मात्र के मित्र. aea विश्वस्त होने के पात्र चने र्जी

पं० agaa शास्त्री UHO Ko जो शुरुप्रण्ह्छ के शास्त्र प्रका- शन में श्रो मोरजो के आमन्त्रण पर कार्य कर रहे हैं। पण्डित जी गुरुमण्डल के बड़े धन्यवाद पात्र है हम इन्हें 'आशोवांद. देते हैं इनके अक्षुण्ण परिश्रम से जो प्रकाशन कार्य तीत गति से हो रहा है यह कार्य संसार की शान्ति, सुख एवं परस्पर सद्भावना का दृढ स्तम्भ बना रहे |

गीता जयन्तो | हरिदत्त शास्त्री .

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श्रोगणेशायनमः

पुराण परिचय

संसार के. प्राणी मात्र इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के लिए दिन रात प्रयलशील Fl “इष्रप्राप्त्यनिएप रिहारयो- रलोकिकमुपायं यो ` वेदयति वेदः” इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट परिहार का जो अलौकिक उपाय बताता है वह ही वेद है। जो व्यक्ति ज्ञान उपाजेन से संसार की सम्पूर्ण कठिनाइयों को अपनी विमल वुद्धि द्वारा निविश्नता पूवेक सरल करते जाते हें चे पुरुषार्थो और सफलजन्मा हैं। गंगाजल की सदा वहने वाली : थारा के समान उनके पवित्र ज्ञान की वाणी संसार के प्राणी मात्र का उद्धार करतो है। ज्ञानका क्षेत्र चिमळ, व्यापक और अखण्ड है। ज्ञान, इच्छा एवं _ प्रयत्न की त्रिपुटीसे सत्सस्कार एवं सत्फळ मिलते हें जो वास्तवमै गोरव की वस्तु हैं ज्ञानी वास्तव में धन्य है “विप्राणां ज्ञानतो- ज्यैष्ख्यम्‌” (ago २११५) चे लोक संग्रह को भावना से कर्तव्य कर श्रेयः साधन के ज्वलन्त उदाहरण बनते हें उन्हें सुख दुःख से पूर्ण इस संसार में ज्ञान रूपी खड्ग से अज्ञान एवं दुःख का नाश कर सदेव सुख. प्राप्ति और आत्म लाभ का सतोप मिलता èI

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( १२ )

प्राचीन भारतीय परस्परा में निष्कारण वेद एवं चेदाड़ः का. अध्ययन अवश्य कतंव्यत्वेन बताया गया है “त्राह्मणेन निष्कारणो- ` a: षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च” ( महाभाष्य नवान्हिक)। | भगवान्‌ वेद्‌ इस आज्ञा के द्वारा निष्कारण seg वेदाध्ययन | को कर्तव्य कहते हैं हमारे जीवन फे श्वास प्रश्यास के साथ | मिलो हुई इख निधि का खम्यग्द्शेन पुराण साहित्य सें सुन्दरता | से प्रतिपादित है। | भारतीय जीवन से प्रेरणा छेनी हो तो भारतीयों के प्राण- स्वरूप श्रुतिस्मृति के शीषे स्थानीय पुराणों से ळेनी aral अळौकिकपुराण साहित्य सम्पूर्ण ज्ञान का भण्डार है। चौदह विद्याथानो में महर्षि याज्ञवदक्य ने इन्हें प्रथम स्थान दिया | है : देखिये याज्ञवल्क्य स्खु० प्रथ० अ०। पुराणन्यायमीमांलाः | धर्मेशास्त्रांगमिश्चिताः। वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्यच | चतुदेश श्लो० | | मानव जीवन का लक्ष्य परमात्मप्राति है अपने जीवन में | निष्काम कमे द्वारा त्याग वृत्ति को ग्रहण कर स्वमार्गप्रशस्ति | का सुछम साधन पुराण हें ये सर्ववेदमय सम्पूर्ण साधन, योग क्रिया सिद्धियाँ तन्त्र, मन्त्र एवं कल्याण सिद्धान्तो से परिपूणे हैं| सम्पूर्ण शास्त्रों में पुराण साहित्य की गरिमा और प्राचीनता “पुराणं सर्वेशाम्त्राणां प्रथमं त्रह्मणास्सृतम्‌ |. उत्तमं सरवेछोकानां सर्वेज्ञानोपपादकम

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( १३ )

तरिवगे साधनं पुण्यं. शतको रिप्रचिस्तरम्‌ ( पद्मपुराण प्रथमाध्याय ) भावार्थ :--सम्पूर्ण शास्त्रों में सर्वप्रथम पुराणको ब्रह्माजी ने स्मरण किया यह सब छोकों में उत्तम, सम्पूर्ण ज्ञान का बताने- चाळा धर्म, अथ, काम का साधन, परम पुण्यमय और शतकोरि दिस्तारवाला है ( पुराणों से प्रेरणा लेकर अनेकानेक महर्पियों ने नाना शास्त्र, af, तन्त्र, उपपुराण, ज्योतिष, मीमांसा, म्थायद्शेन, आयुर्वेद और इतिहास आदि एवं साहित्य स्रष्ठाओं ने अगणित विषयों के ग्रन्थों की रचना की अतः नाना शाखा प्रशाखामेद्‌ से शतकोटि विस्तारवाले पुराण हैं ) | इतिहासपुराणञ्च॒ गाथाश्चोपनिषत्तथा | आथवेणानि कर्माणि अझिहोत्रक्षतेऽभचन्‌॥ ( go y इतिहास, पुराण, नाराशंसी आदि गाथा उपनिषदु और

, आथवेणिक कर्म aa करनेचालो के लिये हुए |

. पुराणों के सम्बन्ध में और भी बचन उपलब्ध होते हैं :-- ऋचः सामानि छन्दांसि पुराणं AIN सह | उच्छिशज्ञ ज्ञिरे सवं दिचि देवादिषश्‍चिता:

| ( अथववेद्‌ ११७२४ ) भाष्यम्‌ :--ऋऋचः पादवद्धा मन्त्राः सामानि गीत विशिष्टा मन्त्राः

छन्दांसि गायच्युष्णिगादीनि चतुरक्षराधिकानि सससङ्क्याकानि.

पुराण पुरातनव्॒त्तान्तकथनरूपमाख्यानम्‌ यज्जुषा यजुमन्त्रेण सह उच्छिष्टात्‌-उच्छिष्यमाणात्‌ ब्रह्मणः सकाशात्‌ IR arfa: | RPT ir es -

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(.१४ )

यज्ञ से यजुर्वेद के साथ an, साम, छन्द और पुराण हुए। | 'खुगोपनोयस्वेदेषु पुराणंषु . ढुर्लेसम्‌- रह्म वे० अध्याय ) | 'बैदों में सुगोपनीय और पुराणों में दुर्लभतत्त्व हैं | ` चेदेष पुराणेषु हरिः सर्वत्र गीयते। (aao) ` | Aci और पुराणों में भगवान इरि कीं प्रशास्ति सवेत्र गाई | गई है इस से स्पष्ट है कि वेद और पुराणीं का तादात्म्य है। | शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण है :-- | यथाट्रैंघाग्नेरस्याहितात्पृथग्‌ धूमा चिनिश्जरन्त्येव वा. अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्वग्वैदो यजुर्वेद: सामवेदो- | ब्थर्वाङ्किरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः शोकाः सूत्राण्यतु | व्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्येवेतानि सर्वाणि निःश्वसितानि ( बृहदारण्यक उपनिषद्‌ २।४।१०)

यथाऽप्रयत्नेनेच पुरुष निःश्वासो ..भवत्येवमेव Naa “इचास के रूप में भगचत्स्चरूप. प्रतिपादन चिरार Aasaa 'पुराणों की विशेषता है यही पुराण और वेदों की एकवाक्यता है। |

शतपथ ब्राह्मण. १३ अ० ४।३।६ में पुराणं वेदः सोऽयमिति | «क्रिञ्चित्पुराणमाचक्षोतेचमेवाध्वर्य्‌ः” कह कर वेद्‌ ही पुराण है. यह प्रतिपादित, है आश्व ळायन गृह्यसूत्र में पुराणों का स्वाध्याय अवश्य कतव्यत्वेन निरूपण किया है। . | आशान्तरात्रादायुष्पतां कथाः कीतेयन्तो माडुल्यानी तिहास पुराणानीत्याख्यापयमानस्तं ग्रहणम्‌ |” ४।६।

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' ( १५ ) agar nang से उसे. स्पष्ट किया है :--: स्वाध्य्यं श्रावयेत्‌ पिच्ये धर्मशास्त्राणि चेचहि आख्यानानी तिहासांश्च .. पुराणानिखिलानिच rak | _ अध्याय--२३२ पिड्युद्देश्यक स्वाध्याय कर धर्मशास्त्र, पुराण, इतिहास ऑर.सम्पूणे आख्यानों को इस अवसरः पर सुनाओ | पुराणों 'का कथन वेद्‌ के समान ही अप्रतक्य है :-- पुराणो . मानवोधर्मः ` साङ्गोषेद्‌श्चिकित्सक्कः | आद्याः सिद्धानि चत्वारि कर्तव्यानि हेतुभिः व्रह्मोक्तयाज्ञयस्क्य संहिता १--४७ | | पुराण, मानव (धम, साङ्ग वेद, चिकित्सा शास्त्र ये आदि काळ 'से सिद्ध हें इन्हें कुतकों से दूषित नहीं करना चाहिए | ~ पुराण वेदों के समानही प्राचोन है | पुराणं सवे . शास्त्राणां . प्रथमं ब्रह्मणा THAR | अनन्तरञ्च वक्त्रेस्यो . वेदास्तस्य बि निर्गता; | मत्स्यपुराण ५३--१ ' भारतीय संस्कृति के रक्षक के रूप में इनका स्वाध्याय मनन 'और उपदेशाचुसार आचरण सदा ही इष्ट फल को देनेचाला है। ` वेदाश्च सेतिहासाञ्च पुराणा देवतागणा: | धरा: खागराः सर्वे पूजनीयाः समन्ततः पद्मपुराण,। वेद्‌, . पुराण, इतिहास, देवतागण, पर्वत और सागर उनको `सदा ही पूजा करनी चाहिये। .. | |

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( १६ ) याज्ञवल्क्य स्मृति अध्याय ४५ श्लोक में आया है :—

वाकोचाक्यं पुराणञ्च नाराशंसीश्च गाथिकाः |

इतिहासांस्तथा विद्या योऽधीते GRENSA N

|

प्रति दिन वाक्योचाक्य आपस में घार्तालाप पुराण, नाराशंसी ' गाथा, इतिहास ऑर अन्य सभी विद्याओंका यथाशक्ति स्वाध्याय ' करना चाहिये (इस से यह स्पष्ट प्रगट होता है कि प्रथम

ज्ञानार्जन में ऊहापोहमूळक वार्ताळापसे स्थिर सिद्धान्त पुराणका | प्रतिपादन होता है नाराशंसी गाथा, यज्ञयिधान, इतिहास और ' विद्याओं का तदनन्तर निरूपण है जो भारतीय साहित्य परम्परा में अद्वितीय है ) संक्षेप में पुराण का महत्त्व अतुरनीय है :- | इदं पुराणं परमं पुण्यं वेदेश्च सम्मितम्‌ | | नानाश्चतिसमायुक्त' नास्तिकाय कौतेयेत्‌

मत्स्य पुराण १४७-८५

यह पुराण परमपुण्यमय, .वेदार्थ युक्त, नानाश्नुतिसमवेत है, |

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इसे नास्तिक लोगो को सुनावे। | | श्रणष्वादि पुराणेषु वेदेभ्यश्च यथाश्चुतम्‌। मत्स्य २६३--१४ आदि पुराणों में और वेदों में अलौ किकतत्त् प्रतिपादित है। | इस प्रकार यह सिद्ध हो गया. कि पुराण चतुदिक्‌ प्राण हैं | थम परमपिता परमात्मा के निःश्वास भूत प्राण हे, वेदों के ये प्राण हें ।. सम्पूर्ण प्राणियों के .उद्धाराथे इनका आविमांव

हुआ इसलिये सारे प्राणियों के प्राण हैं और सम्पूणे ज्ञान का `

मन्थन रूप सार होने से उसके भी प्राण ये पुराण È |

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( १७ )

ज्ञान, कमे, अभ्यास एवं ध्यान सभीका dag बहुत महत्त्वपूर्ण दणन इनमें. हे .जीचन ,के जितने सैद्धान्तिक एवं यथार्थघादी इृष्टिक्षोण. हैं उनका पुराण विशदीकरण . कर संसार

E अहन्‌ उपकार साधन किया.है। .. |

.. जीवन की ढुचिधा कष्ट एवं दःखों को रोकने का सरल उपाय बताने घाले पुराण हैं इनसे आवालबृद्ध शद्वादि नर नारी समान रूप से लाभ उठा सकते हें। भवरोग का यह अमोघ रसायन है ।. सम्पूर्ण समस्याओं को सरळ उपाय से सुळभानेचाली यह अद्वितोय समाध्रानकारक व्रह्मराशि भगवान कृष्ण द्वैपायन mada की सहज कृपा का फळ है। संसार ताप से प्रताड़ित छोरो को सान्त्वना, अन्धकार में पड़े हुए को प्रकाश, भूले भरको को सन्मार्ग, निराश लोगों को आशा की ज्योति देने चाळे, शोक उद्धेग से पीड़ित जनों को उल्लासमय प्रसाद, Kaca विमुख को कतेव्यज्ञान, पापियों के पाप नाश का सहज साधन, राजनीति विशारदों को नोति शिक्षा, निष्काम कमियों को साधन उपदेश, भक्तों को भक्ति का मार्ग और ज्ञानियों को दिव्य मार्ग का प्रकाश ये पुराण देते हैं

.. . संक्षेप में, जो जिज्ञासु जिस उच्च लक्ष्य से इनमें अद्धा चिश्वास पूवेक मनोयोग देकर स्वाध्याय करता है घह एक चतुर गोताखोर के समान अनन्त राशि की खान समुद्र में से अमूल्य रल निकाल कर अपना उद्देशय-पूण कर लेता हे वसे ही यथेच्छज्ञान की तृप्ति ओर लोक: कल्याण-की भावना इन महापुराणां की आवृत्ति और

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( १८ )

aga शिक्षाओं के आचरण से उद्बुद्ध हो जाती है।. यदि. अतीत के गौरव को प्राण बतलाते हैं ठो adaa के निर्माण | और भविष्य को कृति के लिये उनका महत्व कम नहीं है। | सम्पूर्ण प्राणियों. को शाएवत झुख और शान्ति का वरदान देकर | विपत्तिग्रस्त, कलह छु से दुःखित, सन्देह एवं अविश्वास की | सशक्त पाश में जकडे प्राणियों को झकि सन्देश देले हैं भचरोग |

से ग्रस्त जनता के उद्धारार्थ पुराण ही एक भाग शरण È

साधना के मार्गों में ज्ञान, कमे, अक्ति ओर उनके विविध ,

सेदों के साथ कठिनता से प्राप्य ओर सुलभता से गस्य कई | लक्ष्य मेदोपमेदोंके साथ चने हैं उन.सबका निबन्धन पुराणां में है। इसके साथ ही सभी श्रेणी एवं वरग के व्यक्तियों के लिये. उनके अधिकारानुसार अलग जीवन में उतारने योग्य सन्मार्ग साधन, उनमें आने चाळे AA और उनसे छुटकारा पाने का बड़ा ही

सुन्दर और रोचक उपाय प्रतिपादित किया गया है। जीवन |

और जगत्‌ के परिपूर्ण स्वरूप की प्राप्ति अभ्युदय और निःश्रेयस. की सिद्धि को प्रापि में जीव मात्र का कल्याण साधन कर मानव आगे चढ़ कर परमात्मतत्त्व का योग्य अधिकारी कैसे बन सकता है इन सब का सुन्दर साधनों और शाश्वत चिरन्तन सत्य उप- देशों से परिपूर्ण इतिहास से युक्त विषयों का पुराणों में विशद निरूपण है पुराण में प्रतिपादित खगे, प्रति सगे, वंश, मन्घन्तर एवं वे शानुचरित इस पञ्चाङ्ग से सृष्टि में अनादि काळ से चले आते

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( १६ )

हुए अविच्छिन्न क्रम का हृदयङ्गम ज्ञानवद्धेक आख्यान उपलब्ध (et 2 | ; सर्गो.स्याथविसगञ्च वृत्तीरक्षान्तराणि वंशो `; यंशानुचरितं .संस्था हेतुरपाश्रय: | दशसिलेक्षणेयु क्त. पुराणं तद्विदो विदुः . (भागवत) ब्रह्म विष्ण्वकरुद्राणां माहात्म्यं भुवनस्य . खसहारप्रदानाञ्च पुराणे पञ्चषर्णके "धर्मश्चार्थश्च कामश्च .मोक्षश्चेचात्र adi सर्वेष्वपि . पुराणेषु तद्विरुद्धळ्च यत्फलम्‌. -सात्विकेपू पुराणेष माहात्म्यमधिकंहरे: ।. राजसेषु माहात्म्ममधिक त्रह्मणो चिडुः। . तद्वद्ग्नेश्च माहात्म्यं तामसेष ` शिघस्य | agon सरस्घत्याः पितृणाञ्च निगद्यते। ` अष्टादश पुराणानि इत्वा सत्यवतीसुतः (20 पुराण ) ATÀ :-- . सग, विसग, वृत्ति, रक्षा, अनन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था, हेतु और अपाश्रय इन दश लक्षणों से युक्त को पुराण जाननेवाले पुराण नाम से कहते हें इन सगे:विसगे आदि में ब्रह्मा विष्णु, सूर्य और. रुद्र देवता के माहात्म्य का और भुवन कोष का: अधिकल वर्णन दिया गया है धमे, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुविध पुरुषार्थों का.-निरूपण है और इन पुरुषार्थों के बाधक तत्वों का सम्यक्तया प्रतिपादन है

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( २० . )

ये पुराण सात्त्विक, राजस ओर तामख भेद से तीन प्रकार के हैं। सात्विक. में विशेष भगवान्‌ हरि का, राजस में त्रह्माजी का और तामल Yui शिव और अग्नि का माहात्म्य पर्णन है। Ra और सरस्वती का सर्वत्र ही बर्णन मिलता है) अठारह पुराणों के aa भगवान्‌ व्यासजी हैं | | पुराण मानव के ऐदिक आसुष्मिक damai साधन के सच्चे मार्गदर्शक हैं। एक ओर अदा सृष्टि की नियमावली को यथार्थ परिद्रोन करने के लिये श्रुति का अझुगसन करती हुई: सुत्रतियां हमारे लिये विधान निर्माण करतीं है तो अनादिकाल से जीवन में होती आई अपूर्णता के फलस्वरूप भूलों से भानच को बचाने के लिये पुराण सफल ज्ञानचक्षु हें। इनमें आख्यान, उपाख्यानों द्वारा मानव जाति का मार्ग प्रशस्त करने के लिये व्यासजी कॉ त्रिकाळ अबाधित सत्य की अनुभूति पूर्णज्ञान के फलित सत्य इन पुराणों से संसार का कितना, महान उपकार हुआ है यह बताने की आवश्यकता नहीं है | | सुतराम्‌, भारतीय जीवन में पुराणों का महत्त्व निविचाद है यह भगवत्निःश्वास रूप वेदों के समान ही प्राचीन तथापि. चिरनधीतं और चिरन्तन सत्य की अनुभूतियों का चरम उत्कर्ष बताने चाहे. सिद्धान्त ग्रन्थ हैं--पुरे अग्ने अनति गच्छति. इति प्राणम्‌ मानव | को मार्गे दर्शन करने के लिये आगे चलाने चाळे साहित्य का नाग पुराण अन्व है | | 1

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२१) ब्रह्माण्ड पुराण में लिखा है :— . यो विद्याच्चतुरो वेदान साङ्गोपनिंषदो ,द्विज: ` चेत्पुराणं सम्‌ विद्यान्नैव सं स्या द्विचक्षण: | यस्मात्पुराह्मनक्तीद्‌ पुराण तेन तत्स्सृतम ` निरुक्तमस्य यो वेद सर्वेपापेः प्रमुच्यते | अध्याय---१ भावार्थ :-- जो द्विज चारों वेदों को जानता है.और साङ्गोपाङ्ग बिद्याओं में पारङ्गत है यदि पुराण का उसे ज्ञान नहीं तो घह विद्वान, नहीं हो खळता। सर्वप्रथम ज्ञान का प्रकाश करने से इनकी पुराण

संज्ञा हुई इसका जो निवंचन जानते हैं वे सव पापों से छूट जाते हें

अनादि नित्य और शाश्वत होने से अनादि चिरन्तन शाश्वत तत्त्व का ही प्रतिपादन इनकी घिशेषता है सवे साधारण की चतुदिक्‌ विकसित उन्नति और आम्युदयिक निःश्रेयस साधन सम्पत्ति के ये अक्षय भण्डार हें। आप की जेसी रुचि, श्रद्धा एवं निष्ठा होगी वेली. ही रत्न निधि आपको प्राप्त होगी। ज्ञान, वेराग्य, भक्ति, प्रेम, श्रद्धा, चिश्वास, यज्ञ, दान, तप, संयम, यम, नियम, सेवा, भूतदया, वर्णधर्म, आश्रम धर्म, राज धर्म, मानवधर्म व्यक्ति धर्म, स्त्री घर्म, सदाचार और नाना श्रेणियों के पुरुषों के विभिन्न कल्याणकारी उपदेश सुन्दर सरल और उपादेय भाषा में

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( २२ )

इनमें लिखे गये हैं ` इससे ऊपर पुरुष, प्रकृति, महत्तत्व, प्रकृति.

विकृति, भूगोल, खगोल, ऋषि, सुभि. वंशों का वर्णेन, राजवंश |

तथा स्थावर जङ्गम सृष्टि का बहुत खुन्दर रीठि से सूक्ष्म विवेचन |

किया गया है! | इस आदिपुराण sagan वो

TART कर |

कमलों में उपहार प्रस्तुत करते हुए अधार amea होता है. मं

ऊपर प्रतिपादित ये सभी विषय आख्यान आये हें |

मत्स्य महापुराण की ५३ वीं अध्याय में पुराणों का परिगणन

zarge में |

करते हुए जो विवरण दिया गया है बह विशेष रूपसे प्रयोजनीय |

है अतः उसका आवश्यक अंश यहां प्रस्तुत किया जाता है :-- पुराणानि दशाष्टौ साम्प्रतं तदिहोच्यते | नामतस्तानि यक्ष्यामि शएणुध्वं मुनिसत्तमाः | ब्रह्मणाभिहितं पूर्व याघन्मात्रं मरीचये = ब्राह्मन्त्रिदश ara पुराणं परिकोत्येते | एतदेच यदापद्ममभूद्धेरण्मयं जगत्‌ | तद्वृत्तान्ताश्रयं तद्वत्‌ पाझमित्युच्यते बुधैः | पाझ तत्पञ्चपञ्चाशात्सहस्नाणीह कथ्यते | _घाराह कर्प वृत्तान्तमधिकृत्य पराशरः | : यदाह धर्मानंखिलान तद्युक्त वैष्णच स्बिदुः | ` _त्रयोविशति साहस्रं तत्प्रमाणं Kadar | श्वेतकत्प सङ्गेन धमांन्‌ वायुरिदात्रचीत्‌

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( २३ ) यत्र तद्वायचीयस्यात्‌ रुद्रमाहात्म्यसंयुतम्‌.। खतुचिशत्सहस्राणि पुराणं तविद्दोच्यते | यत्राधि कृत्य गायत्री चर्ण्यते धर्मेविस्तरः | angai तदुभागवतमुच्यते | सारस्वतस्य कटपस्य मध्ये ये स्युनरोत्तमा: | तदु वृत्तान्तोदुभवंलोके तदुभागचतमुच्यते | अष्टादश सहस्त्राणि पुराणं तत्प्रचक्षते यत्राह नारदोधर्मान्‌ वृहत्कदपाश्रयाणि पंचविशत्सहस्राणि नारदीयं तदुच्यते यत्राधिकृत्य anda धर्माघमचिचारणा | व्याख्याता चे सुनिप्रश्‍ने मुनिभिधेमेचारिभिः मार्कण्डेयेन कथितं aat चिस्तरैण तु ` पुराणं नवसाहस्रं मार्कण्डेयमिहोच्यते | यत्तदीशानक Red वृत्तान्वमधिकृत्य चं वशिष्ठायाझिना प्रोक्तमाग्नेयं तरप्रचक्षते | तच्च षोडशसाहस्रं सचेक्रतुफलप्रदम्‌ यत्राधिङृत्य माहात्म्यमादित्यस्य चतुर्मुख: | अघोरकल्पत्ृत्तान्तप्रसङ्ग जगस्स्थितम्‌ | मनवे कथयामास भूत ग्रामस्य लक्षणम्‌ चतुदश सहस्त्राणि तथा पञ्चशतानि च। | भविष्य चरितप्रायं भविष्यन्तदिह्दोच्यते | रथन्तरस्य.कल्पस्य तृत्तान्तमधिकृत्य

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( २४ ) सावणिर्नानारदाय कृष्णमाहात्म्यमुत्तमम्‌ यत्र ब्रह्म वराहस्य चोदन्तं चणितं gg: तदृष्टादश साहस ब्रह्मवेजत्तेंमुच्यते यत्राग्नि लिङ्ग मध्यस्थः घ्राहदेवो सहेश्यरः घर्मार्थकाममोश्चार्थमार्मेयभशिङ्कत्य N कल्पान्तेलेडुमित्युक्त' पुराणंत्रझणास्दयभ्‌ | तदेकादश साइख्म्‌ | महावराइस्यपुनमाहात्म्यभभिकुन्य | बिष्णुनाभिहितंक्षोण्ये तद्वाराह मिहोच्यते मानवस्य प्रसङ्गे कदपस्य सुनिसत्तमाः | चतुषिशत्सहस्जाणि ततपुराण मिहोच्यते | यत्र माहेश्वरान्धर्मानधिङत्यंच षण्मुखः | कल्पेतत्पुरुषवृत्त चरितैरूपब्र हितम्‌ स्कदंनाम पुराणञ्च ह्योकाशो तिनिगद्यते | सहर्राणिशतंञ्चेक मिंतिमर्त्येषुगद्यते | निविक्रमस्यमाहास्म्यमधिक्ृत्य चतुर्मुख: | त्रिव्गेमभ्यधात्तद्च घामनं परिकीतितम्‌। पुराणं दशसाहस्रं कूर्म कल्पानुगं शिवम्‌ यत्र धमार्थेकामानां मोक्षस्य रसातले | माहात्म्यं कथयामास कूर्मरूपी जनादेनः | इन्द्रयू प्रसङ्ग ऋषिभ्यः शक्रसन्निधौ अष्टादश सहस्ताणि लक्ष्मी करंपाचुषङ्गिकम्‌

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( २५ ) श्रुतीनां यत्र कठपादौ प्रवृत्यर्थ जनादंनः | मत्स्यरूपेण मनवे - नरसिहोपचर्णन्म्‌। ` अधिङत्यात्रचीत्सं्त कलपवृत्तं सुनीश्वराः ' तन्सात्त्यसिति जानीध्वं सहस्राणि चतुदश यदा यारुड्ेकरपे विशवाण्डाद्गरुडोद्गचम्‌। ` अधिङत्यात्रचीतकुष्णो गारुडं तदिहोच्यते तद्ष्टादशकंञ्चेच सहस्राणीहपठ्यते। . ब्रह्मा अ्रह्माण्डमाहास्यमधिकृत्यात्रबीत्पुनः | तञ्च द्वादश साहस्रं ब्रह्माण्ड द्विशाताधिकम्‌.। अविष्याणाञ्च कल्पानां श्रूयते यत्र विस्तरः लदुब्रह्माण्डपुराणञ्च ब्रह्मणा समुदाहृतम्‌ | चतुळेक्षमिदप्रोक्त व्यासेनादुत कर्मणा उपभेदान्प्रचक्ष्यामि लोके ये सस्प्रतिष्टिताः 'पाझ पुराणे तत्रोक्तं नरसिहोपचर्णनम्‌ | तच्चाष्टाद्श साहस्रं नारसिहमिहोच्यते | नन्दाया यत्र माहात्म्यं कातिकेयेन:चण्येते नन्दी पुराण तल्लोके राख्यातमितिकोत्यते | यत्र शाम्बं पुरस्कृत्य विष्येऽपिकथानकम्‌ | प्रोच्यते तत्पुनळोकि शाम्बमेतन्मुनिब्रताः |. पुरांतनस्य कटपस्य पुराणानि edar: उपरि घणित विवरण में ब्रह्म, पद्म, विष्णु, .शिव, वायु ) देवीभागवत, ( भागवत ) भविष्य, नारद, माकण्डेय

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( २६ )

ब्रह्मवैचते, अञ्नि, लिङ्ग, घराह, वामन, मत्स्य, कूर्म, स्कन्द्‌, गरुड और ब्रह्माण्ड इन अठारह पुराणों में आये हुए उनके प्रतिपाद्य ' विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन हे | महा पुराणां के सम्बन्ध में विसिछ संत हे पाठको को सेवा में घामन पुराण का एक प्रचरित इलोळ Rege है जिसमें आं्या- क्षर से अठारहों पुराणों का पूर्ण क्ञान हो सकता हे | | agá nagia pa TAg अनापलिङ्ग कूल्कानि पुराणानि gua एथक | gak = मार्कण्डेय एवं मत्स्य gag = भागचत एव भविष्य | व्‌ चयम्‌ = ब्रह्म, ब्रह्माण्ड एवं ब्रह्म वेचत | चतुष्टयम्‌ = विष्णु, वराह, घामन तथा चायु | = अझ्नि। ना = नारद, = पद्म | लि = लिङ्ग। = गरुड़ कू = कूम और सूक = स्कन्द) कुछ Aaga महा पुराण, उप पुराण, अतिपुराण और पुराण भेद से अठारह अठारह संख्या मानते हैं। उनके अनुसार महा पुराण ये हैं | बहा, पद्म, शिव, विष्णु, भागवत, नारद्‌, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, त्रह्मवेचतें, लिङ्ग, घराह, स्कन्द, चामन, कूर्म, मत्स्य गरुड़ और ब्रह्माण्ड | | उप.पुराण :-- भागवत, माहेश्वर, ब्रह्माण्ड, आदित्य पराशर, सोर, नन्दिकेश्वर, साम्य, कालिका, घांरुण, ओऔशनस | |

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(. २७ )

aa, कापिल, दुर्वासस्‌, शिव धर्म, वृहन्नारदीय, नारसिह, सनत्कुमार-। पछि शर अति पुराण :-- Arda, अजु, आदि, मुदुगल, पशुपति, गणेश र, परानन्द, वृहद्धम, महाभागवत, देवी, कल्कि, भागव,घशिष्ट; को, गंग, चण्डी और लक्ष्मी पुराण: वृद्दद्विष्णु, शिव उत्तर खण्ड, लघु वृहन्नारदीय, भा्ेण्डेय, ag, भविष्योत्तर, वराह, स्कन्द्‌, वामन, वृहद्वामन, TRAA, स्वटपमत्स्य, लघु बेचते और प्रकार के भविष्य मेरी तुच्छ बुद्धि में पुराणों के सम्बन्ध में इस प्रकार के क्रम का ज। भी रूप रहे फिर भी इतना स्पष्ट है कि न्यूनाधिक रूपमें एक या दूसरी सूचीम सभी पुराणों का इसमें समावेश होगया है समुद्र मन्थन के समय चतुदश रत्नों की प्राप्ति उन महामहिम देवासुरों को हुई यह प्रसिद्ध है परन्तु इन पुराणों के अवगाहन से वहुसूल्य असंख्य रत्नों की प्राति होती है यह श्च सत्य है। पुराणों में माहात्म्य कथाओं के प्रसङ्ग में नाना इतिहास और आख्यान उपलब्ध हैं जो महत्त्व पूर्ण हैं। प्रसङ्कानुसार इतना अधिक व्यापक विषयों का समावेश हुआ है कि ध्यान पूर्वक स्वाध्याय करने से एवं उन्हें आचरण का रूप देने से आदश 'जीचन वनाने की प्रत्यक्ष प्रेरणा मिळती है इस महान ज्ञान निधि को विश्वम्भर का शब्दकोश ( Encyclopedia ) कहदे तो कोई अत्युक्ति नहीं पुराणों की विषय सूची इतनी व्यापक है 'कि उन्हें यहां देना इस छोटे से लेख के कलेचर में सम्भव

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( २८ 2

नहीं है हां, हम नाना पुराणों को सुख्य विषयानुक्रमणिका . 'को.तत्तत्स्थानो से उद्धत कर अलग से पाठक महाचुभाषो. के अवलोकनाथे दे रहे हे आशा है, इसको uas पढ़ कर fagga विषय व्यापकता से sada होकर सम्पण साहित्य के अध्ययन से संसार का हित सम्पादन करेंगे अधिकन्तु, तन्त्र मन्त्र इन्हीं के अन्तगस हैं। वैद्यक ma के सभी विषय गरुड़ पुराण अभि पुराणादि सभी झुख्य पुराणों में पाये जाते हें दर्शन, विक्षान,.राजनीलि तो सभी का क्रमवद. प्रतिपादित विषय हैं आध्यात्मिक साधना के लिये स्तोत्र, कचच, | 'णच खहस्जनाम आदि पुराणों में उपलब्ध हें वेदों एवं पुराणे | में प्रकृति ( पृथ्चो ) को.गाया है। वेदों में सूक्ष्मरूप से ( नारा. | 'शंसी गाथा-यज्ञगाथा ) का निरूपण किया है तथा पुराणों में अधिष्ठात्री देवी प्रकतीएबरी का विशदीकरण किया. है, एं महषियों ने स्ख्रतियों में इसी आधार पर व्यवहार मार्ग बी | saka गाई है। वेद, वेदाङ्ग,:पुराण एवं स्सृतियों को.. धरम शास्त्र कहा है ये शाश्वत सत्य हें इनके निरन्तर श्रवण मत्र एवं निधिध्यासन करने से अपना कल्याण हे | Fi इसके साथ साथ जो विच्रण भू वृत्तान्त के सस्बन्ध आया है उसमें तीर्थ प्रधान वर्णन होने से गवेषणा और अइ सन्धान करता महानुभाचों को पूर्ण सहायता मिळ सकती है। | सम्पूर्ण पुराणा में प्रथम यह ब्रह्म पुराण आदिकहप का | 'इसीलिये. सुमेरु स्थानीय है ,आज. की विघरित maea

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(. २६ )

संकेत युगधर्मा के प्रकरणों के पढ्ने से दर्पण में प्रतिबिम्बितः दशक बिस्म के समान स्पष्ट ज्ञान होता हे | इसके साथ को लगो विषयसचि का निर्माण इसी उद्देश्य से परिश्रम पूवेक किया गया है कि fagei की तुलना में संस्कृत के प्रति प्रेम रखते हुए भी संस्कत भाषा का लाभ उठाने चाळे 3४० भमी महानुभाव इसके विषय ज्ञान से वश्चित रहें चहिकि सूचि से प्रभावित होकर अधिक संस्कत की ओर आकषित डो अपने संस्कृत के अध्ययन को वढा कर कतकाय हों अपने गत दशकों के दिन प्रति दिन के श्रति Tata एवं

उराण स्वाध्याय से मुझे जीवन की गरिमा बढ़ानेवाले तत्वों आर उसे उच्चस्तर पर ले जाने वाले क्रिया कळापों को हृदयङ्गमः करने का सुभवसर मिला है। में इनका स्वाध्याय करता हुआ अधाता नहीं हूं जव जव अपने स्वाध्याय कालमें मैं इन अन्थरलों को देखता हूँ तो चिरन्तन तथ्य सार्वजनीन लोककल्याण के लिये प्रतिपादित इनके विषय मुझे अधिकाधिक आकर्षित करलेते हें में इन्हें हृदय से लगा लेता इं फिर दःख सी होता है कि भारत को इतनी अमूल्य निधि भारतीयों के पास रहते दैन्य

अभाव, और ZAM, कलह आदि जहां समूल नष्ट होने चाहिए वहां वे अपनी जड़ हमारे समाज में इतनी गहरी जमा चुके हैं कि इनसे छुटकारा कठिन सा हो रहा है। मेरा दृढ विश्वास है:कि सृष्टि के इन प्राणों का व्यापक रूप-मैँ प्रचार होने से ही समूळ वुराइ्यां नष्ट हो सकती हैं |

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( ३० )`

मेरी सभी महानुभावों से यह iaa प्रार्थना. है कि इनमें

प्रतिपादित वस्तु तत्त्व को हृदय की विशालता व्यापक दृष्टिकोण और सत्य शिव तथा खुन्दर की रजना के उद्देश्य लै: अनुशीलन करने का प्रयत्न करें इसी में इम ळासाम्बित होक्कर अपना और अपने आत्मोय जन एवं सुष्टि का कल्याण कर सं सले. हें

अपने जीवन की अनुभूतियों को साकार. छण देनेयाली महती |

ee | ज्ञान देवता को पूजा अहनिश स्वाध्यायके रूय सें हो ( स्वाध्या. .

यान्मा प्रमदः” इसी लक्ष्य से शुर्मण्डळ अन्यम'छा के नचम पुष्प

के रूप में सम्पूर्ण स्म्तियो का संग्रह प्रकाशित करने का प्रयास किया गया है आशा है शताधिक संख्या में प्राप्त इन स्मृतियां को हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियां उपल्ब्ध. हो जाने से

जीवन को प्रेरणा और रूफूति देनेवाला महर्षि कटप उन प्रात | स्मरणीय प्राप्त परुषों. का मान्य निर्णय.संसार को मागे दशेन दे - लिये मिलेगा। आप मह्दानुभाचों की शुभाशोः तथा . भूतभावत | =

भगवान विश्वनाथ के कपादे कटाक्ष से सफलतापूर्वक प्रका शित. कर प्रस्तुत को जायगी ऐसी आशा है। |

Sat और पुराणोंका स्वाध्याय हम भारतीयों के अध्ययन पं! *

पाठ्यक्रम से कितना दूर हो गया है यह सभी महानुभावो को | विदित है इसीका यह दुष्परिणाम है कि विश्व के उपदेष्टा

As

चेदमार्ग प्रवतेक भारत के गौरव ऋषिमहरषियों की सन्तान होक `

भी हम भारतीय नेतिक स्तर से नीचे गिरते जा रहे हें और |

हमारी पतनाघस्था चरम सीमा को पार कर.गई हे

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ba $... 43 Ne 4. ..& "क तीळ “ये,

( २१ )

इनके पठनपाठन. क्रम का श्री गणेश निरुक्त जैसे महत्त्वपूर्ण 'अल्थ रत्न से कर शने:२ इसके विशद अध्ययन से सारे विश्व को. ज्ञान A का प्रकाश मिळे और अज्ञानान्धकार से. जर्जर. विश्‍व को अइती प्रेरणा मिळे इसी उद्देश्य से गुरुमण्डल के दशम . पुष्प, के ऊप में आप महाजुभावों को निरुक्त का उपहार प्रस्तुत किया. RL हमारी यही एक अमर अभिलाषा है कि सम्पूर्ण वेदनिधि स्व अविकल प्रकाशन कार्य कोई उदारमना शास्त्रव्यसनी HETA: भाव ले तो विश्व का एक वड़ा. भारो अभावपूण होगा इस महान्‌ ग्रन्थ को पुराण प्रेमी शास्त्रेकाध्यायी Rest की सेवामें उपस्थित कर यह प्रार्थना करते हें कि आप लोग वेद्वेदाङ्गादि के अध्ययन अध्यापन क्रम को पुनरुज्जीवित कर स्वतन्त्र भारत के उत्थान काल में प्रातःस्मरणीय आणे ज्ञान की उत्कृष्ट विभूतियां 'उन ऋद्षियों को. अपनी सच्ची श्रद्धाञ्जलि समपित कर हमलोगों “के इस प्रयास को सफल करगे ।. . मनुष्य ने अनादि काल से यावन्मात्र प्राणियों के उद्धार का प्रण लिया हुआ है इस दिशा में उसके लिये श्रुति स्मृति जो सृष्टि की नियमावली है और पुराण जो उसके उपबृहक हें वे सदा से हो दृढ आधार शिला पर निमित प्रकाशस्तम्भ का काम करते हें आज की महती अनर्थ परस्परा में विपरीत अचस्थाओं का कटु अनुभव करता हुआ मनुष्प जो निराशा, अशान्ति और संचषे के थपेड़ों से दुःखी हो रहा है उसका समाधान ये पुराण हैं। मेरी मान्यता है कि इस निराशापूण घातावतण में [आशा

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(.३२ )

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= ~ ९७ हि i का अज्ञानान्धकार मैं -- ज्ञानालोक का जीवन में अपनी कमेण्यता | की समाति समझने वाले पुरुष को पुरुषार्थ का यहा तक कि.

{सारमें जो कुछ असत, alas, adat, अक्षानाद्‌ रूपी अन्ध

कार हैं उनले छुटकारा Kena यह aea है वल्कि

तारकमन्त्र है। असों से. चिश्य को aka, सत्य, और प्रेम और शान्ति का सन्देश दीजिये जित्‌

गत चैत्र मास में नवरात्रों के पवे अबले पुराण पारायण' में श्री मोर ग्रन्थानुसन्धान समिति की पण्डित अण्डछी ने समय देना आरम्भ किया तो मुझे ऐसा लगा कि इनका अविकल दोहन

कर अपने जीवन को कृतक्रत्य करना हम भारतीयों का प्रधार' कर्तव्य दै उसी समय इसके प्रकाशन का संकदप aga |

हुआ और ब्रह्मपुराण के प्रकाशन का बीज.उली में निहित है जो पुष्पित एवं पल्लचित रूप में सेवा में उपस्थित È |

मेरी यह प्रबल इच्छा थो कि!उसे शोघ्रातिशीघ्र गुरुमण्डर, ग्रन्थमाला के एकादश पुष्प के रूप में आप महानुभाचों. की सेवा

में प्रस्तुत करू इतने अहप समय में शीघ्रतावश जो कुछ Ia प्रेस के कर्मचारियों तथा कार्यकत्‌ वृन्द की अनवधानता. से गई है उन्हें Bag विद्ववृन्द्‌ छुधारने को उदारता दिखला

कृपा RTI |

इस महत्कार्य में आरम्भ से ही श्रो ब्रह्मदत्त त्रिवेदी भूत

अध्यक्ष श्री क्राषिकुल.त्रह्वावर्याश्चम संस्कृत कालेज .लक्ष्मणगढ |

भूत० सहायक सञ्चालक राजस्थान पुरातत्व मन्दिर जयपुर #

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( ३३ )

शूमिकालेखन शोधन कार्य में तथा श्री do कजोड़ीळालजी मि एवं पं० श्री रामनाधजी दाधीच साहित्य शास्त्री का प्रफ शोधन-में पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है. उन्हें अपने अभिन्न अङ्क के नाते किसी प्रकार का: धन्यवाद्‌ प्रदान करना शिष्टता छे (क्रुद्ध है श्रीपरमपूज्य राजगुरुजी हरिद्त्तजी शास्त्री चिद्या- er Kara के सञ्चालकत्व में. यह सब होने से उनकी enga एव आशीवाद का ही फळ DI आपने पुराण महिमा TI हमें. उत्साह. एवं. कत्तेव्य पथ की. प्रेरणा दो है। अन्त में में गप समो महानुभाचों का हृदय से आभार प्रदर्शन करता हुआ इस ज्ञान राशि. के प्रचार .का स्वाध्याय, द्वारा पुण्य लाभ करने की करवद्ध प्रार्थना करता हूँ

आशा है आप:खभो उदाराशय आपेक्षिक अपूर्णता की उपेक्षा

बुद्धि से क्षमा कर इस परिश्रम को सच्चे अर्था से सफळ वना हमें ऊतकृत्य करंगे।

कळकत्ता-- | |

गीता जयन्ती | कृपाभिलाषी .

मागंशीषे शुक्का मनसुखराय मोर .

११।२०१० [ 3

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| श्री गणेशाय नमः अष्टादशपुराणानां विषयाजुक्रबणिका ग्रारस्यते.।

तिः ब्रह्मपुराण डः

वेदव्यास प्रणीते KEJU saku जिषयाश्च . |

बृहन्नारदीये पा० ६२ अ० उक्ता यथा-- ब्राह्म पुराणं तत्रादौ सव्वळोकहिताय नै | व्यासेन वेद्चिढुषा समाख्यातं महात्मना ad सर्वपुराणाग्र्यंधर्मेकामार्थमोक्षदम्‌ नानाख्यानेतिहासाढ्य दशसाहस्नसुच्यते तत्पूवेभागे-- “देबानाम छुराणाञ्च यत्रोत्पत्तिः प्रकी तिता प्रजापतीनाञ्च तथा दक्षादीनां सुनीश्चर ! ततो लोकेश्वरस्यात्र सूर्य्यस्य परमात्मनः वंशानुकीत्तेन पुण्यं महापातकनाशनम्‌ तत्राचतारः कथितः परमानन्दरूपिणः | . श्रीमतो रामचन्द्रस्य चतुव्यंहावतारिण: | ततश्च सोमवंशस्य कीत्तेनं यत्र वर्णितम्‌ | कृष्णस्य जगदीशस्य चरितं कल्मषापहम्‌ |

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( ३५ )

दीपानाञ्चेच सिन्धूनां वर्षाणांञ्चाप्यशेषतः। : .' 'खघर्णने यत्र पातालस्वर्गाणांञ्च - परदृश्यते ` वरकाणां समाख्यान सूर्य्यसतुतिकथानंकम्‌। `: | -पावेत्याश्व तथा जन्म विवाहश्च निगद्यते। ` `. दक्षाख्यानं ततः परोक्तमेकाम्रक्षेत्रचणेनम्‌। | पू्चेभागोऽयसुदितः पुराणस्यास्य मानद ! ॥? ` 'तदुत्तरभागे-- | अस्योत्तरे विभागे तु पुरुषोत्तमवर्णनम्‌ |

चिस्तरेण समाख्यातं तीर्थयात्राविधानतः॥

अत्रेव कृष्णचरितं विस्तरात्‌ समुदी रित्तम्‌

'वर्णनं मम लोकस्य पितुश्राद्धचिधिस्तथा 'बर्णाश्रमाणां धर्माश्च कोत्तिता यत्र चिस्तरात्‌ | विष्णुधमेयुगाख्यान प्रलयस्य घर्णनम्‌ योगानां समाख्यानं सांख्यानाञ्चाऽपि चर्णनम्‌ | अह्मवाद्समुद्देशः पुराणस्य संशनम्‌।

एतद्‌ श्रहमपुराणन्तु भागद्वयसमा चितम्‌

'वणितं | सर्वे पापध्नं सर्वेसौख्यप्रदायकमं

तत्फलश्रुति :---

सूतशोनकसम्वादं भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्‌ | 'लिखित्वैतत्पुराण यो वैशाख्यां हेमसंयुतम्‌॥ जजलथेचुयुतञ्चापि भक्त्या दृद्यादु द्विजातये |

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( ३६ )

पौराणिकाय सम्पूज्य ब्रस्त्रमोज्यचिभूएणेः.॥. `, ` : ख़ बसेद्‌ बह्मणोलोके यावच्चन्द्राकेतारकम 1: . ...: यः पठेच्छ्णुयाद्वाऽपि त्रह्मानुक्रमणी द्विज . सोऽपि सवे पुराणस्य श्रोतुरवक्त : फलं लमेल्‌। . श्रणोति यः पुराणन्तु त्राह्म सचे जितेन्द्रियः !. हविष्याशो नियमात्‌ Àg aga पदम! . किमत्र बहुनोक्तेन यदू यदिच्छति मामवः। तत्सवं लभते घत्स पुराणस्यास्य कीर्तनात्‌

पक्षपराण

तस्थ विषयाणाम्प्रतिपादनम्‌ नारदीयपुराणेउक्त यथा;

ग्रथमे सृष्टिखण्ड ;-- “वुळस्त्येन तु भोष्माय स्या दि क्रमतो द्विज। नानाख्यानेति ह।साचयत्रोक्तो धर्मेविस्तरः | | पुष्करस्य माहात्म्यं विस्तरेण प्रकी तितम्‌ ब्रह्मयज्ञविधानञ्च चेद्पाठादिलक्षणम्‌ | दानानां कीत्तेन यत्र वृत्तानाञ्च पृथक्‌ पृथक | विवाह: शेलजायाश्व तारकाख्यानक महत्‌ माहात्म्यञ्च गवादीनां कीत्तितं सर्वपुण्यदम्‌।

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( ३७ ) कालकेयादि.देत्यांतां बधो यत्र पृथक्‌ पृथक ` अहाणामच्चेन दानं यत्र प्रोक्त द्विजोत्तम तत्सष्टिखण्डमुद्िष्टं व्यासेन सुमहात्मना

RA भूमि खण्ड: . पितृमात्रादिपूज्यत्वे शिवशर्मकथा पुर: खुचतस्य कथा पश्चात्‌ JIET चघस्तथा | पृथोवेणस्य चाख्यानं धर्माख्यानं ततःपरम्‌ पिठ्शुश्रूषणाख्यानं नहुषस्य कथा ततः | ययाति चरितश्च गुरुतीर्थनिरूपणम्‌ | राज्ञा जेमिनि सम्वादो बह्वाञ्चयँकथायुतः | कथाह्यशोकसखुन्दर्या हुण्ड-देत्यवधाचिता | कामोद्काख्यानक तत्र विहुण्डवघसं युतम्‌ कुञ्जुगस्य सम्चादश्च्यचनेन महात्मना | सिद्धाख्यानं ततः प्रोक्त खण्डस्यास्यफलोहनम्‌ | सूतशोनकसम्वादं॑भूमिखण्डमिद्‌स्स्मृतम्‌

` तृतीये स्वग, खण्डे :

“ब्रह्माण्डोत्पत्तिरुदि्ता यत्रषिभ्यश्चसौतिना . . सभूमिलोकसंस्थानं तीर्थाख्यानं ततःपरम्‌ | नमंदोत्पत्ति कथनं तत्तीर्थानां कथा पृथक्‌ | कुरुक्षेत्रांदितीर्थानां कथा पुण्याः प्रकीतिताः। `

_ कालिन्दी ,पुण्रयक्रथतं;काशीमाहात्म्यचणेनम्‌ ।. ....

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( ३८ )

गयायाश्चेव माहात्स्यं. प्रयागस्य च. पुण्यकम्‌ .

वर्णाअमाचुरोक्नेन कर्मयोगन्रिपणम्‌

व्यासजेमिनि-सस्वादः पुण्यकर्मकथालितः `. `

समुद्रमथनाख्यानं ब्रताख्यानं ठतःपरस्‌ |

ञज्जेपश्चाहमादात्म्य स्तोत्रं सर्वापशघजुतू। `

एतत्स्वर्गाभिधं चिप्र ! सर्वपातकनाशसम |” ` `

चतुर्थे पातालखण्डे :--

“रामाश्‍चमेथे प्रथम रामराज्यासिषेचनस्‌ | अगस्त्याद्यागमश्चेच पौलस्त्यान्चयकीचेनम्‌। अश्चमेधोपदेशश्च हयचर्य्याततःपरम्‌ नानाराजकथाः पुण्या जगन्चाथानुवर्णनम्‌ | वृन्दावनस्य माद्दात्म्यं सर्वेपापप्रणाशनम ।' नित्यलीलानुकथनं यत्र कृष्णावतारिणः | साधचस्नान माहात्म्ये स्नानदानाच्चनेफलम्‌ | धरावराहसम्वादो यम ब्राह्मणयोः कथा | सम्वादो राजदूतानां कृष्णस्तोत्र निरूपणम्‌ . शिवशस्सुसमायोगो दधीच्याख्यांनकन्ततः | भस्ममाहात्म्यमतुळ 'शिवमाहात्म्यमुत्तमम्‌ देचरातखुताख्यान पुराणाञ्च;प्रशंसनम्‌

गीतमाख्यानकञ्चेच शिवगीता ततःस्म्रता | ` कटपान्तरी रामकथा भारद्वाजाश्रमस्थितौ e पाताळखण्डमेतद्धि £रण्वतां ज्ञानिनां सदा। ` `

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(ar) UAMINI .सर्वाभीएफलप्रदम II TEA उत्तर खण्ड : Kim

पवेताख्यानक पूर्व गौर्यै प्रोक्त शिवेन वै . जालन्धरकथा पश्चात्‌ श्रीशे लाद्यनुकीत्तेनम्‌ सागरस्य 'कथा पुण्या ततः परसुरीरिता गगाप्रयागकाशीनां. गयायाश्चा धिपुण्यकम्‌ | आम्लाँ दिदानमाहात्म्यं तन्महाद्वाद्‌्शीबतम्‌ |. चतुविशेकाद्शीनां माहात्म्यं पृथगी रितम्‌ विष्णुधर्मसमाख्यानं चिष्णनामसहस्लकम्‌ | कातिकब्रतमाहात्म्यं माघस्नान फळन्ततः | जस्घुद्रीपस्य. तीर्थानां माहात्म्यं पापनाशनम्‌ साधुमत्याश्व माहात्म्यं नसिहोत्पत्तिवर्णनम्‌ | देचशमा दिकाख्यानं गीता माहात्म्यचणने |

_ भक्ताख्यानञ्च माहात्म्यं ्रीमद्गागचतस्य |

' इन्द्रप्रस्थस्य माहात्म्यं वहुतीर्थकथाचितम्‌ | मन्त्ररज्घामिधानश्च त्रिपादुभूत्यनुवर्णनम्‌ अवतारकथा पुण्या मत्स्यादीनामतःपरम्‌ l रामनाम शतं दिव्यं तन्माहात्म्यञ्च बाडच ! परीक्षणञ्च सगुणा श्री विष्णोवेभवस्य | इत्येतदुत्तरंखण्डं पञ्चमं सर्वेपुण्यदम्‌ |

तत्फलश्रृतिः

“पञ्चलण्डयुतं पां यः शणो तिनरोत्तमः |

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‘(४० )

लमेद्वेष्णवं घाम yrn भोगानिहेण्सितान्‌। एतद्वेपञ्चपञ्चाशात्‌ सहस्रं पडासज्छळम्‌।! ' | पुराण लेखयित्वा वे ज्यष्छ्यां स्व॑णाञ्यखंयुलमू'

: प्रद्द्यात्लुमतये पुराणज्ञाय आनर्‌ | ख॒ याति वेष्णवं घाम स्ेदेयनशस्छातः ! पद्मानुक्रमणीमेतां यः GBU | सोऽपि पद्यपुराणस्य SÅGAS REN ३°

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; EN , | © विष्णुपुराण तत्प्रतिपाद विषयाश्च वृहन्नारदीये--६७ अध्याये उक्ता य्था-- IU चत्स प्रवक्ष्यामि पुराण वेष्णवं महत्‌। त्रयोिशति ama

सवेपातक नाशनम्‌। यत्रादिभागे निदिष्टाः षडंशाः शक्त जेन ह।| मैत्रेयायादिमि तत्र पुराणस्पवतारिका तत्र ्रथमभागस्य प्रथमांश | “आदि्कारणसगंश्र देवादीनाञ्चसम्भवः | समुद्रमथनाख्यानं दक्षादीनां क्थाचयः। ti | भुवस्य चरितं चेच पृथोञ्चरितमेच | | प्राचेतसं तथाखूपान प्रहादस्य कथानकम्‌ |) , | पृथुराज्याधिकाराख्यः,प्रथमोंऽशइती रित: ।-... .. |

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( ४१ ) अथस भागस्य द्वितीयांशे :-- पाताळनरकाख्यानं सप्सर्गेनिरूपणम्‌।. . सूर्य्या दिचारकथनं पृथगलक्षणसंगतम्‌। चरितं भरतस्याथ सुक्तिमार्गनिदर्शनम्‌ | निदाघक्रतुसम्वादो द्वितीयोंऽशउदाहृत्तः। . अथृमभागस्य 'तृत्तीयांशे £-- “मन्वन्तरसमाख्यान वेदंव्यासावतारकम्‌ | ` नरकोद्धारक कर्म गदितञ्च ततःपरम्‌ | सगरस्योवेसम्वादे सर्वेधर्म निरुपणम्‌ श्राद्धकल्पं तथो द्विष्टं वर्णाश्रमनिबन्धने सदाचारश्च कथितो मायामोइकथा aa: तुतीयाऽशोऽयसुदितिः सर्वेपापप्रणाशनः ।” _ अथममागस्य चतुर्था “सूर्येवंशकथा पुण्या सोमवंशानुकीतेनम चतुथ5शे मुनिश्रेष्ठ नानाराजकथाचितम्‌? अथमभागस्य पश्चमांशे :--- | “कृष्णाचतारसम्प्रश्‍नो गोकुछोया कथा da: | पूतनादिचिधो बाद्येको मारेऽघा दिहिसनम्‌ . केशोरे कंसहननं माथुर चरितन्तथा। - ततस्तु यौचने प्रोक्ता. लीळा द्वारचतीभवा . सवेदेत्यचधो यत्र विवाहाश्च पृथग्विधा:

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( ४२: ))

यत्र स्थित्वा जगन्नाथः कृष्णोयोगेश्वरेश्चरः . भूभारहरणं चक्रे. परस्वहननादिसिः.। ` अष्टाचक्रोयम़ाख्यानं पञ्चमो ऽशइली रित: 1? `

ग्रथसभागस्य षष्ठांशे : कलिजं चरितम्प्रोक्त चातुविष्यं लयस्य अ! त्रह्मज्ञानसमुद्देशः खाण्डिइयस्य लिझपितः ¦ केशिध्वजेन चेत्येष षष्ठो 52: परिकी दिक तस्य द्वितीय भागे :—

अतः परन्तु सूतेन शौनका दिमिराद्रात्‌।

पृष्टेन चो दिताः शश्वतविष्णधर्मोत्तराह्याः नाना धर्मकथाः पुण्या रतानि नियमा यमाः i धर्मेशासतरश्चार्थशार्त्र वेदान्तं ज्यौ तिषन्तथा | वंशाख्यानम्प्रकरणात्‌ स्तोत्राणि मनघस्तथा | नाना विद्याश्रयाःपरोक्ताः सवेळोकोपकारका: | : एतद्विष्णुपुराणं वै सवे शास्त्रार्थसंग्रहः ।”

तत्फलश्रुतिः

“वाराह कल्पवृत्तान्तं व्यासेनकथितन्त्विह | यो नरः पठते भक्त्या य: श्रणोति साद्रम्‌ ताबुभौ चिष्णलोक हि चजेताम्भुक्तभोगकी | तल्लिखित्वा योद्यादाषाढ्यां घृतधेनुना | सहितं चिष्णभक्ताय पुराणार्थविदे द्विजः।

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( ४३ ). ' याति वेष्णवं घाम चिमानेनाकंबचेखा ; यश्च चिष्णुपुराणस्य समनुक्रमणीं द्विज | कथयेच्छुणुयाद्वाइपि'स : पुराणफळ SAA

श्रिवपराण तत्स्थ विषयाणां प्रतिपादनम्‌

ज्ञानसंहितायास्‌ः--

ऋषिगणस्य प्रश्‍न: ब्रह्ममारद्संवादःज्योतिलिङ प्रादुर्भावश्च आकार प्रादुभोचः, शिवस्यानुग्रहः, Rosa शिघस्तुतिः। ` उसयोःकते शिवस्य वरदानम्‌ ब्रह्मणो हंसरूपधारणस्य चिष्णोः वराहरूपधारणस्य कारणरूप निद्शः, त्रह्मादीनासुत्पत्तिकथनम्‌। ऋष्यादीनां सृष्टि: भगचत्याः देहत्यागस्य संक्षेपेण वृत्तान्त- कथनम्‌ शिवपूजा विधिश्व पाघमान मन्त्रैः शिवपूजा विधिः | तारकोपाख्यानं, ब्रह्मण समीपे देचादीनांगमनञ्च ्रह्मदेच संघादः शिवस्य तपो'वर्णेनञ्च मदनदहनम्‌, पार्वत्त्याश्व प्रत्यावत्तैनम्‌। पावेत्यास्तपः। पार्वेतीतपः समुद्दिश्य देचगणानासृषीणाञ्चः शिवसन्निधाने गमनम्‌, जरिळ ब्राह्मणवेशे पार्वेत्याःखकाशं- शिवस्यागमनम्‌। हरपार्वंती daki शिवविषाहोद्योगः t शिवषिचाह यात्रा। शिवरूप दशने मेनकायाःखेद्स्तां प्रति

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( ४४ ) अगवत्याः ज्ञानोपदेशः हरपावंत्योबिबांह: `` कात्तिकेयस्प | जन्मः देवसेनापतित्वं तारकघघम्ध एवं त्रह्मणो वरेण तोरकपुतराणा जिपुरेऽधिष्ठानम्‌। frg सुण्डिकतु देत्यगणानास्मोहोः त्पादनम्‌। सुण्डिन उपदेशेन दैत्यानां ana: दरिद्रता | दृष्ट्या विष्णुप्रभुतिदेवगणाना शिवर्तवः 'चिष्णूपदेशेन देव. गणानां कोरिशिचमन्त्रजापः शिपल्तयश्थ देवमयरथा- रोहणे Rasas जिपुरनाशः। Sasa? घरलाभश्च। हरिकतृ लिङ्गाचेन Kemang | अधिकाराशुसारैण raat जसादि लिङ्गदानम्‌। शिवपूजाविधि कथनम्‌। आह्िककर्त शिवपूजाविधिः। षोडशोपचारेण खाम्वशिषपूजा धान्या दिम शिवपूजाया: फळविशेषकथनम्‌। जानकी शापेन केतकी पुष्पे

o शिवपूज्ञाया निषेध: रामचरित्र कीर्तनञ्च चञ्पक पुष्पस्य शिक |

"|

पूजार्थ राज्ञोमोहस्तदुत्पादनपू वंक इतदुष्कर्मात्राह्मण चम्पकं घुष्पयोश्च नारद्स्यशापः ` गणेशचरित्रम्‌। गणेशकत्‌ शिवः गणानांपराजयः Rara गणेशशिरश्छेदनञ्च | Rrasa देव्या:क्रोध: महादेवस्य गणपतेः प्राणदानं गाणपत्यप्रदानश्च। | कात्तिक गणेशायोचिवादः गणेशस्य जयलाभश्च। IANA | Raras त्वा ` कात्तिकस्यक्रोधः ` ` -ऋौश्ञपर्वतगमनश्र। | रुट्राक्षधारणमहात्यकथनप्र _ प्रधानज्योलिङ्गोपलिङ्गानां नाम | स्थान ..कथनंम्‌ नंन्दिकेशतोर्थमाहात्म्ये गोचत्ससंघादादिः। नन्दिकेश .. तीर्थमाहासम्यकथनम्‌ ॥. . अत्रीशवरलिङ्गमाहातयं कथ्रनम्‌ः। ; ज्यो तिलिंगादीनां.: 'समस्त चस्तूर्ना : आह्यत्वकंथर्ता,

|

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(४५: )'

शिवलिंगमाहात्म्य कथनञ्च। अश्वकेश्वर वर्णनप्रसंगेऽश्चकमंदेनः . कथनम्‌। शिवरात्रिव्रत संशय हेतुद्धीचितनयानां दोषकथनम्‌ A सोमेश्वरकथा AAR महोाकालोंका-

रेश्‍्वरयोर्त्पत्ति: केदारेश्वरपसङ्ग: ` भीमशङ्कर प्रादुर्भाव: | विश्वेश्वरस्य माहात्म्यम्‌ गौरींप्रति शिवस्य 'काशीमाहात्म्य- कथनम्‌ गोपेशवरमाहात्म्य कथनम्‌ ` काशीमंरणान्मोक्षपराप्तैः शङ्झनिचारणम्‌। गौतमस्य तपस्याततकषेत्रकथनञ्च | गणेशपूजन यीतमचरित्रश्च। गौतमप्रशंसा, गंगास्थितिः कशावर्तमाहात्म्यं | व्यस्वकमाद्वात्स्यञ्च | रावणस्यतपस्या माहात्म्यम्‌ , वेद्यनाथस्यो-

त्पत्तिः 1. रामेश्वर माहात्म्ये नागेशमाहात्म्यञ्च घुस्मेश्‍वर माहा-

त्म्यञ्च, यराहरूपेण हिरण्याक्षचधः . प्रहादचरित्रञ्च | प्रहद हिरण्यः RRIT . प्रस्ताचः। हिरण्यकशिपुचधः नुसिहच रित्रञ्च नल: जन्मान्तर कथा पाण्डबगण कतृ दुर्वाससः प्रीत्युत्पादनम्‌

व्यासादेशेन इन्द्रकील पर्वते अजु नस्यतप: इन्द्र्समागमञ्च l भिल्लरूपस्य शिवस्यागमनञ्च। भिलुवेषधारि शिवस्यअज्ुनेन सह युद्धः। अजु नस्य वरदानम्‌ - पार्थिव शिवपूजाचिधिः

बिल्वेश्वरमाहोत्म्यम्‌। विष्णकर्ताक सहदस्रकमलशिवपजा शिव-' कपया सुद्शेनचक्र लाभ: शिवसहस्रनाम TRAR | विष्णुप्रभृतीन. शिवस्य शिवरात्रिव्रत कथनम्‌। शिवरात्रिव्रतस्योद्यापनविधिः | ;

व्याधयस्पेतिहास कथनम्‌ अज्ञानेन छृतस्य शिवरातित्रतस्य प्रशसा। शिवराजिब्रतकरणेन पापिनो वेदनिधे मुक्ति: | . चतु-- विध सुक्तिवरणनम्‌ शिवकत विष्णुप्रश्नतीनामुत्पंत्ति कथंनम्‌ l:

एकमात्रभक्तिसाधनेन शिंवभक्तेळाभकथनम्‌। -. |

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(` ४६ ) विद्यश्वर संहितायासू--

` साध्यसाधन निरूपणम्‌। अननादि स्वरूपचर्णनस्‌ ya

-जाद्यशक्तव्यत्तीना लिङ्गपूजनखाधनकथनम्‌ | अहविष्ण्वोः युद्ध

दृष्ट्या शिवसमीपे देवतानां गप्ननस्‌ ञ्यीतिमेयलिङ्गपाडुर्भाचः स्तद्‌ दृष्ट्या ब्रह्म विष्ण्यो विवाद शान्तिः Kura ब्रह्मणः शिरश्छेदनं। त्रह्माणंग्रति शिचत्यासुग्रदः SaR कृताशिब | 'पूजा ळिंगनिमाणं लिगप्रतिष्ठा। छिंगपूजायाः नियम कथनम्‌। ` शिवतीर्थ सेचामाहदात्स्यम्‌। विप्रादि सदायारस्य नित्यक्तत्यता | | 'पञ्चमहायज्ञकथनम्‌। दिनविशेषे देवपूजायाः कतेव्यताकथनम्‌| 'देशकालादि विशेषे पूजाफल कथनम्‌ पार्थिव प्रतिमा पूजाविधिः |. 'प्रणवमाहात्म्यं शिवभक्तपूजाकथनम्‌। षड्लिग माहात्म्यम्‌।

बन्धनमुक्तयोः स्वरूपकथनम्‌ लिगक्रमकथनम्‌।

कलाश संहितायाम्‌ ;--

.. चाराणसीधास्नि सूतकतृक मुनीनां निकटे प्रणवार्थं कथना रस्भः। केलाशधास्नि देवीकृता शिवं प्रति प्रणवार्थ जिज्ञासा |

प्रणवोक्ता मन्त्रदीक्षादि कथनम्‌। प्रणबोद्धारः, विविध पजा एवं

'न्यासान्तरादि विधिः

|

कातिकेयं प्रति घामदेच ऋषेः प्रणवस्य छते प्रश्नः | कुमार

कत्‌ वामदेवं प्रति प्रणवोपासना कथनम्‌ | षड्विधार्थः परि ज्ञान। विस्तृत प्रणवार्थ कळा तन्त्रादि चिवर्ण कथनम्‌

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| |

À ( 89 y

सनत्कुमार संहितायांम्‌ः :---

नेमिषारण्ये खनत्कुमारस्यागमनम्‌। व्यासादिभिर्मिलनम्‌। शिवपजा "चिषये ऋषीणां प्रश्नः सनत्कुमारस्य पृथ्व्यादेः संस्थानक्रमप्रसवतोनां कथनम्‌ प्रकृतित: महदादिक्रमे जगत साधे: सप्तद्वोपवर्णनश्चन नरकादि वर्णनम्‌ . डड लोक योग- नाहात्स्यकथनम्‌ सविस्तर रुद्रमाहात्म्यं, पञ्चसूति कथनम्‌ रूऱ्झीतन फलम्‌। रूद्रस्तवः। सनत्कुमारस्य चरित्रम्‌ ।परमसि- द्विश्च शिवखवेज्ञादि कथनम्‌ रुद्रलोक त्रह्मलोक विष्णुळोकार्ना कथनम्‌ ! सद्र्स्थानस्य सवे श्रेष्ठत्व कथनम्‌ चिभीषण महेश्वर संवाद: लिङ्ग पूजा शिवनाम की्तेनफलञ्च। स्थान माहा-

त्स्य कथनम्‌ ब्रह्म विष्णु महेश्वराणां मध्ये कस्य agan

इति व्यास प्रश्ने सनत्कुमार समुत्तरदानं शिव लिङ्ग माह्दात्म्यादि कथनञ्च geai शिवशक्त्योः पजनविधिः

शिव पूजायां पुष्पनिरूपणम्‌ अनशन विधिः शिवप्रीतिकर

धर्मस्य aa उपदेशः। लक्ष्मणाए्मीबतकथनञ्च। अन्न- दान माहात्म्यं भिन्न दानानां प्रशंसा विविध धर्मकार्याणा- मुपदेशः सविस्तरं नियमफलकथनम्‌। पार्वत्याः शिवस्य शिरसि चन्द्र्घारणे विषभक्षण विषये प्रश्नः। भस्म प्रशंसा भस्म धारणस्य फल : कथनम्‌। शिवस्य शमशानचासहेतुः | शिवपूजायाः . फलकथनम्‌ शिंचविभूतिकथनम्‌। ` शिवस्थान- निद्‌शः। ` प्रणबस्योपासना। प्रणचद्दैवता कथनम्‌।.. ध्यान योग कथनम्‌ ।'' दुर्वाससः महाादेवंः प्रति :पुनरध्यांन.. वणनम्‌

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( ४८ ) |

तदर्थ काशीचासनिद्‌शश्च चायुनाडिकादि तिरूपणम्‌। घ्यान- निधेः प्रशंसा 1, _ प्रणवोपासना -निरूपणस्‌। शारीरस्य सवेदेव- सयत्व कथनम्‌। नाडी विस्तार कशनम्‌। इरपारवेतीसंवाद: काशीमाहात्म्य कथनञ्च मघूकस्योपख्यानन्‌ खपुचस्यप्रताप. |, मुकुटराज्ञ ओंकारेश्वर दर्शनम्‌ | ओंकारस्तज:। नन्दीश्वरस्य | तपस्या नन्दिनं प्रति शिवस्य चरदानम्‌ मडादेवल्य स्मरणम्‌। ` ¦ देचानामागमनम्‌ शिवस्यादेशेन देवानाँ नन्दिनः गाणत्या- | : सिषेककरणम्‌ नन्दिनःस्तवः apaan नीळझण्डमाहात्प्यं स्तोअञ्च, निपुरच्रत्तान्तम्‌। देवानांलुखं दृष्ट्या मदादेचस्य खन्तोवः त्रिपुरनाशस्योद्योगः निपुरदाहः। पार्वत्याः sga: शिवस्य qara माहात्म्य कीतेनम्‌। पाशुपतयोगः। देहस्थनाडोनां विवणेम्‌। Anara Kawat: शिवस्थितिलोक कृथनम्‌ | |

वायवीय संहितायाम्‌-- महादेवरूपया श्रीकृष्णस्य पुत्रठाभ कथनम्‌। वेदादि |

व्यचस्था। पुराण संख्या कथनम्‌ त्रह्मणोनिकरे ऋषीणां | शिवतत्त्व कथनम्‌ ब्रह्मण आदेशेन नेमिषारण्ये यज्ञार्थं गमनम्‌ नेमिषारण्ये ऋषीनप्रतिचायोः कुशळप्रशनोक्तिः। शिवतत्त्वम्‌ मायास्वरूपकथनश्च शिवस्य काळरूपत्वप्रकटनम | सविस्तर | काळमान कथनम्‌ प्रकृतिसुष्टि कथनम्‌ ब्रह्मकततक बराहरू

ब्रह्मण -जयद्वयवस्थाप्रनम्‌। .. शि्रप्रखादादुत्राह्मणः सष्टिकरणम्‌ ||

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( ४६)

' ज्रं विष्णु महेश्वराणा परस्पर वशवत्तित्वम्‌। ब्रह्मणश्च महा- | देखाहुत्पक्ति कथनम्‌ ` ब्रह्माणं प्रतिसृष्टिकरणा्थ रुट्रस्यादेशः।

SAJA ब्रह्मण अधेनारीश्वरप्रसादनम्‌। रुद्रकततकखियाः

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गिः सथुनसश्श्चि दक्षयज्ञ कथनम्‌ देव्याश्च देहत्याग: रसद्रानेरूपणम्‌। काल्याःसष्टिः दक्षयज्ञनाशः चोरभद्रर्य

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Kekal देघानयनम्‌। दक्षस्य छागमुखता च। व्याघ्रं प्रतिपावेत्या

SEE: शिच समीपे देव्यागमनम्‌ व्याघस्य सोमनंदी नाम करणञ्च | Gea समीपे Kang अशिष्टोमात्मक विश्वप्रपश्न RAAR | : Ara शब्दार्थं कथनम्‌। जगतः शाव्द्रूपितचकीतेनम्‌ | महरषीणा

' शिव राख्यो: कीतेनम्‌। नास्तिकताविनाशाय तयोजेन्म चायुना सविस्तर शिवतत्वकथनम्‌ मुक्तयर्थ ज्ञानस्यचोपदेशः पाशुपत

योगे मुक्तिलाभकथनम्‌। पाशुपतत्रतकथनं भस्ममाहात्म्य KUAT |

डुग्धप्राप्त्यथेमपमन्योः महादेवस्य प्रसादेन दग्धसमद्रप्रासिः

æ. -e

उत्तर भागे Aara प्रयागे मुनिगणेजिज्ञासितं प्रश्नं प्रति सूतस्य बायु

कथित शिवमाहात्म्यकथनरूपमत्तरम। श्रीकृष्णस्प्रति उपमन्यो

पाशुपत ज्ञानकथनम्‌। सुरेन्द्रादि परीक्षा | त्रह्मविष्ण aah

' शिवस्वरूप कंथनम्‌। श्रीपुरुषात्मक उमामहेश्वरयोजगत्प्रपञ्चः कत्वकथंनस्‌ परत्रह्मापरत्रहमणोरेकत्च कथनम्‌। महादेचस्य

अप्राक्ृतरूपस्य `` प्रणंवांत्मकत्वकथन प्रणवस्बरूप कथनञ्च। भक्त्यादि द्वारा मानवानां शिवप्राध्तियोग्यता त्रह्मादिदेवान देवी

सप्रति शिवस्य वेदसार ज्ञांनोपदेशः। शिवावतारस्य कल्पः

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( ५० )

योगेश्वरस्य कथनम्‌ शिवपश्चाक्षर मन्त्रर्वरूपम्‌ माहात्म्यञ्ञ। शैबमन्त्रग्रहणस्य कथा दीक्षाप्रयोगः eceng mamang ` Raia: शिवमन्त्रस्य च॑साधतविथिः maka रभिषेकादीनां संस्काराणाञ्च कथंत शेचादीनामान्हिक का कथनम्‌ अन्तर्याग वहियोग Ka anak adeat: पूजा विधिः होमकुण्डाना झरिसाथादीलां निणेयः। | माखांदि विशेषेषु नेमित्तिक शिवपूजा कथमम्‌ ! arang | कथनम्‌ | शिवस्तोत्रम्‌ प्रकारान्तरेण लिङ्ग धूः श? Raga . त्रह्मादीनां स्वीयस्वीय पदप्रा्तिः। त्रह्मविज्जोः aa, शिवप्रतिष्ठा शिचप्रोक्षणविधिश्च। योगोपदेशः gia समी शिवचरित पूवेक चायोरन्तर्घानम्‌ यज्ञ समाप्तो व्रहाणो निकर सुनीनासागमनम्‌ त्रह्मण आदेशेन सुमेरु पवते सनत्कुमार | समीपे सुनोनामागमनम्‌ | नन्दिसमागमः | नन्दिकत शिवकथा. बणेनम्‌ | | घमसंहितायाम्‌ :-- . ` o शिवमाहात्म्यनिरूपणम्‌। उपमन्योः समीपे श्रोक्कष्णस। | शिघमन्त्रे दोक्षाअहणम्‌ रुरुदेत्य घघः। गो पीप्रशृति रूप महादेवे! - सह अप्सरसांविहारः। उषाऽनिरुद्वयोःसमागमः। चाणराज्ञोयुद्धारि कथनम्‌। काल्यास्तपस्या, आड़ीदैत्यवृत्तान्तः। घीरकस नन्द्रूपेण जन्म कारणम्‌ | शिघस्य कामाचारो लिङ्गोद्चकथा al शक्रादीनां कामकिकर त्वकथनस्‌। मद्दात्मनां कामक्षोभः। चिश्चा मिः Nadai कामचश्यता कथनम्‌ श्रीरामस्य कामाघीनत्च कथन

| 3 | CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri |

( ५१) नित्यनैमित्तिक शिव पूजाविधिः। शङ्करक्रियायोगस्तत्फलञ्च |

शिवभक्त पूजा तत्फलञ्च। घिविधपाप कथनम्‌ पापफलानि च। अस्मपलडु।। अन्नदानविधिः। जलदान माहात्म्यम्‌। पुराण GETT साहात्म्यम्‌ MAAN माहात्म्यञ्च महादानकथनम्‌ | gan धृथिची दानम्‌ कान्तारहस्ति दानम्‌। एकदिनस्याराधने- शेध शङ्करस्य कृपा। शिव सहस्जनाम बणेनम्‌ः धंस्मों पदेशस्तु- TIRTA परशुरामस्य तुळापुरुषदानम्‌। ब्रह्मणः प्रसङ्गः नरकादिकीत्तेनम्‌। द्वीपाद्किथनम्‌ भारतवर्षादिकथनम्‌ | श्रहादीनांकथा शुत्युञ्जयोद्धारश्च | मन्त्रराजप्रभाच कीत्तेनम्‌। पञ्च- त्रकथनं पञ्चत्र्विधानञ्च तत्पुरुष चिधानम्‌ अंघोरकत्व घामदेचकत्व सद्योजातकत्वादिक्थनम्‌। संसार कथा स्त्री- स्वसायादिकिथनञ्च अरुन्धतीदेवानांसस्चादः ` विवाहकथा -खुत्युचिन्हस्य आयुषःप्रमाणम्‌। काळजयः | छाया पुरुषलक्षणम्‌ | घामिकाणां गतिलिङ्गपूजायाः कारणञ्च विष्णुकृतः शिवस्तवः लिङ्ग पूजायाः फलञ्च। सृष्टि कथनम्‌। प्रजापतिकृत सृष्टि- कथनम्‌ 9g राज्ञः पूजायाः कथा देवदानवादीनां सृष्टि Aar आधिपत्यनिर्णेयः। पृथु चरित घणेनम्‌ मन्वन्तरा- दिवर्णेनम्‌। सञ्जाछायादीनांकथनम्‌। सूर्यवंशवणेनम्‌ | सत्यव्रत 'सगर uaa विचरणकथनम्‌ AIRNE कथा, fàg- सप्तकवर्ण जात्यन्तरप्रातिः सङ्ग ZA 2 aa साधुसङ्ग मुनिसप्तकस्य विधान सहितं सम्यक पुराणंफलइंश्रुतम्‌ | तस्माद्विधानयुक्तन्तु पुराणं फलमुत्तमम्‌

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प्रथसस्कन्धे 3 E

देवीभागवतस्य भहापुराणत्थादि Aara निणेयः। प्रन्था- रस्भमंगलम', ऋषीणां पुराणविषयमश्नः अल्य सङ्ख्या विषयश्च। | ससंख्याक पुराणाख्या तत्तयुगीय व्यासाबुकथनः& देचीसबोंत्तः मेति कथनं प्रसङ्गतः शुकजन्म च। देव्या महोत्कर्पः मघुकेटमयो- युद्धोद्योगः ब्रह्मणा मधुकेटभभीतेन पराम्विक्षायाःस्तुतिः। आराध्यनिर्णेयः देवोप्रसादान्मधुकेरभयोई रिणाचधः शिवस्य- चरदानम्‌। चुधोत्पत्तिः। पुरूरवस उत्पत्तिः पुरुरवसउवेश्या श्वचरितम्‌ शुकस्योत्पत्ति | शुकवैराग्यम्‌। शुकायेतत्पुराणोपदेशः। जनकस्य परीक्षाथ शुकस्य मिथिलागमनम्‌। शुकायजनकोः

पदेशः शुकस्य विचाहादिकिम्‌। शुकनिर्गमनोत्तरंब्यासङ्त्योपं TRAR, | | द्वितीयस्कन्धे | व्यासजन्मतृत्तान्तवणनम्‌ | पराशराद्दासकन्योदरे ठ्यासस्य जन्म शन्तनोःसत्यवत्या गङ्गया सह विवाह चसूनामुत्पत्तिश्व। शन्तचुना सत्यवत्या चरणम्‌। व्यासात्‌ पुत्रचयोत्पत्तिः पाण्डबो ` त्पत्तिश्‍च पाण्डवानां कथानक स्ृतानां दर्शनश्व agge .

l CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri | ; टं

( ५४ )

जाशः उत्तरासूनोद त्तञ्च रुरुपुरावृत्त कथनपूर्वको TNE राज्ञोयासः। तक्षक द्विजयोः सम्भाषणं तक्षकेण राज्ञोद्शेनञ्च aaam ` वद्धपरिकरस्य जनमेजयस्यास्तीकेन निवारणम्‌ | आस्तीकस्योद्भवो भागचतमाहात्स्यञ्च

तृतीय स्कन्धे :---

भुवनेश्बरीनिर्णयः चिमानेन ब्रह्मादीनां गतिः चिमानस्थै- हेरादिभिदेची दर्शनम्‌ विष्णुनाछतं देवी स्तोञं तदूद्धूव हरस्तुतित्रेह्म- स्तुतिश्च ब्रह्मणे श्रीदेव्या उपदेशः ।- तत्वनिरूपणम्‌। गुणानां रूपसंस्थानादि। पुनरपिशुणानां लक्षणमधिङत्य नारद्‌ प्रश्नः | सत्यत्रतकथा घाग्बीजोच्चारणात्‌ सत्यव्रतस्य सिद्धिलाभः अवायझविधिः अस्विकामखस्य चिष्णुनानुष्ानम्‌ राज- प्रश्नोत्तरं वेभववर्णनश्च युधाजिद्वीरसेनयोदौ दित्रार्थयुद्धम्‌ युधाजितः सुद्शेनजिघांसया भरद्वाजाश्रमं प्रति गमनम्‌ | चिशचा- मित्रकथोत्तर राजपुत्रस्य कामचीजप्रातिः काशीराजस्य स्वसुता चिवाहोद्योगः खुदशेनेन सह राज्ञां स्चयम्वरागमनम्‌। राज- संचाद निवृत्तिपुवेक कन्याबोधः राज्ञांकोळाहरे कन्यासम्मतस्य राज्ञःस्थानम्‌ सुद्शेनविचाहः सुबाहोः कन्याया ANEA महारणेशत्रणां देव्या व्यापादनम्‌। देची महिमा काश्यां दर्गा- चासश्च अंबिका तोषणं तत्पुरे. देचीस्थापनञ्च। नघरात्रविधे नु पाय व्यासेन कथनम्‌। कुमारिकाकथनम्‌। रामायणकथा el रामशोकः नारदेनत्रतकथनम्‌।

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( ५४ ) | | a Aan | चतुथ स्कन्ध I—

` कृष्णावतार प्रश्‍नः। कर्मणोजन्माद्किरणत्वनिरूपणं्न। `

अदितिः शापकथनम्‌। अधमज़गठः स्थिति: नारायणकथा ' नराग्रजेनोर्वशीसृष्टि: अहंकारावर्तवम्‌! प्रहाइनारायणोः समाग प्रह्लाद नारायणो यु sa | हरये एप टर पदा ला RET मन्त्रला भार्थ गमनं शुक्रमातुरवंधश्च YO ERNESTA जयन्त शुक्रसेचाथ पेषणम्‌ | शुक्ररू पेण देवाना शुडणा इत्यवयूना देत्याग

शुक्र ami: देवदानचयोयु द्ध शान्तिः हरेरजानावतारा: सुर

गनानां नारायणाश्रमे गमनम्‌। ढुष्टराजभाराक्रान्वाया मेदिनि ब्रह्माणं प्रति गमनम्‌ देवैःशक्तिस्तवनम्‌ चाझुदेचांशाचतारकथा देवक्याः सप्तानां पुत्राणांघधः। देचानामंशाचतारणम्‌। कृष्ण. जन्मकथनम्‌ इष्णकथा पराशक्तेः सवज्ञत्वकथनम्‌। |

पञ्चस स्कन्धे :-

विष्णोरपेक्षया रुद्रस्य श्रेष्ठत्वम्‌। देचीमाहात्म्यघर्णत मदिषोत्पत्ति: देवेन्द्रेण समरोद्योगः | देवानां संख दिवि देषसेनापराजयः देवदानवयुद्धम्‌ पराभूतानां देघानां | ` गमनम्‌ जगद्स्बायाः पलाशसमिधांज्चालनयोत्पत्ति कथन देवेमेददायुधेदेव्यर्चनम्‌। रक्तदूतसंचादकीतनम। afg संसदि विसृश्यानाज्लोदूतस्यप्रेषणम॒। ताम्रस्यागमनोत्तर ad दुसु खयोः प्रेषणम्‌। बाष्कलडुमु खयोव॑धः ताम्रचिक्षरणं ` द्व्याषघः। महारणेऽसिलोमादीनां निध महिषासुरः

| CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digit नम्‌ by eGangotri j i

( ५५ )

' देव्या संवादः मंदोदर्याः कथानकम्‌। महिषस्यवधः | देवेःता- ` झहादेबीस्तुतिः अन्तर्धानोत्तरं वृत्तकथनमं शुम्भासुरकथा। ' प्रादेव्याः खुरकार्या्थं प्रादुर्भाव: | कोशिकोति प्रसिद्धाया देव्या-

Addagal दृत्तलचादंकीतेनंम्‌। धम्रलोचनवधः। चण्ड- ` Teu: श्रीदेव्यासहथुद्धम्‌। रक्तचीजयुद्धम्‌। रक्तबीजवधः

' शुव्भस्य युद्धस्यचिस्तारः। शुंभस्ययुद्धोद्योगः। _ निशुभवधः।

शंभाखुरवधाश्रितकथा राजवेश्योशचरित्रत्रय सेवकयोचांतां |

| शुबनएुन्दयां राज्ञेकथनम्‌। राज्ञे तापसोपदेशः राजवेश्ययोद्‌व्याः

प्रत्यक्षदशेनम्‌ | पृष्ठ स्कन्धे :—

लुत्रदेत्यवधकथारम्मः निशिरोबधवर्णनम्‌। प्रित्राज्ञया- बृ्रस्य तपो्थवनगमनम्‌। वृत्रेण घरगर्वेण पराभूतानां देवाना शंकरसमीपेगमनम्‌। देचीस्तुत्या देवेवेरप्रापणम्‌। व्र॒त्यदेत्यवधा- श्रिता कथा। घासचस्य गुप्ततासो नहुषस्य चेन्द्रपदे ऽभिषेकः 1 नहुषेण प्रार्थितायाः शच्याश्चिता, देचीप्रलादतस्तस्या इन्द्रद्शेनम्‌ नहुषस्याधःपातः त्रिविधस्य कर्मणो रूपकथनम्‌। युगोदुभचानां धर्माणां कथनं सदसद्वरम चिनिणेयश्च आडोवकमहायुद्धस्य- तोथेयात्रा Kaya उपचर्णेनम्‌ शुनःरोपकथा'न्ते युद्धस्यस्मरणम्‌। वसिष्ठस्य मित्राचरुणापत्यत्चिस्तरः। निमेर्देहान्तरेगतिः हैहया- नां कथा | हैहयेन भागंघाणांचधः देचौरुपया udara: हैहयस्यकथा हंरेरश्चिन्यां जन्म हयीजातस्य हरेः कथानकम्‌ पकचीरामिषेचनोद्ध वेवृत्तकथनम्‌। पकावल्याः ` कथानकम्‌ |

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( ५६.) | da _कालकेतुना . महायुद्धम्‌ - विश्षेपशक्ति कथन व्यासेन स्वमोहोपपादनम्‌। नारदेनाणि तथाकरणम्‌। नाद्र दस ..विचाहः पुरनपि तस्यैष. विस्तारः स्त्रीसाचं गतस्यनारदह _पुनःपुरुषत्वप्रा्तिः। हरिणा सहासःया अभावळथनस्‌। भगवे. | ध्यानादिकम |

सप्तम स्कन्ध ;

._. सूर्य सोमोहुभवानां कथारस्मः तदन्सयस्यचिस्तारः सुर | न्यकाया च्यवनाय प्रदानम्‌। सुकन्या दैयसिषजो

रविपुत्रप्रसादजा च्यवनस्य युवावस्था। शशातेर्यज्ञकरणा | तत्राश्‍विनो:खोमपानम्‌ | तह्वंशकथनम्‌। कळुत्स्थादोनामुत्पत्ति , सत्यत्रतकथा Kas: कथानकम्‌। चिशङोः स्वगंचासः हरिशचन्द्रेनृपे सतिन्रिशङ्खोविशवामि्ेण समागम: gR कथा राज्ञःपुत्रोत्सवः शनःशपवधाश्याकथा Ra मित्रेण शनःशेपस्य मोचनम | हरिश्चन्द्रेण चिश्चामित्रचेस हरिश्चन्द्रस्य राज्यविध्व॑ंसः | नपस्य दक्षिणा दानयल्ञः aa शोकः। हरिश्चन्द्रेणात्मचिक्रयः चाण्डाळेन हरिङ्चन्द्रक्रय हरिश्चद्रस्य चाण्डाळगृहेऽचस्थानम्‌। भूभृतःपुत्रभार्याकध पल्लीमभिज्ञाय हरिश्चन्द्रस्य शोकः। हरिश्चन्द्रस्य खर्गचास शताक्षो महिमा राजवार्तायाः प्रश्‍न: गौरीजन्म नानापीडे

दुभवश्च पावत्या हिमालयाज्ञन्म | आत्मतत्त्व निरूपणम्‌ विश्‍वरूपद्शंनम्‌। ज्ञानस्य मोक्षार्थत्वम.। मन्त्रसिद्धेःखाघत्म्‌

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|

( ५७ ) .

ञह्मतत्त्वम्‌ भक्तिमहिमा देव्या महोत्सवत्रतानि स्थानानि.च सगचती पूजनस्‌। ब्रह्मपूज्ञा चिधानम्‌। अष्टमस्कन्धे :— .

मनवे देव्या घरदानम्‌ वराहेण घरोद्धरणम्‌ मनुवंशवर्णनम्‌ | शियञतकथानकम्‌ भूमण्डलस्य घिस्तारः देवीवणेनं देव्यु- qR सूलादू्ध्व॑महार्यचणेनम्‌। इल्ठावृत्तव्णनम्‌। वर्षान्तगेत सेठ्यसेचकत्यकथनम्‌ | तत्र सेव्यसेबकरूपाणां वर्णनम्‌ घर्षान्तरै क्रमप्राप्ता सेव्यसेषकता। द्वीपान्तरसमाचारः। Rea समाचारः लोकालोकगिरिव्यचस्था रवेर्गमनमांद्या दिप्रकारः सोमादीनां गत्यदुसारैण चिचिघं फलम्‌ श्वुवमण्डलसंस्थानम्‌। राहुमण्डऊ सूर्यचन्द्रोपरागश्च | तळादेवेणेनम्‌। तलातळस्थितिः। “नरकस्वरूपम्‌ पातकोपपाद्नम्‌। शिष्टानां नरकाणां चर्णनम्‌। 'देव्याराधनम्‌

नवमस्कन्धे 1

क्षेपेण शक्तिवर्णनमम्‌। पंचप्रकृतिसंभवः देवतादिसष्टि “सरस्वतीस्तोत्र पूजादि धर्मात्मजेन नारदाय सरस्वती महास्तोत्र Kadal लक्ष्मीगंगा भारतोनां जन्म पृथ्वीलोके। तासां ` शापोद्धारप्रकारः | गङ्गादीनां समुत्पत्तिः कलौ कत्तेनश्च शत्तयु- त्पत्तिप्रसङ्गतोभूमिशक्तेःसस्ुत्पत्तिः | धरादेव्या अपराधेछृतेस ति- -नरकादि फलप्राप्तिकथनम्‌। गङ्गोत्पत्तिः। राधाङष्णाऽङ्ग .सभवाया गङ्गाया गोलोके agak: laga नारायणप्रिया- |

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(ve) सिति कथनम्‌। गङ्गाविष्ण्वोः परस्पर सश्वन्धकरणम्‌। दुङस्युपाख्यानप्रशनः। ARISEN QIZA अन्यं! wie खुतायास्तुलस्याः:कथा शङ्ड्ेमलुर्यः सडतिः sarang तयोचिवाहानन्तर देवानां वैकुण्डशम्मम | gys देवेः सह संग्रामः | शहु्यूडमहेशयोयुद्धम्‌। युद्धारम्मः L जनादनेन Ng चूडस्यकचचहरणम्‌। तुळसीसंगमवर्णनंतन्माहात्म्यः्व महामन्त्र सहित तुल्सीपूजनम्‌। सांविध्याख्यानम्‌। तस्यः रःजोद्रेजन्म l अध्यात्मप्रशनः दानधर्म फलम्‌ नानादान Kari साविञ्ये- सूलशक्ति महामन्त्रदानम्‌ पातकानां फलानि छुण्डेण ये Ka तेषां लक्षणम्‌ अवशिष्टानां कुण्डानां कथनम्‌। पुनरपि Ria कुण्डानां कथनम्‌। देवीभकत्या AASIAN ऋथनम्‌ कुण्डानां लक्षणम्‌। देचीमहोत्कपेः। महालक्ष्म्याख्यानम | लक्ष्मी- जन्मादेरनारदाय कथनम्‌। शक्रस्य AAR प्रति गमनम्‌ महालक्ष्म्यचेनक्रमादि। स्वाद्दाशक्तेरुपास्यानम्‌। स्वधायाः- समुपाख्यानम्‌। दक्षिणाया उपाख्यानम्‌ | षष्टी देव्याउपाख्यानम | _ मंगलचण्ड्याः कथा मनसायाः कथास्तोत्रादि सुरभ्याख्यानम्‌। राधाया दुगायाश्च चरित्रम्‌ दशमस्कन्धे :--- मनोःस्वायम्भुवस्याख्यानम। भगवत्या विन्ध्याद्रिगमनम | विन्ध्येन भानुमार्गेनिरोधः। वृषध्वजस्तुतिस्तस्मै वृत्तान्तकथनञ्च। मद्दाविष्णुस्तोत्रम्‌। अगस्त्येन देवी प्रार्थनातो विन्ध्याद्रेच द्वि कुण्ठनम्‌। सु निना चिन्ध्यवृद्धिकुण्ठनम्‌ स्वारोचिषस्य मनो: कथा।

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( ५६ )

चाश्षुषस्य मनोः कथा सावणेम॑नोः कथा महाकालीचरितम्‌॥ महालक्मीमहासरस्वत्योश्चरितम्‌। नघमादि मनूनां चरित्र घर्णनस्‌ Ee

एकादशस्कन्धे 1—

मीतःकृत्यम्‌। शौचादि विधि: स्नानादि विधिः रुद्राक्ष धारण महिमा च। रुद्राक्षाणां वहुविघत्व कथनम्‌। जपमाला Gaag रुद्राक्ष महिमा | एकवकत्रादि स्द्राक्षाणां घर्णनम्‌। भूत शुद्धिः शिरोव्रतचिधानम्‌। गौण भस्मादि घर्णनम्‌। तस्थ चिविधत्वं माहात्म्यक्च भस्म घारण चिस्तर: भस्मनो- महिमा विभूति धारण माहात्म्यम्‌ तिपंद्रोध्वे पुण्ड्योर्महिमा ।. सन्ध्योपासनम्‌ सन्ध्यादि छृत्यम्‌। पूर्णोपचारादि कथनम्‌। मध्याह संध्या करणम्‌ ब्रह्मयज्ञादिकम्‌ गायत्री पुरश्वरणम्‌ l- वेश्वदेवादिकम्‌। भोजनान्ते करणीयं तप्तक्रच्छादि लक्षणञ्च काम्यकर्म संग्रहणं प्रायश्चित्तविधानञ्च |

द्वादशस्कन्धे ;--

गायच्या ऋष्यादि कथनम्‌। घर्णानां शक्त्यादि | जगन्मातुः कघचम्‌। गायत्री हृदयम्‌। गायत्री स्तोत्रम्‌। गायत्री नाम सहस्रम्‌। दीक्षा घिधिः। केनोपनिषत्कथा गौतम शापेन: घ्राह्मणानामन्यदेवतोपासनश्रद्धा द्वीप घर्णनम्‌। पद्मरागादि निर्मित प्राकार घर्णनम्‌। चिन्तामणि ग्रह चर्णनम्‌। जनमेजयेन देवी मरचकरणम्‌। उपसंहारः पुराण फलदशेनञ्च

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तत्मतिपाद्य विषय! पुराण पा० १०० अप

परा यथा :—

'अथ ते सम्प्रचक्ष्यामि पुराणंसवे सिद्धिदम | भविष्यं भवतः सवेलोकाभीएप्रदायकस्‌ | तत्राहं सवेदेघानामादिकर्ता समुद्यतः | 'सष्ट्य्थ तत्र सञ्जातोमनुः स्वायस्थुचःपुरा मां प्रणस्यपप्रच्छ धर्म सर्वार्थलाधकम | अहं तस्मै तदाप्रीतः meai धर्मसहिताम पुराणानां यदाव्यासो व्यासञ्चक्रेमहामतिः | तदा तां संहितां सर्वा पञ्चघा व्यभजन्मुनिः अघोरकट्पवृत्तान्तनानाश्वर्यकथा चिताम्‌ ।” तत्र प्रथम पर्वणि :--

“तत्रादिमं स्मृत पवे ब्राह्म यत्रास्त्युपक्रमः सूतशीनकसम्वादे JUNIA संक्रमः | आदित्य चरितः प्रायः सर्वाख्यान समाचितः | स्यादि लक्षणोपेतः शास्त्रसर्व॑खरूपकः पुस्तलेखकळेखानां लक्षणञ्च ततःपरम्‌ |

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( ६१)

संस्काराणाञ्च सर्वेषां लक्षणञ्चाचकी तितम्‌ पक्षत्या दितिथीनाञ्च कल्पाः सत्त कीतिताः॥' ` अएमाद्याः रोषकदपा वैष्णवेपर्वणि ega: शोचे कामतोभिन्ना सौरेचान्त्यकथाचयः | senei पश्चान्नानाख्यानसमाचितम्‌ | पुराणस्योपसंहारः सहित पवे पञ्चमम्‌

CT qag पूवेस्मिन्‌ ब्रह्मणो महिमाधिकः

द्वितीय दृतीय चतुथ पञ्चम Tag:

“बम कामे मोक्षे तु विष्णोश्चापिशिचस्य | | द्वितीये तृतीये सौरो वर्ग चतुष्टये। | ग्रतिसरगांव्हयन्त्वात्त्यं प्रोक्त सवे कथाचितम ।' एतद्गचिष्यं निदिष्टं पवंव्यासेन धीमता aganaga तु पुराणं परिकीतितम्‌।

भविष्यं सर्वेदेघानां साम्यं यत्र प्रकीतितम्‌। गुणानां तारतम्येन समं ब्रह्मेति हि श्रतिः”

तत्फलश्रृतिः :---

तलिखित्वा तु यो दद्यात्पीष्यां चिद्वान्विमत्सरः।' गुडघेनुयुत हेम घस्त्रमाऱ्यविभूषणे: | वाचकम्पुस्तकञ्चापि पूजयित्वा चिधानतः। गन्धाद्यैभॉज्यभक्ष्येश्च इत्वानीराजनादिकम्‌।| यो वै जितेन्द्रियो भूत्वा सोपचासः समाहितः ` अथवा यो नरो भक्त्या कीतयेच्छुणयादपि (८

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( ६२ ) सुक्त: Tanaka: प्रयाति त्रह्मणःपद्म्‌ -योऽप्यच्चक्कमणीमेतां भचिष्यस्य निरूपिताम DE श्णयान्चेती भुक्ति सुचि Rea |

6 MV hoe ०. सा पका.

FX PAN TI नारदीय पुराणम्‌ तद्विषयाश्च ¦: |

“ag विप्र ! प्रवक्ष्यामि पुराण नारदीयकम्‌ पञ्चविशतिसाहस्रं वृददश्चित्रकथाश्रयम IIR प्रथमपादे ३-- “सूत शौनक सम्वादः सृष्टि संक्षेप चणेनस्‌ | नानाधर्मकथाः पुण्याः प्रवृत्तः समुदाहृताः | प्राग्सागे प्रथमे पादे सनकेन महात्मना 1” 'ूवेभागे द्वितीयपादे :-- ` “ह्वितीये मोक्षधमांख्ये मोक्षोपायनिरूपणम्‌ वेदाङ्गानाञ्च कथनं शकोत्पत्तिश्च चिस्तरात्‌। सनन्द्नेन गदिता नारदाय महात्मने |” पूर्वभागे तृतीयपादे !-- महातन्त्रे समु द्विष्ट पशपाश घिमोक्षणम्‌ | मन्त्राणां शोधनं दीक्षा मन्रोद्धारश्च पूजनम्‌

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(.६३ ).

प्रयोगाः कवचंचेव सहस्र स्तोत्रमेच च।

गणेशसूयेचिष्णूनां शिवशक्त्योरनुक्रमात्‌। ,

सनत्कुमार मुनिना नारदाय तृतीयके ।” यूर्वभागे चतुर्थपादे ;:—

पुराण रक्षणञ्चेच प्रमाणं दानमेव

पृथक्‌ पृथक्‌ समुद्दिष्टं दानकाळः पुरःसरम्‌ |

चेत्रादि सचेमासेषु तिथीनां पृथक्‌ पृथक्‌ |

शोक्तस्प्रतिपदादीनां त्रत सर्वाघनाशनम्‌।

सनातनेन सुनिना नारदाय चतुर्थके

पूर्वेभागोऽयसुदितो वृहदाख्यान सञ्ज्ञितः 1

-तढुचरमागे :—

अस्योत्तरैविभागेतु प्रश्‍न एकादशी चते |

_ घशिष्ठेनाथ सम्वादो मान्धातुः परिकीतितः | रुक्माङ्गद कथापुण्या मोहिन्युत्पत्तिकमे | वसुशापश्च मोहिन्ये पश्चादुद्धरणक्रिया | गंगा कथा पुण्यतमा गयायात्रानुकीत्तेनम्‌। काश्यामाहात्म्यमतुलम्पुरुषोत्तस चर्णनम्‌ l यात्रा विधानं कषेत्रस्य बह्वाख्यानसमन्वितम्‌ | प्रयागस्याथ माहात्म्य कुरुक्षेत्रस्यतत्परम्‌। 'हरिद्वारस्य चाख्यानं कामोदाख्यानकन्तथा। -चद्रीतीर्थमाहात्म्यं कामाख्यायास्तथेच

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( ६९ )' प्रभासस्य माहात्म्यं पुराणाख्यानकन्तथा.। गोतमाल्यानकम्‌ ' पश्चाद्‌ वेदपादस्तवर्ततंः | MANAS माहात्यं SEMU सथा! ` सेतु माहात्म्य कथनं anara | अवन्त्याश्चंच माहात्स्य मथुरायास्वत-पर | वृन्दावनस्य अहिसा उसो नह्यान्तिकेगतिः मोहिनीचरितम पश्चादेव वे नारदीयकम्‌ |

तत्फरश्रति

यः श्र्णोति नरोभक्त्या श्रावये समाहितः | याति ब्रह्मणो धाम नात्र कार्या विचारणा | यस्त्वेतदिषपूर्णायां धेनूनां सप्तकाचितम्‌ : . प्रद्याद्‌्विजवयाय रमेन्सोक्षमेच | यश्चानुक्रमणीमेतां नारदीयस्य वर्णयेत्‌ | श््णुयाद्वेक चित्तेन सोऽपिस्वर्गगतिळभेत्‌

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मार्कण्डेय पृराणम्‌

तत्मतिपाद्यविषयाश्र नारदपुराणे पूर्वमागे ८७ २० उक्ता यथा !--

“यत्राधिकृत्य शकुनीन्‌ सर्वधर्म निरूपणम्‌ ` मार्कण्डेयेन सुनिना जेमिनेः प्राक समी रितम्‌ ``

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( ६५. ) पक्षिणां घर्मेलज्ञानां ततो जन्म निरूपणम्‌। पूवेजन्मकथा चेषां घिक्रिया दिचस्पतेः ॥. तोर्थयात्रा बलस्यातो द्रोपदेयकथानकम्‌ |- हरिश्चन्द्रकथा पुण्या युद्धमाडीबकाभिधम्‌ पितापुत्रसमाख्यानं द्त्तात्रेयकथा Aa: | हैहयस्याथ चरितं महाख्यानसमाचितम्‌ N मदाललाकथा प्रोक्ता ह्याळर्काचरिता चिता abastar पुण्यं नवधा परिकीतितम्‌ ` कव्पान्तकालनिद्शो यक्ष्मखुष्टिनिरूपणम्‌। ` रुद्रा दिसृश्रिप्युक्ता द्वोपवर्षानुक्ीत्तेनम्‌॥ मनूनां कथां नानां कीत्तिताः पापहारिकाः तालु दुर्गा कथात्यन्तं पुण्यदा चाष्टमेषन्तरे तरपश्चात्प्रणचोत्पत्तिसन्रयीतेजः समुद्भवः | मारत्तेण्डस्य जन्माख्या तन्माहात्म्यसमाचिता वेचस्वतान्वयश्चापि चत्सव्याश्चरितं ततः |

खनित्रस्य ततः प्रोक्ता कथा पुण्या महात्मन: अघिक्षिद्चरितचेच किमिच्छ व्रतकीर्तनम्‌

. नरिष्यन्तस्य चरितं इक्ष्वाक्ुचरितं ततः . तुलस्याश्वरितं पश्चाद्रामचन्द्रस्य सत्कथा |

कुशवंशसमाख्यानं सोमवंशानुकीतेनम्‌॥ ` पुरूरवः कथा पुण्या नहुषस्य कथादुता

: .. ययाति चरितं पुण्यं यदुवंशानुकोतेनम्‌ `

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श्रीकृष्ण बाळचरितं साशुरं,चरितं ततः ... ` | द्वारकाच RAAE कथा खर्वाचतारज्ा | ततः सांख्यलपुददेशः प्रपञ्चासत्वकी सनम | मार्कण्डेयस्य चरितं पुराणश्रचणे फलम्‌

यः श्रणोति नरोभक्त्या पुराणसिद्मादराल्‌ ।. मार्कण्डेयाभिधं चत्स स॒ रमेत्परमां गतिम्‌.॥ यस्तु व्याकुरुते सेतच्छेवं.स लभते पदम्‌ | तत्प्रयच्छे लि खत्वा यः सौवर्णकरिरू युतम्‌ कातिश्यां द्विञचर्याय ळमेदु ब्रह्मणः पदम. श्रुणोति श्रावयेद्वापि यश्चाजुक्रमणामिमास्‌ मार्कण्डेय पुर।णस्य खलमेद्वाच्छितरफलम्‌।

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EN - AAI राणस ` तत्यतिपाध्विषयात्र-- | भगवतोऽचतारः, सृष्टिप्रकार:, विष्णुपूजा; अभिपूजा, मुद्रादि- लक्षणम्‌ , दीक्षा, अभिषेकः, मण्डपलक्षणम्‌, कुशमार्जनविधिः, : पवित्रारोपः, देवताग्रतनादिनिर्माणप्रकारः, ' शाळग्रामलक्षणपूजे, | देचप्रतिष्ठानियामकदीक्षा, देवप्रतिष्डाचिधिः, ब्रह्माण्डखरूपं, गङ्गा | दितीर्थमाहात्म्यं, दीपवर्णनम्‌ , ऊद्दर्वाघोलोकवर्णनम्‌, ज्यो तिञ्चक् | खरूपम्‌। युद्धजयोपायषटकर्म विधानम्‌,, यन्त्रमन्त्रौषधप्रकार, |

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( ६७ )

कुञ्जिकाचेनविधिः, कोटिहोमधिधानम्‌ , त्रह्मचय्येघमेः,: श्राद्ध- कल्पः, अहयज्ञ:,: वेद्किस्मात्तेकस्मेंणी, प्रायश्‍चित्तम.,. तिथिमेदे- aag, वारत्रत नक्षत्रत्रते, मासत्र॒तम्‌ ,. दीपदानघिधिः, नूतन- व्यूहारम्मादि, नरक निरूपणम्‌, दानव्रतम्‌ , नाड़ी चक्रम्‌। सन्ध्या- 'विधिः, गायञ्यर्थः, शिवस्तोत्रं, राज्याभिषेकः, राजधम्मंः, राजाध्येय शास्त्रम्‌, शुभाशुभशक्ुनादि, मण्डलादि,. रमणदीक्षा- विधिः, श्रीरामनतिः, रल्ललक्षणम्‌, धनुचिद्या, व्यवहारघिघिः, देवासुरयोयु द्वम्‌, : आयुर्वेदः, गजादिचिकित्सा, पूजाप्रकारः | शान्तिविधिः, छन्दः शास्त्रम्‌ , साहित्यम्‌, शिष्टानुशासनम्‌ , सृष्ट्यादि प्रलयचणने, शारीरिकरूपम्‌, नरकघर्णेनम्‌, योग: R- ज्ञानम्‌, पुराणमाहात्म्यञ्च |

बह्मवेवचं पुराणम्‌

तत्प्रतिपाद्यविषयाश्च बृहन्नारदीये पा० १०१ Ao

उक्ता यथा— '

ब्रह्मोचाच-- KY वत्सः Yara पुराणं दशमं तव

ब्रह्मवेवत्तेकं नाम वेदमार्गानुद्शांकम्‌। साचणिर्येत्र भगवान साक्षाद asas: नारदाय पुराणार्थं प्राह सवेमली किकम्‌ | घर्माथेकाममोक्षाणां सारः NA हरे। तयोरमेद्सिद्धयथं

ब्रह्मचेचत्ते मुत्तमम्‌ |

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( ६८ ) ' रथन्तरस्य कदपस्य वृत्तान्तं यन्सयो दितम्‌ शतकोटि पुराणं तत्‌ संक्षिप्य प्राइ चेदचित्‌ : व्यासश्चतुर्दा सव्यस्य ्र्मयैयते संज्ञितम्‌ - 7 अष्टादंश खह्मन्तत्पुराणं परिकीत्तितम्‌ ` ` ब्रह्म ९१'प्रकति विघ्नेश कृष्ण खण्ड ससा चितम्‌ः। ` aa सूतषिसस्वादः पुराणोपक्रमो मतः॥ तत्रप्रथमें ब्रह्मखण्ड : सृष्टिप्रकरण त्वाद्य ततो नारदवेधसोः | - विवादः सुमहान्‌ यत्र द्वयोरांसीत्पराभचः ` -- शिचलोकग तिः पश्चाञ्ज्ञानलाभः शिवान्सुनेः शिचवाक्येन तत्पश्चात्‌ मरीचेनारदस्य तु मननशञ्चैच सावणिज्ञानाथ सिद्धसेविते | आश्रमे खुमहापुण्ये त्रेलोक्याश्चर्यं कारिणि एतद्धि ब्रह्मखण्ड हि श्रत पापविनाशनम्‌ | द्वितीय प्रकृति खण्ड ¦ “ततः सावणिसम्बादो नारद्स्य समी रितः | कृष्णमाहात्म्यसंयुक्तो नानाख्यानकथोत्तरः प्रकृतेरंशभूतानां कलानाश्चापि- वर्णितम्‌ माहात्यं पूजनाद्यञ्च Aat यथास्थितम्‌ 'एतत्प्रकृतिखण्डं हि श्रुतं भूतिविधांयकम्‌ तृतीये गंणश खण्ड : गणशजन्मसम्प्रशनः सपुण्यकमहात्रतम्‌ |.

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( ६६ )

पावेत्या: कात्तिकेयेन सह विध्नेशसम्भवः Il: चरितं कात्तेवीर्येस्य जामद्ग्न्यस्य चादुतम्‌ विवादः खुमहान्पश्चाज्ञामदग्न्यगणेशयो: एतह्विष्नेशखण्डं हि सवे विप्नविनाशत्नम |”, . .

चतुर्थे श्रीकृष्णजन्मखण्डे £--

“श्रोकृष्णजन्म सम्प्रश्‍नो जन्माख्यानं ततो<5ड्भुतम्‌ गोकुळे गमन पश्चात्पूतना RINSKE: बाल्यकौमारजा लीलाविविधास्तत्र afaa: रासक्रीडा गोपीभिः शारदी समुदाहृता रहस्ये राधया क्रीडा चणिता बहुविस्तरा | सहाक्र्रेण तत्पश्चान्मथुरा गमन हरेः॥ . कंसादीनां षधे वृत्ते सदस्यद्विजसंस्छृतिः | काँश्य सान्दीपनेः पश्चादु विद्योपादानमदुभुतम्‌ यवनस्य TA: पश्चाद्‌ डारकागमन हरेः नरकादि घधस्तत्र कृष्णेन घिहितो५दुभुतः कृष्णखण्डमिढ्‌ घिप्र | नणां संसार खण्डनम्‌ |

तत्फलश्रृति ;--

“परितञ्च श्रुतं ध्यातं पूजितं चामिषणितम्‌। इत्येतदु ब्रह्मवेवत्त पुराणं चात्यलौ किकम्‌॥ वयासोक्त' चादिसस्भूतं पठन, *रण्वन' घिसुच्यते। चिज्ञाततज्ञानशमनाद्‌ घोरात्संलारसागरात्‌॥. . :

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( ७० )

Rai .च.यो दद्यान्माध्या.-बेलुससाचितम्‌!.:

ब्रह्मलोकमचाप्तोति सुक्तो५ज्ञानवस्ञनात ` यश्चानुक्कमणीं चाऽपि पठेद्‌ क्षा aye . सोऽपि इष्णप्रखादेन छभते चाड्छितस्फलम्‌ ॥. .

FN RA व्यास ग्रणीते महापुराणे प्रतिपाद्य विषयाः नारद्रपुराण १०२ ३० उक्ता यथा ;-- ब्रह्मोवाच | | श्टणु पुत्र ! प्रवक्ष्यामि पुराण लिंगसंशितम्‌ पठतां श्एण्वताञ्चेव भुक्तिपुक्तिप्रदायकम्‌ यञ्चलिङ्गाभिधे तिष्ठन्‌ घहिलिंगे हरोऽभ्यधाल्‌ ` मह्यं धर्मा दिसिद्ध धथेमशिकरपकथाश्रयम तदेच व्यासदेवेन भागद्ठयसमाचितम्‌ पुराणं छिगमुदितं यह्णार्यानविचित्रितम्‌ ठदेकादशसाहस्रं हरमाहात्म्यसूचकम्‌ | परं सदेपुराणानां सारभूतं जगत्त्रये। | पुराणोपक्रमेप्रश्नः सृष्टि संक्षेपतः पुरा `

तत्र पूर्वमागे- -

ana ततः प्रोक्त कल्पाख्यानं ततः; परम!

लिगोट्डवस्तदर्चा कीतिता हि ततः परम्‌ `

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(( ७१ )

सनत्कुमारशैलादि 'संघाद्श्वाथ 'पाचनः। `. - . ततो दंधी चित्रित युगधर्म निरूपणम्‌ - ` . ततो सुचनकोषाख्या सूर्येसोमान्वयस्ततः | ततश्च चिस्तरात्सगेंस्त्रिपुराख्यानकस्तथा लिंगप्रतिष्ठा ततः पशुपाशविमोक्षणम्‌ - शिघत्रतानि तथा सदाचारनिरूपणम्‌'॥ प्राय श्चित्तान्परिष्टानि काशीश्रोशेलचणेनम्‌ अन्धकार्यानकपश्चात्‌ चाराहचरितं पुनः ` नुसिहचरितं पश्चाज्नलन्धरवधस्ततः |. Id सहस्जनामाथ दक्षयज्ञविनाशनम्‌॥ कामस्य दहन पश्चात्‌ गिरिजायाः करग्रहः | ततो चिनायकाख्यानं नृत्याख्यान शिवस्य 'उपमन्युकथा चापि पूर्वेभाग इतीरितः !” उत्तर भागे विष्णुमाहात्म्यकथनमस्वरीषकथा ततः ` सनत्कुमारनन्दीशसम्वादख्वपुनमु ने शिवमाहात्म्यसंयुक्तल्नानयागादिक ततः | सूर्यपूजाविधिश्चेव शिवपूजा सुक्तिदा N. दानानि बहुधोक्तानि श्राद्धप्रकरणन्ततः | प्रतिष्ठा तत्र गदिता ततोऽघोरस्य कीत्तेनम्‌॥ व्रजेश्वरी महाविद्या गायत्री महिमा ततः। `: ऽयस्बकस्य. माहात्म्यं पुराणश्रवणस्य पाः > `

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( ७२ )

एवस्योपरिभागस्ते छंगस्य कथितो सया व्यासेन हि fager रुत्रमाहात्म्यसूखिनः T लिखित्वेतत्पुराणन्तु Keagenan . फाढ्गुन्याँ पूणिमायाँ यो ददयाङ्गकत्या - द्विजातये यःपठेच्छ्णुयाद्वापि SE पापापहं नरः | सशुक्तभोगोळोकेऽ स्मिञन्ते शिवपुरम्बजेत्‌॥ लिगानुक्रमणीमेतां पठेद्यः शणुयात्तथा |

ag शित्रभक्तो तु लोकद्वितयभो गिनी जायेतां गिरिजाभरत्तु: प्रसादान्नाच संशयः |

वरा[हपुराण स्‌ तद्विषयाइच नारदीय पुराण पूर्वभागे बृहदुपाख्याने चतुथभाग १०३ अध्याये उक्ता यथा ¦ श्री ब्रह्मोवाच

Ay वत्स | प्रवक्ष्पामि वाराहं वै पुराणकम्‌ भागद्वययुतं शशव द्विष्णुमाहात्म्यसूचकम्‌ | मानवस्य तु कल्पल्य प्रसङ्ग मत्कृतं पुरा | निबबन्ध पु राणेऽस्मिश्चतुन्विशसहस्रक्रे | व्यासो हि घिदुषां श्रेष्ठः साक्षान्नारायणो भुवि तत्रादोश॒भसंघादःस्टृतोभूमिषराहयोः।” |

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( ७१ )

N तत्र पूव भागे :

“अथा दिरुतवृत्तान्ते रम्यस्यचरितं ततः | दुज्जेयाय तत्पश्चाच्कछाद्धकटपउदी रित; सहातपस आख्यानं गोर्य्यत्पत्तिस्ततःपरम्‌ | चिनायकस्य नागानां सेनान्य।दित्ययोरपि॥। गणानाञ्च तथा देव्या धनदस्य वृषस्य आख्यानं सत्यतपसो व्रताख्यानसम न्वितम्‌॥ अगस्त्यगीता तत्पश्चाहुद्रगीता प्रकीतिता महिषासुरविध्वंसे माहात्म्यञ्च त्रिशक्तिजम्‌। पर्व्चाध्यायस्ततःश्वेतोपाख्यानं गोप्रदानिकम्‌ | इत्या दिक्कतवृत्तान्त प्रथमोद्देशनामकम्‌ भगवदुधर्मके पश्चादुब्रततोर्थेकथानकम्‌ द्वात्रिशद्पराधानां प्रायाश्चित्त शरीरकम्‌ तीर्थानाञ्चापि सव्येषां माद्दात्म्यं पथगीरितम्‌। मथुराया विशेषेण श्राद्वादोनां चिधिस्ततः u adi यमलोकस्य ऋषिपुत्रप्रसडूतः |

विपाकः कर्म्मेणाञ्चैव चिष्णुत्रत निरूपणम्‌ गोकर्णस्य माहात्यं कीत्तितं पापनाशनम्‌ इत्येष पूवेभागोऽस्य पुराणस्य निरूपितः

उत्तरभागं

उत्तरे प्रविभागे तु पुस्त्यकुरुराजयोः | संचादे सर्वतीर्थानां माहात्म्यं चिस्तरात्पृथक्‌॥

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( ७४ ) अशेषधर्माङ्चार्याता पौष्करपुण्यपर्वे यः ।.: Tg इत्येवं तब चाराहं प्रोक्त पापबिनाशनस्‌ *

अस्प Sal पठतां श्टण्वताञ्चैच भगचद्व Rendam काञ्चन गरुडं कत्वा तिळघेनुसमाचितम्‌'॥ लिखित्वेतव्च यो दद्याच्चैत्र्यां विप्राय भक्तितः | लभेक्वेष्णवं घाम देवषिगणवन्दितः [| यो चानुक्रमणीमेतां »णोत्यपि पठत्यपि | सोऽपि भक्ति लमेद्विष्णौ संसारोच्छेद्कारिणीम्‌

वामन पुराणस्‌ तत्प्रतिपाद्य विषयाश्च नारद पुराणे उक्ता यथा

| ब्रह्मोवाच | | “जएणुवत्ख। प्रवक्ष्यामि पुराणं घामना भिघस्‌।. त्रिविक्रम चरित्राढ्य' दशसाहस्नसंख्यकम्‌ , कूम्मेकल्प समाख्यानं घर्गज्रयकथानकम्‌। ANZA समायुक्त वक्त श्रोत्‌ शुभावहम्‌ ॥” तश्न पूं भागे “पुराणप्रश्‍न: प्रथमं त्रह्मशीषंच्छिदा ततः : कपालमोचनाख्यान दक्षयज्ञ विहिसनम्‌ हरस्य कालरूपारूपा RAE दहनन्ततः 1 .:

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( ७५ )

sgg नारायणयो यंद्ध देवासुराहयम्‌॥ ` सुकेश्यकेसमाख्याने ततो सुवनकोषकम्‌। ततः कास्यत्रतार्यानं श्रोदुगांचरित ततः तपती चरितं पश्चात्कुरुक्षेत्रस्य वणनम्‌ | खरोमाहात्म्यमतुळ पार्वती जन्म कीत्तेनम्‌॥ तपस्तस्या चिचाहश्च गौय्युपाख्यानकन्ततः | ततः कौ शिक्युपाख्यानं कुमारचरितं ततः ' ततोऽन्धकघधाख्यानं साध्योपाख्यानकन्ततः जावालिचरितं पश्चाद्रजायाः कथादुसुता अन्धकेश्वरयोर्युद्धं गणत्वंचान्धकरूय च। ` मरुतां जन्म कथनं बलेश्च चरितं ततः ` . ततस्तु लक्ष्स्याश्चरितं तविक्रममतः परम्‌। प्रहाद्‌ तीथं यात्रायां प्रोच्यन्ते तत्कथाः शुभाः ततश्च धुन्धु चरितं प्रेतोपाख्यानकततः नक्षत्र पुरुषाख्यानं श्रोदामचरितं ततः त्रिविक्रम चरित्रान्ते ब्रह्मप्रोक्तः स्तवोत्तमः प्रहादबलिसंवादे झुतले दरिशंसनम्‌ इत्येष पूवे भागोऽस्य पुराणस्य aatia: N” RR भागे बृहद्वामनारूपे : आरणुतस्योत्तर भाग वृहद्चामन सञ्ज्ञकम्‌। ` माहेश्वरी भगवती खोरी गाणेश्वरी तथाः॥ चतस्रः सं हिताश्चात्र पृथक्‌ -साहस्रसंख्यया ॥-

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( ७६ )

आहेश्वपान्तु कृष्णस्य तदुभक्तानाञ्च कीत्तेनम

आगयचत्यांजयन्मातुरचतारकथादुसुता |

सोर्य्या सूर्य्यस्य महिमा गदितः एापनाशानः-॥

गाणेश्वय्या गणेशस्य चरितश्च महे शिलुः |

इत्येतद्‌ चामन नाम पुराणं सुचि चित्रकम्‌ |

पुस्त्येन खमार्पातं नारदाय महात्मने |

ततो नारदतः प्राप्तं व्यासेन सुमहात्मना

व्यासात्तु लब्धवान्‌ वत्स तच्छिष्यो रोमइषणः |

चाख्यास्यति चिप्रेस्योनेमिषीयेभ्य एव

एवं परम्पराप्राप्तं पुराणं चमनं शुभम्‌ ॥” तत्फलश्रति ;--

“ये पठन्ति aaka तेऽपियान्ति परांगतिम्‌ |

लिखित्वेतत्पुराणन्तु यः शारद्विषुवेऽपयेत्‌

विप्राय बेदचिदुषे घुतप्रेनुसमा चितम्‌ |

ससुद्धत्य नरकान्नयेरस्बगं पितुन्‌ स्वकान्‌

देदान्ते भुकतभोगोऽसौ याति A: qaqaq

मत्स्यपुराणम्‌ - तत्मतिपाद्य विषयाश्च तत्रेव २९० अध्याय उक्ता यथा--

सूतउचाच | qg कथितं सवं यदुक्त विश्वरूपिणा |

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( ७9 )

मात्स्यं पुराणमखिलं धर्मेकामार्थंलाधनम्‌ यत्रादौ AJANA ब्रह्माण्ड कथनन्तथा। सांख्य शरीरकम्पोक्त' चतुसु खमुखोदुभवम्‌ देवासुराणामुत्पत्तिर्मारतोत्पत्तिरेच मदनद्वाद्शीतढल्लोकपालामिपूजनम्‌॥ मन्वन्तराणामुद्देशो वन्यराजाभिवर्णनम्‌। सूर्य्याद्ववस्वतोत्पत्तिर्वुघस्यागमनन्तथा 1पतृवशानुकथनं श्राद्वकाळरुतथेच पितृतीर्थप्रवासश्च सोमोत्पत्तिर्तथैच | कीत्तेन॑ सोमवंशस्य ययातिचरितं तथा कात्तेवीर्यस्य माहातय॑ चृष्णिवंशानुकीत्तेनम भृरुशा पस्तथा चिष्णोदेत्यशापस्तथैच कीत्तेनं पुरुषेशस्य वंशो हौताशनस्तथा | पुराणकीत्तेनं तद्वत्‌ क्रियायोगस्तर्थेच Ad नक्षत्रसंख्याकं माकण्डशयनं तथा | कृष्णाष्टमीत्रतंतद्वद्रो हिणी चन्द्रस्‌ ज्ञितम्‌ तड़ागचिधिमाह्दात्म्यं पादयोत्सगं एव च। सौभाग्य शयन तद्वदगस्त्यत्रतमेच तथानन्ततृतोया तु रसकल्याणिनी तथा | आरद्रानन्द्करी तढदुव्रत सारस्वत पुनः डपरागाभिषेकश्च सप्तमीश्नपन पुनः l- भीमाख्या द्वादशी तद्ददनडूशयनं तथा

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( ७८ )

अशून्यशयनं तद्वचथेचांगारक HA | Karang तद्व द्विशोकद्वादशी तथा सेसप्रदानं agar asa karang ग्रहस्वरूपकथनं तथा शिवचतुद्देशी AM सर्वेफलत्यागः सूर्यवारत्रतं तथा | संक्रान्तिस्नपन तद्व ्विमू तिद्ठाइशी रतम्‌ | षि त्रतानां. माहात्म्य तथा स्नानविश्िक्रम; 'प्रयागस्य तु माहात्म्यं सर्वेतीथाचुकी तनम्‌ | 'पैलछाश्रमफल तद्वद्‌ द्वीपलो कानुकोतेनम्‌ तथान्त रिक्षचारश्च भ्रवमाहात्म्यमेच च। ¦: भवनानि सुरेन्द्राणां' जिपुरायोघन तथा पितपिण्डदमाहात्म्यं मन्वन्तर विनिणेयः 'चञ्चाङ्गस्प्र तु सम्भूतिः तारकोत्पत्तिरेच ॥' : तारकासुरमाहात्प्यं घ्रह्मदेवानुकीत्तेनम्‌। | पावेतीसम्भचत्तद्धत्‌ तथा शिवतपोघनम्‌॥ `. अनङ्गदेहदाहस्तु रतिशोकस्त्थेच ।' . गोरीतपोबनं तद्ध द्विरश्‍व नाथप्रसादनम्‌ 'पावेतक्र षिसम्वादस्तर्थवोद्वाहमडुलम्‌ कुमारसम्भवस्तद्वत्‌ कुमारविजग्रस्तथा तारकस्य घधो घोरो-नरलिहोपवर्णनम्‌। ` पझोद्वचचिसर्गस्तु तथेचान्धकघातनम्‌॥: घाराणस्यास्तु माहात्म्यं नमेदायास्तथैष खच.।. | 2

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(. ७६., ) |

'प्रव॒राजुक्रमस्तद्धवत्त्‌ पितुनाथानुकीत्तेनम्‌॥ ` 'ततो भयसुख्नीदानं दानं कृष्णाजिनस्य च। तथा साघिज्युपाख्याने राजघर्मास्तथेच च॥ | यात्रा निमित्तकथनं स्वझमाडुल्यकोत्तनम्‌ | . : बामनस्य, तु माहात्म्यं तथैचादिवराहकम्‌ क्षोरोदमथन तद्वत्कालकूराभिशासनम्‌ प्रासादळक्षणन्तद्वन्मण्डपानान्तु. रक्षणम्‌ पुरूवंरो तु सम्प्रोक्त भविष्यद्राजवणेनम्‌। लुलादानादि वहुशो महादानानुकीत्तेनम्‌॥ कदपानुकोत्तेन तद्वदु्नन्थानुक्रमणी तथा। ` एतत्पचित्रमायुष्यमेतत्कीतिचिचर्धनम्‌ एतत्पवित्र कल्याणं महापापहर YAA 'अस्मात्‌ पुराणादपि.पादमेक पठेतु यः सोऽपि विप्तुक्तपापः | नारायणाख्यं पद्मे ति नूनमनडुचद्दिव्यखुखानि सुङ्क्त

कूम पुराणस्‌ व्यास प्रणीतेपु अष्टादश महापुराणेषु पञ्चदशे पुराए तत्प्रतिपाद्य विपयाश्च RAA दशिता यथा !-- श्री बह्मोवाच-- .

agaa! मरीचेऽद्य पुराण gni aman लक्ष्मीकल्पानुचरितं यत्र कूम्मेचपुहेरिः

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घस्मांथेंकाममोक्षाणां माहात्स्यञ्च पथक्‌ पृथक्‌ | इन्द्रद्यञ्चप्रसङ्घोन प्राहणिस्यो दयाधिकम्‌ ठत्सप्तदशसाहस्रं सचतुःसं हितं शुभम्‌ | यत्र ब्राह्मया(सं हितया) पुरा प्रोक्ता चस्मा नानाविधा सुने। नानाकथाप्रसङ्ग FUI सदुग/तदायकाः | TE भागे | “तत्र पूर्वे विभागे तु पुराणोपक्रसः पुरा | लक्ष्मी प्रयुन्नसस्वाद: कूम षिगणसङ्कथा वर्णाश्रमाचारकथा जगढुत्पत्तिकी सेनम्‌ कालसंख्या समासेन लयान्ते स्तवन चिभोः ततः सङ्क्षेपतः सर्गः Maa तथा | सहस्रनाम पार्वत्या योगस्य निरूपणम्‌ ' खुगुवंशलमाख्यानं ततः स्वायम्सुचस्यः | देवादीनां समुत्पत्तिदक्षयज्ञाहतिस्ततः दक्षस्ृष्टि कथा पश्चात्‌ कश्यपान्वयकीत्तेनम्‌ आत्रेयवंशकथन कृष्णाय चरितं शुभम्‌॥ माक्कण्डक्रष्णसंचादो व्यासपाण्डचसंकथा | युगधर्म्मानुकथन व्यासजेमिनिकी कथा वाराणस्याश्च ARER प्रयागस्य ततः परम्‌ | अेळोक्यवणेनञ्चेव वेदरशाजा निरूपणम्‌ | तदुत्तर भांगे-- | saka विभागे तु पुरा गीतेश्चरी:ततः

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हकक कक कळकळ तारे सके कळ ळक कळल

( ८९ 3

व्याखयोता ततः प्रोक्ता नाना घस्मंप्रवोधिनी॥. .. नानाचिघानां तीर्थानां माहात्म्यञ्च पृथक्‌ ततः। ', नानाघम प्रकथनं त्राह्मीयं संहिता स्सृता ॥. `

अतः पर भगवती सं हितार्थ निरूपणे . . 5

कथिता यत्र घर्णानां पृथग्‌ बृत्तिर्दाहृता ॥,

asal भागे भगवत्यास्य द्वितोयसंहितायाः पञ्चसु पादेषु--

“पादेऽस्याः प्रथमे प्रोक्ता ब्राह्मणानां व्यच स्थितिः | सदाचारात्मिका घत्स ! भोगखोख्यविवद्धिनी ङ्वितोये झत्रियाणान्तु वृत्तिः सम्यक्प्रकीतिता | यया त्वाश्रितया पापं विधयेह ब्रजेद्विचम्‌ तृतोये वेश्यजातीनां वृत्तिर्का चतुविधा यया चरितयां सम्यक्‌ लभते MAJTA N चतुथऽस्यास्तथा पादे Iga AAEN | यया सन्तुष्यति श्रोशो नृणां श्रेयो विवद्धेलः पञ्चमेऽस्यास्ततः पादे JR: सडूरजन्मनाम्‌ | यया चरितयाऽऽप्तो।ति भ।चिनीध्ुत्तमांजनिम्‌ इत्येषा पश्चपायुक्ता द्वितोया हिता मुने तृतीयात्रो दिता सौरो नुणां कामघिधायिनी षोढा षट्कर्मसिद्धि सा बोधयन्ती कामिनाम्‌। चतुर्थो वेष्णवो नाम मोक्षदा परिकीतिता।' . चतुष्पदी द्विजादीनां साक्षाद्‌ त्रह्मस्वरूपिणी ताः कमात्‌ षट्चतुद्रोष॒ साहस्राः परिकीर्तिताः |.

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श्री नारदीयपुराणे पूवभागे बृहदुपार्याने चतथपादे

( <: श्रुति; 3 : " एतत्कूर्मपुराणन्लु Aga Kesan | पठतां sangat नुणां सर्योत्छष्टणतिधड्य्‌ लिखित्वेतत्त यो शक्त्या देमकूमंसमन्वितन | ब्राह्मणायायने दयात. याति परमांगतिम्‌

२७०्४अुराणस्‌

तत्प्रतिपाद्यविषयाङ्च १०४ अध्याये उक्ता यथा ब्रह्मोवाच | .

AJ चक्ष्ये मरीचे पुराणं स्कन्द्स ज्ञितम्‌ | यस्मिन, प्रतिपद्‌ साक्षान्महादेवो व्यवस्थित: ` पुराणे शतकोटौ तु यच्छेचं वणितं मया ळक्षितस्यार्थजातस्य सारो व्यासेन कीतितः स्कन्दाह्ययस्यत्र खण्डाः सप्तेच परिकल्पिताः | एकाशी ति सहस््न्तु स्कान्दं सर्व्वाधकन्तनम्‌ यः श्र्णोति पठेद्वापि स.तु साक्षाच्छिवः स्थितः 1 यत्र माहेश्वरा धर्माः षण्सुखेन प्रकाशिताः `

कपे तःपुरुषेवृत्ताः सवेसिद्धिचिधायिकाः॥. ` `

तत्र माहेश्वर खण्ड !--

“तस्य माहेश्वरश्चायः खण्डः पापप्रणाशनः ॥:

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| (` ८३ )

'किञ्चिन्न्यूनाकेसाहस्रो बहुपुण्यो वृहत्कथ: ।' 'खुचरित्रशतेर्यक्तः स्कन्दमाहात्म्यसूचंक:

यत्र केदारमाहात्म्ये पुराणोपक्रमंः पुरा | 'दक्षयज्ञकथा पश्चाच्छिबळिङ्गाचनेफलम्‌ 'समद्रमथनाख्यान देवेन्द्रचरित तत: २. पावेत्या ससुपाख्यानं विवाहस्तदनन्तरम्‌ झुसारोत्पत्तिकथनं ततस्तारकसङ्गरः |

aa: पशुपताख्याने चण्डाख्यानसमा चितम्‌ दूतप्रवत्तेनाख्यानं नारदेन समागमः |

-ततः कुमारमाहात्म्ये पञ्चतीथेकथानकम्‌ 'घस्मेवर्म्मन॒पाख्यानं नदीसांगरकीत्तेनम्‌ | sagana पश्चान्नाडी जङ्ककथाचिता Il प्रादर्भावस्ततो मह्याः कथा दमनकस्य | 'महीसागरसंयोगः- कुमारेशकथा ततः ततस्तारकयुद्धञ्च नानाख्यानसमाचितम्‌। धश्च तारकस्याथ पञ्चलिङ्गनिवेशनम्‌॥ द्वीपाख्यानं ततः पुण्यं ऊ््वलोकव्यचस्थितः।' ` ब्रह्माण्ड स्थितिमानञ्च वर्करेशकथानकम्‌ [ie महाकाळसमुद्भूतिः कथा चार्य महादुभुता | 'चासुदेचस्य माहात्म्यं कोरितीर्थं ततः परम्‌ 'नानातीर्थसमाख्यानं TA प्रको त्तितम्‌। 'पाण्डवानां कथापुण्या महाविद्या प्रसाधनम्‌

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(: ८४. )) dearen Ara कीमारमिदमद्ञ्चतस्‌ ।. अरूणाचलमाहात्ये सनकत्रहमसकथा गोरीतपःसमाख्यानं - तत्त्तोर्थ निरुणणम | महिषासुरजाख्यानं वघण्यास्य महादसुतः शोणाचळेशिवास्थायं नित्यदा परिकीसिनंस इत्येष कथितः स्कान्दे खण्डो माहेश्वरो ऽदुतः ॥'

द्वितीये वेष्णक खण्डे :- द्वितीयो वैष्णवः खण्डस्तस्याख्यामानि से श्टण 1. प्रथमे भूमिवाराहं समाख्यानं प्रकीतिवस्‌ यत्र घोचककुघ्रस्य माहात्म्यं पापनाशनम्‌ . कमलायाः कथा पुण्या श्रीनिवास स्थितिस्ततः 1. कुछाळाख्यानकश्चाच सुवर्णमुखरी कथा नानाख्यानसमायुक्ता भारद्वाजकथादुभुता मतङ्गाश्जनसंवादः कीत्तितः पापनाशनः पुरुषोत्तममाहात्म्यं कोत्तितं चोत्कले ततः ॥. माकण्डेयसमार्यानमम्वरीषस्य भूपतेः | इन्द्रयुज्लस्थ चाख्यानं विद्यापतिकथा शुभां ॥. जेमिनेः समुपाख्यानं नारद्स्यापि वाडच | नीळकण्ठसमाख्यानं नारसिंहोपवर्णनम |. अश्वमेछकथा राज्ञो ब्रह्मलोकगतिस्तथा | रथयात्रा विधिः पश्च।ज्ञन्मस्नानचि थिस्तथा i S दक्षिणासूर्त्युपाख्यानं गुण्डिचाख्यानक ततः ।' ....

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( ८५ )

-रथरक्षा चिधानञ्च शयनोत्सवकीर्तानम्‌ श्वेतोपांख्यानमत्रोक्ते चहुन्युत्सचनिरूप्रंणम्‌ | 'दोलोत्सवो भगवतो व्रत सांचत्सरांभिधम्‌ पूजा कामिंभिर्विष्णोरुद्दालकनियोगकः | -सोक्षसाघनमत्रोक्त नानायोगनिरूपणम्‌ दशाचतारकथनं स्नानादि परिकीर्तनम्‌

ततो वद्रिकायाश्च माहात्म्यं पापनाशनम्‌ अग्न्य(दि तीर्थमाहात्म्यं वैनतेयशिलाभवम्‌ कारणं भगवद्वासे तीथ कापालमोचनम्‌ 'पञ्चघारामिघं तीथे मेरुसंस्थापनं तथा | -ततःकात्तिकमाहात्म्ये माहात्म्यं मदनालसम्‌॥ 'धूत्रकोशसमाख्यानं दिनङृत्यानि कातिके पञ्चभीष्मत्रताख्यानं कीत्तिद भुक्तिमुक्तिदम Il -तढुव्रतस्य माहात्म्ये विधानं स्नानजं तथा “पुण्ड्रादिकीत्तैनञ्चात्र माळाध्रारणपुण्यकम्‌ पञ्चासृतस्नानपुण्य घण्टानादादिज फलम्‌ -नानापुष्पाच्चेनफळ तुलसीदलजम्फलम्‌ नेवेद्यस्य माहात्म्यं हरिवासन (र) कीतेनम्‌ अखण्डेकादशी पुण्यं तथा जागरणस्य मत्स्योत्सघविधानञ्च नाम माहात्स्यकीत्तेनम्‌ | 'ध्यानादि पुण्यकथन माहात्म्यं HAUATA -सथुरातीर्थमाहात्म्यं पृथगुक्त' ततः परम्‌!

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( ८६ )

बनामां द्वादशानाश्व माहात्यं कीकचितं ततः श्रीमदुभागवतस्यात्र माहात्य्यं कीसित॑ परप l वञ्रशाण्डिद्यसस्वांदसन्तळीळागकाशकम्‌ ` ततो माघस्य माहात्म्य हम DEGEVE EGAU नानाख्यानसमाथुक दशाध्याये निरूपितम्‌ ततो वेशाखमाद्दात्थ्ये शय्यादाना दिजम्फलम्‌ L- जळदानादि विधयः कामाख्यानमतः परस्‌ देवस्य चरितं व्याधोपाख्यानमदुअ तथाक्षयतृतीयादेविशेषात्पुज्यकी चेन ततस्त्वयोध्या माहात्म्ये चक्रत्रह्माव्हतीर्थके भ... ञदृणपापविमोक्षाख्ये तथाघारसहरकम्‌ | स्वगद्वारं चन्द्र हरि धस्मद्दय्यपचर्णनम्‌ N स्वणवृष्टेर्पाख्यानं तिलोदा सरयूयुतिः | सीताकुण्ड yag: सरयूघेधेराचय: गोप्रयारञ्च ga शुरुकुण्डादि पञ्चकम्‌ .. . घोषाकांदीनि तीर्थानि योदश ततः परम्‌ ..... गयाकूपस्य माहात्म्यं सव्वांघविनिवत्तकम माण्डव्याश्रमपूर्व्वाणि तीर्थानि तदनन्तरम्‌ . अजितादि मानसादि तीर्थानि गदितानि च.। इत्येष वेष्णवः खण्डो द्वितीय: .परिकीतित: |

तृतीये त्रद्मखण्ड---

“अतः पर ब्रह्मलण्डं मरीचे उणु पुण्यदम्‌

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( ८७ )

यत्र वै सेतुमाहात्म्ये फल स्नातेक्षणोदुमचम्‌ ॥. ` गालवस्य तपश्चय्यां राक्षसाख्यानक तत | . चक्रतीर्था दि माहात्म्ये देचीपतनसंयुतम्‌ वेतालतोर्थमहिमा. पापनाशादि कोत्तेनम्‌ | मडुलादिकमाहात्स्यं बह्मकुण्डादि चणैनम्‌॥ इनूमत्‌ कुण्डमहिमागस्त्यतीथेभवम्फछम्‌ शासतीर्थादि कथनं . लक्ष्मीतीर्थेनिरूपणम्‌॥ शङ्कादितीथेमहिमा तथासाध्याम्रृतादिजः घनुष्कोट्यादि माहात्म्य क्षीरकुण्डादिज तथा गायच्यादिक तीर्थानां माहात्म्यं चात्र कीत्तितम्‌ रामनाथस्य महिमा तत्त्वज्ञानोपदेशनम्‌ ...- ` ` यात्राविधानकथनं सेतौ मुक्तिप्रदं नुणाम्‌ . र्म्मारण्यस्य माहात्म्यं ततः परमुदी रितम्‌ स्थाणः स्कन्दाय भगवान्‌ यत्र त्चमुपादिशत्‌। घर्स्मारण्यखुसंभूतिस्तत्पुण्य परिकीत्तेनम्‌ कर्म्मसिद्धेः समाख्यानं ऋषिवंश निरूपणम्‌ अप्सरातीर्थमुख्यानां माहात्म्यं यत्र कीत्तेनम्‌ वर्णानामाश्रमाणाञ्च धम्मेतत्वनिरूपणम्‌। देवस्थानविभागश्च घकुलाक कथा शुभा N छत्रा नन्दा तथा शान्ता श्रीमाता मतङ्गिनी। .- पुण्यदात्र्यः समाख्याता यत्र देव्यः समास्थिताः Il इन्द्रेश्वरादि माहात्म्य द्वारकादि निरूपणम्‌

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लोहासुरखसमार्रूयान॑ गङ्गाकूपनिरुणणम्‌ >: श्रीरामचरितञ्य्ञेच सत्यसन्दिरिचर्णनम्‌ जीर्णोद्धारस्यक्रथन शाखन्रतिपादनम्‌ जांतिभेद्प्रकथनं स्थतिश्रस्मेनिरापणभ्‌ | ततस्तु वैष्णवा धर्स्मा नानाख्यानेरुदीरिता: | चातुर्मास्ये. सतः पुण्ये सर्वेधस्म निरूपणम्‌ | दानप्रशंसा तत्पम्चादु रतस्य महिमा सतः i तपसश्चेच पूजायाः च्छिद्रकथनन्ततः | sadat सिदारूपानं शाल़ामनिरूपणस्‌ तारकस्य वधोपायो व्यक्षाञ्चामहिमा तथा ! विष्णोः शापश्च gaza पाव्वेत्यलुनयस्ततः ।। हरस्य ताण्डवं नृत्यं रामनामनिरूपणम्‌ | हरस्य लिङ्गपतनं कथाये जवनस्य . पार्वतीजन्मचरितं तारकस्य वघोष्डुतः | TAT कथनं. तारकाचरितं पुनः दक्षयज्ञ समाक्षिश्च ट्वादशाक्षररुपणम्‌ | ज्ञानयोग समाख्यान महिमा TEMOS: a श्रवणादिक पुण्यञ्च कीसितं शम्मंद्‌. नृणाम्‌ ।.

तृतीय ब्रह्मखण्डस्तोचर.भाने- "ततो Brad शिवस्य : महिमादुठः ! :- - साकारल्या महिमा गोकणेमहिमा तत: . :

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( ८६. )' -खोमवारब्रतश्वापि सोमन्तिन्याः कथानकम्‌॥ भद्रायुत्पत्ति कथनं सदाचारनिरूपणम्‌ Raam समुद्देशो सद्रायुद्वाहवर्णनम्‌ भद्रायुमहिमा चापि भस्ममाहात्म्य कीत्तेनम्‌ शचराख्यानकञ्चेच उमामाहेश्वर AAA N रुद्राक्षस्य माहात्म्यं रुद्राध्यायस्य पुण्यकम्‌ | अ्रवणादिक पुण्यञ्च ब्रह्मलण्डोऽयमीरितः 1 नचतुर्थे काशी खण्ड

“अतः परं चतुर्थन्तु काशीखण्डमचुत्तमम्‌। ` चिन्ध्यनारद्योर्येत्र सम्वादः परिकीत्तितः सत्यळोकप्रभावश्चागस्त्यावासे सुरागमः | पतिव्रता चरित्रञ्च तीथंचय्यां प्रशंसनम्‌ -ततश्च सत्त पूर्याख्या संयमिन्या निरूपणम्‌ | ब्रध्नस्य तथेन्द्रा्योलोकापतिः शिवशम्मेणः अग्नेः समुद्गवश्चेव क्रव्याद्वरणसम्भवः | 'गन्धवत्यलकापुय्योरीश्वय्याञ्च समुद्धवः 'चन्द्रोडुवुधलोकानां कुजेज्याकभुवाँ क्रमात्‌ \ 'सप्तषिणां भ्रुवस्यापि तपोलोकस्य चर्णेनम्‌॥ भुचलोक कथा पुण्या सत्यलोक निरीक्षणम्‌। -स्कन्दागस्त्य समालापो मणिकणों समुद्घः -प्रभावश्चापि गङ्गाया गङ्गानाम सहस्रकम्‌ वाराणसी प्रशंसा भेरवाविमवस्ंततः॥ .

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( ३० )

दण्डपाणी ज्ञानदाप्योर्दुवः खमनन्तरम्‌ ततः कळावत्याख्यानं सद्ध्यारनिरुपणस्‌ ॥' , ब्रह्मवारिसमाख्यानं ततः ahem | छृत्याहत्यविनिदशो gaga mantan ग्रृहस्थयोगिनो seat: कालज्ञानं तवः परस ! दिचोदास कथा पुण्या काशीवर्णनमेव . योगिचञ्चा छोळाकॉसतरशास्वकेजा कथा H दुपदाकेल्य ताक्ष्याख्यारुणाकस्योद्यरुवतः द्शाश्वसेधतीथाख्या मन्दराञ्च गणाधमः पिशाचमोचनाख्यानं गणेशप्रेषणन्ततः ॥: मायागणपतेश्वाथ भुवि प्रादुभघस्ततः | | विष्णुमाया प्रपञ्चोऽथ दिवोदासविसोक्षणम N- ततः पञ्चनदोत्पत्तिबिन्द्रमाधव सम्भचः। | ततो वेष्णवतीर्थाख्या शूलिनः काशिकागमः जेगीषव्येण सस्वादो ज्येष्ठे शाखा महेशितुः ।. क्षेत्राख्यानं कन्दुकेशव्याप्रेश्वरसमुदुभवः शेलेशरत्नेश्वरयो: कत्तिवासस्य चोदुभवः देघतानामधिष्टानं दुगांसुर पराक्रमः ढुगाया घिजयञ्चाथ ओङ्कारेशस्य वर्णनम | पुनरोङ्कारमाहात्म्यं त्रिलोचन समुदुभवः केदाराख्या धस्मेश कथा चिश्वमुजोद्भवा l- वीरेशवरसमाख्यानं गड्ठामाहात्म्यकीत्तनम्‌

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( ३१ )

विश्वकस्मेंश महिमा दक्षयज्ञोदभवस्तथा सती शस्याम्रतेशादेभुजस्तस्मः पराशर; क्षेत्रतीर्थ कदम्बश्च सुक्तिमण्डपसंकथा | विश्वेश चिभषंश्चाथ ततो याचा परिक्रमः पञ्चमे अवन्ती खण्ड !-- “अतः परं त्ववन्त्याख्यं शृणु खण्डञ्च पञ्चकम्‌ महाकाळवनाख्यानं ब्रह्मशीपच्छिदा ततः प्रायश्चित्त विधिश्चाग्नेरुत्पत्तिश्च समागमः |: देचदीक्षा शिचस्तोत्रं नानापातकनाशनम्‌ कपाळमो चनाख्यानं महाकालचनस्थितिः तीर्थ कलकलेशस्य खव्वेपापप्रणाशानम्‌॥ कुण्डमप्सरखञ्ज्ञश्च सग रुद्रस्य पुण्यदम्‌। कुटुस्वेशञ्च विद्याध्मकेटेश्वरतीथेंकम्‌ सवर्गद्वारं चतुःसिन्धुतीथं शङ्करवापिका सकराके गन्धवती तीथ पापप्रणाशनम्‌ दशाश्वमेचैकानंशा तीथे हरिसिडिदम्‌। पिशाचकादि यात्रा हनूमत्कयमेश्वरो ` महाकाठेशयात्रा घल्मीकेशवरतीर्थकम्‌ शक्रेशमेशो पाख्यानं कुशखंल्या: प्रदक्षिणम्‌ ` अक्कूरमन्दाकिन्यङ्कपादचन्द्राकंवैमचम्‌। FAL कुक्कुटेश लडडुकेशादि तीथेकम्‌॥ ` मार्कण्डेशं यज्ञवापी खोमेशं नरकान्तकम्‌

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( ) "केदारेश्वर रामेश सौभांग्येश AURRA N “केशाक शक्तिमेदञ्च सुवर्णक्षरशुखानि | Aga तीर्थानि अन्धकरस्तुतिङीर्सनस्‌ | ' काँछारण्ये 'लिङ्गलंख्य। स्वणम्टड्ाभिध्ानकम | कुशस्थल्या अवन्त्याश्चोजञयिन्या अभिधानकम “पद्मावती कुमुद्धत्यमरायतीति नामकम्‌ | विशाला प्रतिकदपाभिधाने ज्वरशान्तिकस शिप्रास्नाना दिकफर्ल नागोन्मीता शिवस्तुति: | हिरण्याक्षवधाख्यान तीर्थ सुन्द्रकुण्डकम्‌ | -नोळगङ्का पुष्कराख्यं विन्ध्यावासन Aan | 'पुरुषोत्तमाधिमासं तत्तीर्थञ्चाघनाशनम्‌ गोमती घामने कुण्डे विष्णोर्नाम सहस्रकम्‌ -चीरेशवरखरः कालभेरचस्य तीर्थके -महिमा नागपञ्चम्यां नसिंहरूय जयन्तिका | 'कुटुवेश्वरयात्रा देवलाधककीत्तनम ` कर्कराजास्यतीर्थञ्च चिघ्नेशादि सुरोहन स्‌ -स्द्रकुण्डप्रश्ृतिपु बहुतीर्थेनिरूपणम्‌ | ` यात्रातीर्थजा पुण्या रेचामाहात्म्यमुच्यते ' धर्स्मेपुण्यस्यवैराम्ये मार्कण्डेयेन सङ्गमः 'प्रागूलया चुभवाख्यानं agar परिकीत्तनम | कल्पे करपे प्रथक्‌ नाम नर्म्मदाया: प्रकोसिंतम | सस्तचमाष नामेद्श्व कालराञ्चिकथा तत: |

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(/ ६३.) महादेचस्तुतिः पश्चात्‌ पृथक्कल्पकथाद्गुता Ik विशल्याख्यानक पझ्चाज्ञालेश्वरकथा तथा ।. गोरीत्रत समाख्यानं जिपुरज्चालनन्ततः देहपातविधानश्च कावेरीसङ्गमस्ततः! . दारुतोर्थं त्रझघञ्ञं यत्रेश्वर कथानकम्‌ अझितोथं रवितीर्थं मेघनादं दिदारकम्‌ देचतीर्थ नम्मंदेशं कपिलाख्य करञ्जकम्‌ |. कुण्डछेशं पिप्पलादं घिमलेशञ्च शलमित्‌ ` शचीहरणमाख्यातमन्धकस्यवधस्ततः | शलभेदोदुभवो यत्र दानधर्म्माः एथस्चिधाः॥ : आख्यानं दीघेतपसऋष्यश्टड़ कथा ततः ।. चित्रसेनकथा पुण्या काशिराजस्य मोक्षणम्‌ ॥' ततो देवशिलाख्यानं शवरी चरिताचितम्‌। व्याधाख्यान ततः पुण्यं पुष्करिण्यकंतीथकम Il: आपित्येश्वर तीर्थञ्च शक्रतीथं करोटिकम्‌। कुमारेशमगस्त्येशं च्यवनेशञ्च मातूजम.॥ लोकेशं धनदेशश्च मङ्गलेशञ्च RAAN | नागेशञ्चापि गोपारं गोतमं शदुचूड़जम्‌ नारदेशं नन्दिकेशं वरुणेशवरतीर्थकम्‌। दघिस्कन्दा दितीर्था नि हनूमन्तेश्वरन्ततः ` .: रामेश्वरादि तीर्थानि सोमेशं पिङ्गलेश्वरम्‌ l. ऋणमोक्षं कपिलेशं पूतिकेश जलेशयम्‌

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(३8)

सण्डाकयमतीर्थश्च करहोडीशश्च नान्दिकम्‌ | ARUS कोटीशं व्याखतीय अ्रसासिकस्‌ नागेशं सङ्कषणकं सन्‍्पथेश्वश्वीर्थंकम। एरण्डोसङमं पुण्य लवणे शिळतीर्थेकम्‌ करञ्जं कामह तीथ भाण्डीरं रोहिणीसवम्‌ | चक्रतोथ चोतपापं स्कान्दमाड्िरलाहयम्‌ N को रितीर्थमपोम्याख्यमङ्गाराख्यं ञ्रिलोचनस्‌ इन्द्रेशं Kuda खोमेशं कोहनेशकम ARAF चाकेमाग्नेयं भार्गदेशवरसत्तमस्‌ | ब्राह्म देवं भागेशमादि चाराहणंकचे रामेशमथ सिद्धेश माहात्म्यं REIN शाक्रं सौम्यञ्च नान्देशं तापेशं रुक्मिणीभघभ्‌ योजनेशं घराहेशं द्वादशी शिव तोथंके | सिद्धेशं मङ्गलेशञ्च लिङ्गचाराहतीथेकम्‌ कुण्डेशं श्वेतवाराहं भार्गवेशं रवीश्वरम्‌ शुझादीनि तीर्थानि हुँ कारखा मितीर्थकम्‌ Il सङ्गमेशं नारकेशं मोक्षं सापश्च गोपकम्‌ | नागं सास्बञ्च सिद्धेशं माकण्डाक्रूरतीर्शके कामोद्शूलारोपाख्यो माण्डव्यं गोपकेश्‍वरम्‌.। कपिलेशं पिगलेशं भूतेशं गांगगौतमे . आइवमेधं भ्रगुकच्छं केदारेशश्च पापनुत्‌ | कनखलेशं जालेशं शालग्रामं वराहकम्‌ ..

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( ६५ )

-चन्द्रप्रभासमादित्यं श्रीपत्याख्यञ्च हंसकम्‌। JEENA शुलेशमाप्नायाचित्रदेवकम N 'शिखीशं कोरितीथेञ्च दशकन्यं सुचर्णकम |. .. अटणमोक्षं भारभूतिरत्रास्ते पुंखसुण्डिमम्‌ आसलेशं कपालेशं श्टङ्ग रण्डीभवन्ततः . aida लोउनेशं फलस्तुतिरतः परम्‌ | इमिजङ्गळमाहात्म्ये रोहिताशवकथाततः 'भुन्घुमारसमाख्यानं घघोपायस्ततो5स्य वधो धुन्धोस्ततः पश्चात्‌ सतश्चित्रवहोद्ववः | महिमास्य ततश्चण्डीशप्रभाचोरतीश्वरः केदारेशो लक्षतीथं ततो चिष्णुपदीभचम्‌। 'सुखार च्यघनान्धाख्य ब्रह्मणश्च सरस्ततः चक्राख्यं ळलिताख्यानं तीथञ्चबहुगोमथम्‌। रुद्राचत्तेञ्च मार्कण्ड तीथ पापप्रणाशनम्‌ रावणेशं शुद्धपटं देवान्धुर्यततीर्थकम्‌ | जिह्दोदतीथंसम्मूतिः शिवोदुभेद फलस्तुतिः एष खण्डो Barata: श्ण्वतां पापनाशनः | नागरखण्डे :-- |

“अतः परं नागराख्यः खण्डः षष्ठो5मिधीयते | लिङ्गोत्पत्तिसमाख्यान दरिश्चन्द्रकथा शुभा ` विश्वामित्रस्य माहात्म्यं जिशडुस्वर्गतिस्तथा -हाटकेएवरमाहात्म्ये वृत्रासुरवघस्तथा

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( ६६-). नागचिळ शङ्कती्थमचलेश्वरचणनम्‌ | वमसत्कारपुरारूपरान चमत्कारकर परम | गयशीष यालशाख्यं Men angan IP विष्णुपादञ्य गोकणं थुगरूपं समाश्॒यः | सिद्धेश्वर नागखर: सह्ताषेयं हायस्तकम्‌ भ्रूणगत्नलेशञ्च भीष्मं दुर्वरमककप | शामिष्ठं सोमनाथञ्च दौर्गमानर्ञकेश्यर्म्‌॥ जमद्म्िचधाख्यानं नेःक्षत्रियकथानकमस | रामहद्‌ नागपुरं जड़ रिङ्गः्च ang: सुण्डीरादि Prana सदोपरिणयस्तथा |. वालखिद्यञ्च यागेशं चाळखिल्यञ्च गारुडम्‌ 'रक्ष्मीशांपः सासविशः सोमप्रासादमेच | अस्वादृद्ध पादुकारू्यमाग्नेयं ्रह्मक्ुण्डकम्‌ गोमुखं ळोहयष्ट्यास्यमजापालेश्वरी तथा | MAER राजवापी रामेशो लक्ष्मणेश्वरः | कुशेशाख्यं रवेषाख्यं लिङ्गः सञ्चात्तमोत्तमम्‌ | अष्टषष्टिसमाख्यानं दमयन्त्या स्रिजञातकम्‌ ततो 5म्बारेवती चात्र ट्टकातीर्थसम्भचम्‌ | क्षेमङ्करी केदार शुक्कतोर्थ मुखारकम्‌ ` सत्यसन्धेश्वराख्यानं तथा कर्णोत्पला कथा अटेश्वर याज्ञवल्क्यं गौययं गाणेशमेच ततोषास्तुपदाख्यानमजागदकथानकम्‌।

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'( ६७ ) सौभाग्यान्धक्रश लेश धम्मराजकथानकंम N मिष्टाप्रदेश्वराख्यानं गाणपत्यत्रयं तः. 17, 2.1 जावालिंच्ररितञ्केच मकरेशकथा ततः.॥ `. :- का लेशवर्यन्धकाख्यान: कुण्डमाप्लरसन्तथा ।. युष्या दित्यं रौ हिताश्वं नागरोत्पत्तिकीत्तंनम्‌.॥ भाग चरितं. चेव वैश्वामैत्र ततः परम्‌.॥.. सारस्वत पेप्पछादं कसारीशञ्च पैण्डिकम्‌ 1 भरह्मणो. यज्ञचरितं सावित्याख्यानसंयुतम:॥ रवत भतू यज्ञाख्यं मुख्यतीर्थेनिरीक्षणम्‌ | कोरवं हाटकेशाख्यं प्रभासं क्षेत्रकत्रयम्‌ः॥ पौष्करं ने मिषं धाम्मंमरण्यत्रितयं स्म्तम चाराणखीद्वारकाख्याचन्त्याख्येति पुरीत्रयम्‌॥ वृन्दावन खाण्डवाख्यं मद्रेकाख्यं घनत्रयम्‌ | RA: शारस्तथा नन्दोग्रामत्रयमचुत्तमम्‌ ॥. असिशुक्कपितृसञ्ज्ञं तीर्थ्रयसुदाह्ृतम्‌ ` श्यवुदौ रेवतश्चेब पव्वेतत्रयमुत्तमम्‌ नदोनां त्रितयं गङ्गा नमंदा सरस्वती खाद्धेको टित्रयफलमेकेकऽ्चेष कीतितम्‌। ` कूपिका शङ्कतीर्थंश्चामरकं बालमण्डनम्‌ः। दारकेशक्षेत्रफळप्रद्‌ प्रोक्त चतुष्टयम्‌ शास्त्रा दियं थ्राद्धकदपं यो धिषठिरमथान्धकम्‌ जलशायि चतुम्मास्यमशून्यशयनत्रतम्‌। .

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( ६८ ) Asa शिवरात्रिस्तुलापुरुषदानरून्‌ | gara MUAT कपाळमोचनेशचरम्‌। पापपिण्डं साघळेडु' samaan | निस्वेशशाकम्भर्यार्यः SEANU asa! | दानग्राहात्म्यकथनं हाद्शादित्यकीसंनम ? | इत्येष नागरः RTS: प्रभाखाख्यो ऽचुनोच्यते |

सप्तमे प्रभास खण्डे ;- “सोमेशो यत्र बिश्‍वेशोऽकस्थळ Urus महत! सिद्धेशवरादिकास्य़ानं पृथगत्र रकी सितम्‌ अञ्चिती्थ कपद्दोश केदारेशां गतिप्रदम्‌ भीमभैरवचण्डीशभास्कराङ्गारकेश्वराः | वुघेज्यभ्टगुसी रेन्द्रशिखीशाहरचिक्रहाःः | खिद्धेशवराद्याः पञ्चान्ये रुद्रस्तत्र व्दवस्थिताः वरारोहा हाजापाला मंगला ललितेश्वरी | लक्ष्मीशोऽचाडवेशश्चाघीशः कामेश्वरस्तथा गोरीशवरुणेशाख्यमुशीषञ्च गणेश्वरम्‌ कुमारेशश्च शाकल्यं शकुलोतङ्कगौतमम्‌ देत्यः्नेशं चक्रतीथ सन्निहत्याव्हयन्तथा | भूतेशादीनि लिङ्गानि आदिनारायणाहयम्‌ ततश्चक्रधराख्यानं शास्वा दित्यकथानकम्‌ कथां कण्टेकशोधिन्या महिषच्न्यास्ततः परम्‌ कपालीश्चरकोरीशवालब्राहसत्‌ कथा |

_ (९-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri

६६ )

लरकेश सम्वत्तेश निधीश्वरकथा ततः | 'बलभद्वेश्‍वरस्याथ गंगाया गणपस्य जास्बवत्यास्यसरितः पाण्डुकूपर्यसत्कथा | शतमेघलक्षमेघकोरिमेधकथा तथा | | ड॒व्यासाकयदुस्थान हिरण्यासंगमोत्कथा नगराकस्य कृष्णस्य संडुषेणसमुद्रयोः | JARAT: क्षेत्रपालस्य ब्रह्म शस्य कथा पृथक्‌ N पिंगळा संगमेशस्य शंकराकघटेशयोः | 'झषितोथेस्य नन्दाकंत्रितकूपस्य कीत्तेनम्‌ शशोपानस्य पर्णाकेन्यडुमत्यो: कथाडुता | 'बाराहस्वामित्वत्तान्त छायालिगाख्यगुट्फयोः | RAT कनकनन्दायाः कुन्तीगंगेशयोस्तथा ।। 'चमसोड्ठ दविदुरत्रिलोकेशकथा तत: | 'मडुणेश Ag षण्डतीथ कथा तथा सूयंप्राचीत्रीक्षणयोरुमानाथ कथा तथा | भूद्धारशळस्थलयोश्च्यवनाकेशयोस्तथा | अज्ञा पाळेशवालाकेकुवेरस्थलजा कथा ऋषितोया कथा पुण्या संगालेश्वरकीत्तेनम्‌ नारदाद्त्यिकथनं नारायणनिरूपणम्‌ तप्तकुण्डस्य माहात्म्यं मूलचण्डीशवर्णनम्‌ | चतुवेक्त्र गणाध्यक्ष कलम्बेश्वरयोः कथा गोपाळस्वामिवकुलर्ामिनोम्मेरुती कथा |

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( १०० )

क्षेमार्कोञ्चतविध्तेशजलस्वामिकंथा, तथा-। -- : काळमेधस्य रुक्मिण्या ऊंव्वशीश्‍वरसदंयो: ।-- `

शडुगवत्तेमोक्षतीर्थ गोष्पदाच्युललंझनासः। ` जाळेश्वरस्य इङ्कारकूफलण्डीशयीः कथा |

आशापुरस्थ!चष्नेशकळाकुण्डकथाऽद्सुता ॥ः ` `

कपिलेशस्य कथा जरदुर्गंवशिवस्य नलककोरकेश्वरयोर्हारकेशवरजा 'कथा ॥: नारदेशमन्तभूषा ठुगकूटगणेशाजा | जुपणळार्यभरव्योमल्तीथभचा कथा कीत्तेनं कईमालस्य गुतसोमेशवरस्थं | बहुस्वर्णशश्ट गेश कोटीएवरकथा' ततः | माकण्डेश्वरकोडीश' दामोदरणुदोत्कथा Į स्वर्णरेखा ब्रह्मकुण्डं कुन्तीभीमेश्वरौ तथा

म्गगीकुण्डञ्व सवेस्वं क्षेत्रे घस्त्रापथे स्सृतम्‌ः।

दत्राविल्वेशगंगेशस्वतानां कथाञ्दुता॥ ततो५व्बदेश्वप्रकथा अचलेश्वरकोत्तेनम | नागतीथस्य कथा वशिष्ठाश्रमवर्णनम्‌।

भद्र कर्णस्य माहात्म्यं जिनेत्रस्य ततः परम

केदारस्य माहात्म्यं तीर्थांगमनकीत्तनम | कोटीश्वररूपती्थंहृषी केशकथा तत: | सिद्धेश शुक्रेश्‍वरयोम्मणिकणोशाकीर्सनम पडती थ-यमतीथ-चाराहतीर्थवर्णेनम्‌ `

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( १०१. ), चन्द्रप्रभासपिण्डोद्‌ श्रोमाता. शुक्कतीर्थजम्‌ फात्यायन्याश्व माहात्म्यं तत: पिण्डारकस्य | सतः कनखलस्याथ चक्रमानुषतीर्थयोः कपिला झितीर्थेकथा तथा रक्तानुवन्धजा | गणेशपाथश्वस्योर्यात्राया मुद्गलस्य खण्डी स्थान नागमघशिरः कुण्डमहेशज्ञा | फामेश्वरस्य मार्कण्डेयोत्पत्तश्च कथा ततः उद्दालकेश सिद्धेश गततीर्थकथा पृथक | शीदेवमातोत्पत्तिश्च व्यासगौतमतो थयो: छुळसन्तारमाहात्म्यं रामकोस्याव्हतीर्थयो: | खन्द्रोङ्क देशानश्टङ्ग ब्ह्यास्थानोद्वचोहनम्‌ त्रिपुष्कर-रुद्रहद-गुद्देश्वर-कथा शुभा | अविसुक्तस्य माह्दात्म्यसुमामाहेशवरस्य महोजसः प्रभाचश्च जस्बुतीर्थस्य चणेनम्‌। गङ्गाधर मिश्रंकयोः कंथाचाथ फलश्रतिः द्वारकायाश्च माहात्म्ये चन्द्रशस्मंकथानकम्‌ | जागरद्याख्यव्रतञ्च बतमेकादशीभवम

_ महाद्वादशीकाख्यानं प्रहलादषि समागमः | “matan उपाख्यानं यात्रोपक्रमकीत्तेनम्‌॥ त्पत्तिकथनँ तस्यां स्नांनादिजस्फलम्‌। " चक्रतीर्थस्य माहात्म्यं गोमत्युद्धिसङ्गमः॥ . . सनकादिहदाख्यात्तं नगतीथेकथा ततः

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( १०२ )

गोप्रचारकथा पुण्या,गोपीनां द्वारकागसः l गोपीसरः समाख्यानं ब्रह्मतीर्थादिकीसेनम्‌।' पञ्चनद्यागमाख्यानं ATETEA RIOR शिचलिङ्कमहातीथकृष्णपू adan | त्रिविक्रमस्य सूस्यांल्या दुर्वास; KNARA | कुशदेत्यवधो व्याख्या विशेपाच्चनजस्फलम्‌। गोमत्यां द्वारकायाञच तीरथांगमनदीसेनम | कृष्णमन्दिरसंप्रेक्षा द्वास्वत्य शिभेखनश |

तत्र तीर्थावासकथा द्वारका पुण्यकीसेनम्‌। इत्येष सप्तमः प्रोक्तः खण्डः प्राशसिकोहिजः ¦ स्कान्दे सर्वोत्तरकथा शिचमाहात्म्यचणेने |

लिखित्वेतत्तु यो द्याद्धेमगूलसमाचितम्‌। माध्यां सत्कृत्य चिप्राय शँचे मोदते पदे ॥'

गरुडपुराणम्‌

शरुडायोक्त विष्णुना पुराणम्‌ नारदीयपुराणे १०८ अध्याये तद्विषयाश्च

ब्रह्मोबाच-- मरीचे ! श्रणवच्म्यद्य पुराणं गारुडं शुभम्‌ गरुडायात्रघीत्फ्टो भगचान्गरुडासनः

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| | | | | तत्फलश्रृति :-- | | | | | | | | |

( १०३ ) एकोनचिशसाहर ताक्ष्येकलपकथा चितम्‌ तत्र aT

पुराणोपक्रमो यत्र सर्गः संक्षेपतस्ततः॥ | सूयां दिपूजनचिधि दोक्षा चिधिरतः परम्‌ श्यादिणूजा ततः. पश्चान्नवन्यूहाच्चंनं द्विज एूजाचिधानञ्च qura तथा पञ्चरन्ततः | योगाध्यायस्ततो चिष्णो नामसाहस्रकीत्तेनम्‌ ध्यानं चिष्णोस्ततः सूर्यपूजासत्यञ्जयाच्चेनम्‌। माळा मंत्रा शिवाच्चांथ गणपूजा ततः परम्‌। गोपालपूजा तेलोक्यमोहनं श्रीधराच्चेनम्‌। विष्ण्क्दा पञ्चतत्त्वार्चा चक्राच्या देघपूजनम्‌ न्यासादि सन्ध्योपास्तिश्च दुर्गार्चाथजुराचेनम्‌ पूजा माहेश्वरी चातः पचित्रारोहणाच्चेनम्‌।` सूतिध्यानं चास्तुमानं प्रासादानाञ्च लक्षणम्‌ | प्रतिष्ठा सर्वदेवानां पृथक पूजाचिधानतः। योगोऽष्टाङ्को दानधर्मः प्राय श्चित्तषिधिक्रिया द्वीपेशन्रकाख्यानं सूर्यव्यूहस्थ ज्योतिषम्‌ सामुद्रिकं स्वरज्ञान नवरल्रपरीक्षणम्‌। ` माहात्म्यमथ तीर्थानां गयामाहात्म्यसुत्तमम्‌। `

_ततो भन्वन्तराख्यानं पृथक्पृथग्विभांगशः | पित्राख्यानं घणंघर्मा द्रव्यशद्धिःसमपंणम्‌। ` श्राद्ध चिदायकस्यार्चा ग्रहयज्स्तथाऽऽञ्रमाः।

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(( ४१०४ १)

सलहाख्या प्रेताशीचं नीचिसारोभतोक्तय: सूयेवंशः खोमवंशो5वतारकथनं इरेः। e :.. रामायण हरिवंशो भारताख्यासकन्ततः - . .. आयुवेदे निदानस्प्राफ RR SISA | रोगघ्नं कवच दिण्णो गोरुङस्त्रेषुरोम्ः ": प्रश्नचूडामणिशान्ते हयायुवेद्कीसेनम ; ओषधीनामंकथन ततो व्याकरणोहनम | छन्दः शास्त्र सदाचारस्ततः स्यामि भिःस्स्तः ! तपणं:वेश्वदेबश्च सध्यापार्वणकर्म | ` नित्यश्राद्धं सपिण्डाख्यं धर्मलारोड्घनिष्क्ृतिः | प्रतिखडक्कम उक्तो5स्मादु युगधर्माः इतेः फलम्‌ योगशास्त्रं विष्णुभ क्तिनेमस्ति फलं हरे: | -।' माहात्म्यं-वेष्णवञ्याथ नारसिहस्तचोत्तमम्‌ | ` ज्ञानामृतं गृह्याष्टक स्तोत्रं विष्ण्बर्च्चनाह्वयम्‌ Ea वेदान्तसांख्य सिद्धान्तं त्रह्मज्ञानात्मक तथा : गीतासारः फलोत्कीत्तिः पूवेखण्डो5यमी रितः |

उत्तरखण्ड प्रेतकटपे

अथास्यत्रोत्तरे खण्डे प्रेतकट्प: पुरो दितः |

यत्र ताक्ष्यण सस्पृष्टो भगवांनाह चाडवं: घमप्रकटन पूव योनीनां गतिकारणम्‌।

दाना दिकम्फलेञ्चो पिं धोक्तमत्रोध्वेदेहिकम 1: ::

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( १०५ ) यमलोकस्य मार्गस्य वर्णनञ्च ततः परम्‌। खोडशशाद्धफुलक वृत्तानाञ्चात्र घणितम्‌। निष्छतियेममार्गस्य धर्मराजस्य वैभवम्‌ | प्रेतपीड़ा चिनिद्देशः प्रेतचिन्हनिरूपणम्‌। . ` darat चरिताख्यान कारणस्प्रेततां प्रति। | ऐेतङृस्यचिचारश्च सपिण्डीकरणोक्तयः | प्रतत्चमोक्षणाख्यानं दानानि विसुक्त्ये . आश्यकोत्तरं दानं प्रेतसौख्यकरं हितम्‌ | शारीरकघिनिर्देशो यमलोकस्य वर्णनम्‌। प्रतत्वोद्धारकथंनं कमकत विनिणेयः | | मत्योः पूर्व क्रियाख्यानं पश्‍चात्कमेनिरूपणम्‌। . मध्यं षोडशक श्राद्ध स्वगप्रातिक्रियोहनम्‌। सूतकस्याथ संख्यानं नारायणबलिक्रिया | वृषोत्सर्गस्य माहात्म्यं निषिद्वपरिवजेनम्‌। अपसुतयुक्रियोक्तिशंच विपाकः कर्मणां नुणाम्‌। कृत्याङृत्यघिच।रश्च घिष्णुध्यानं विमुक्तये | स्वर्गतौ विहिताख्यान स्वर्गसौख्यनिरूपणम्‌ भूलोकघर्णनञ्चैव सप्घालोक घर्णनम्‌। पञ्चोध्वंलोककर्थनं व्रह्माण्डस्थिति कीत्तेनम्‌ | त्रह्माण्डानेकचरितं त्रह्मजीबनिरूपणम्‌। ` ` आत्यन्तिकलयाख्यानं फलस्तुतिनिरूपणम्‌। : इत्येतद्गारुडुंनाम प्रुराणंसुक्तिसुक्तिंदम्‌॥ `

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( १०६ ) Tenaga | कीतितं पापशमनं पठतां saoga नृणाम्‌ h लिखित्वेत्पुराणन्तु विषुदे यः प्रयच्छति G o ६०५ सोवणे हंसयुग्माद्य' बिप्रत्य दिए अञ्जेत |

नर्मण्डपुराणम्‌ `

नारदीय पुराणे पा० १०६ अध्याय उक्ता

अस्य Tayan |

श्टणु घत्स | प्रवक्ष्यामि ब्रह्माण्डाख्यं पुरातनम्‌ |

तञ्च ड्वादशसाहरू भाविकदपकथायुतम्‌ प्क्रियाख्योऽनुषङ्गार्य उपोद्धातस्तृतोयकः चतुर्थे उपसंहारः पादाश्चत्वार एच हि पूवेपादद्वयं पूर्वो भागो ऽत्र समुदाहृतः तृतीयोमध्यमो भागश्चतुर्थरतृत्तरोम्रतः तत्रपूवभागे प्रक्रियापादे :--- आदो इत्यसमुद्देशो नैमिषाख्यानक ततः, हिरण्यग्त्पत्तिश्च लोककल्पनमेच TN एष चै प्रथमःपादो द्वितीयं शण नारद 5चुषङ्गपादे कल्पमन्वन्तराख्यान लोकज्ञानं ततः परम्‌ ।' मानस स्दष्टिकथन रुद्रप्रसचचणेनम्‌

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| | | | | | | | | | |

( १०७ )' महादेवविभूतिश्व ऋषिसगंस्ततः परम्‌ अच्निनां विचयश्वाथ काळसद्गाचवणेनम्‌॥ faaara योदेशः प्थिव्या याम बिस्तर: | वर्णनं भारतस्यास्य ततोऽन्येषां निरूपणम्‌ जस्चादिसप्द्वोपार्या ततोऽघोळोकचणेनम्‌ | ऊर्ध्वलोकानुकथनं ग्रदचारस्ततः परम्‌ आदित्यत्यूहकथनं देवग्रहानुकीत्तेनम्‌ नीळकण्डाव्हयाख्यानं महादेवस्य वेभवम्‌ ॥' अमाचास्यानुकथनं थुगतत्त्वनिरूपणम्‌। यज्ञप्रवर्तेनञ्चाथ युगयोरन्त्ययोः कृतिः युगप्रजालक्षणञ्च आषिप्रवरवर्णनम्‌

Jerat व्यसनाख्यानं स्वायम्भुचनिरूपणम्‌ II: शेषमन्यन्तराख्यानं एथिवीदोहनन्ततः | चाक्रुपेऽद्यतने सगोंद्वितीयोऽङ्‌श्रि पुरोदले मध्यभागे उपोद्घात पादे !-- “अशोपोद्धातपादे सप्तपिपरिकीत्तेनम्‌। राजापत्यचयस्तरमाइचादीनां समुद्धचः ततो जयामिव्याहारौ मरूटुत्पत्तिकीत्तेनम्‌। काश्यपेयानुकथनं ऋषिवंशनिरूपणम्‌॥ पितृकट्पानुकथन श्राद्धकल्पस्ततः परम्‌। वैचश्वतसमुत्पत्तिस्सश्स्तिस्थ ततः परम्‌ ` मञ्फुराचयश्चातो गान्धवेश्च निरूपणम. ` ` `

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( १०८ ) 'इक्ष्यघाकुवंशकथनं वंशोऽत्रःखुमहात्मनः || --.. अमावसोराचयश्च रजेश्यरितमदुतम्‌ ययातिचरितञ्चाथ यढुवंश निरूपणम्‌ कातेवीर्यस्यचरितं जामदरन्यं तत: प्रम! वृष्णिवंशाबुकथन amea सम्भवः भागवस्यानुय रित॑ वथार्यकवधाश्चयम्‌ | सगरस्याथचरितं आगेचस्य कथा पुन: देचासुराहवकथा: कुष्णाविर्भावधणेनम्‌ | इनस्य स्तवः पुण्यः शुक्रेण परिकीर्तितः || विष्णुमाहात्म्यकथनं चलीवशनिरूपणम्‌ | भविष्यराजचरितं सम्पाप्तेऽथकलौ युगे एवसुद्धातपादोऽयं तृतीयो मध्यमे 22 i उत्तरभागे उपसंहार पादे :-- चतुर्थमुपसंहारं वक्ष्ये खण्डे तथोत्तरे | वेचस्चतान्तराख्यानं विस्तरेण यथातथम्‌ ! पूवेमेच समुद्दिष्टः संक्षेपादिह कथ्यते i भविष्याणां मनूनांच चरितं हि ततः परम्‌ : RAISA -निद्‌शः , कालमानं तत परम्‌ लोकाश्चतुद्‌श ततः कथिता मानलक्षणे Mev mi नरकाणाञ्च विकर्माचरणैस्ततः [ee मनोमयपुराख्यानं ल्य: प्राकृतिकस्ततः शेवस्याथ पुरस्यापि वर्णनञ्च ततः परम्‌

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( १०६ .) त्रिविधादु गुणसस्वन्धाजन्तूनां कीतिता' गतिः t- अनिद्देश्या प्रत्यस्य ब्रह्मणः 'परमात्मनः अन्वय व्यतिरेकाभ्यां वर्णनं हि ततः परम्‌: ` इत्येष उपसंहारः पादो वृत्तः सचोत्तरः .. चतुष्पादं पुराणन्ते ब्रह्माण्डं'ससुदाहृदम्‌। अएादशमनोपम्यं सारात्सारतर द्विजः ! ब्रह्मांडश्वचतुलक्षं पुराणत्वेन पंख्यते | तदेव व्यस्य गदितमत्राष्टाद्शघा पृथक पाराशर्येण सुनिना सर्वेषामपि मानद | वस्तुद्रष्राथ तेनेब मुनीनां भाचितात्मनाम्‌

मत्तः Acar पुराणानि लोकेभ्यः प्रचकाशिरे सुनयो धमशीळास्ते दीनानुग्रहकारिणः

मया चेद्‌ पुराणन्तु घशिष्ठाय पुरो दितिम्‌

तेन शक्तिसुतायोक्त जातूकार्णाय तेन

व्यासो लब्ध्वा ततश्चेतत्‌ प्रभञ्जनमुखोड्गतम्‌.।

प्रमाणी इत्यलोकेऽस्मिन्‌ प्रावत्तेयदचुत्तमम्‌॥ | तत्फरश्रुति :--

इद्‌ कीतेयेद्वत्स ! श्रणोति समादितः.।

विधूयेह पापानि याति लोकमनामयम्‌॥ `

लिखित्वै तत्‌ पुराणन्तु स्वणेसिहासनस्थितम्‌ l.

पात्रेणाच्छादितं यस्तु ब्राह्मणाय प्रयछति

याति ब्रणोलोक नात्र कार्या विचारणा। '

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( ११० )

TI! ऽछादशेतानि मया प्रोक्तानि यानि ते 'सुराणा नि तु संक्षेपाच्छोतव्यानि चिस्तरात्‌ अष्टादश पुराणानि यः »टणो ति नरोसप्तः कथयेद्वा विधानेन नेह भूयः जायते 'खूचमेतत्पुराणाचां यन्मयोक' तबाउशुना ad शीळनीयं हि एुराणं फळमिच्छता |

दास्सिकाय पायाय देवगुवेचुसूयचे |

देय कदापि साधूनां द्वेषिणे शठाय शान्तायारायिचित्ताय शुश्रषासिरताय

निमेत्सराय शुचये देयं सद्वेष्णवाय विष्णुभागवतम्‌ |

तत्ग्रतिपाद्यविषयाश्च नारद Jo ९६ अ० उक्ता यथा- _

मरीचे | >एणु वक्ष्यामि वेदव्यासेन यत्कृतम्‌। श्रीमद्भागवत नाम पुराणं ब्रह्मसंमितम्‌ तदष्टादशसाहस्रं की त्तितं पापनाशनम्‌ | झुरपाद्परूपोऽयं स्कन्घेद्धांदशभियु'तः भगचानेच विमेन्द्र ! चिश्वरूपी समी रितः |

तस्य ग्रथसस्कन्ध ;-- तत्र तु प्रथमे स्कन्धे सूतर्षीणा समागम: | व्यासस्य चरित पुण्यं पाण्डवानां तथैचच | पारी क्षितमुपाल्यानमितीद्‌ं समुदाद्वतम ।”

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Sous an SS a Sa aa ळक. बनक

( १११ )

द्वितीयस्कन्धे :---

“प्रीक्षिच्छुकसम्वादे स्टतिद्वयनिरूपणम्‌ |

ब्रह्मनारद्संचादेऽवतारचरिताञतम्‌॥

पुराणलक्षणञ्चेच सष्टिकारणसम्भवः |

'दितीयोऽयंसमुदितः स्कन्धो व्यासेन धीमता तृतीयस्कन्धे :— |

“aka विदुरस्याथ मत्रेयेणास्य सङ्गमः |

सृष्टिप्रकरणं पश्चादुव्रह्मणः परमात्मनः

कापिळं साँख्यमप्यत्र तृतीयो्यमुदाद्वतः | चतुर्थस्कन्धे !:--

“सत्याश्चरितमादो तु श्रुवस्यचरित ततः |

पृथोः पुण्यसमाख्यानं ततः प्राचीनवहिषः

इत्येष Jaa गदितो विसर्गे स्कन्ध उत्तमः ।” पञ्चमस्कन्धे :

प्रियव्रतस्य चरितं तदवश्यानाञ्च पुण्यदम |

त्रह्माण्डान्तर्गतानाञ्च लोकानां चर्णेनन्ततः

नरकस्थितिरित्येव संस्थाने पञ्चमोमतः | षष्ठस्कन्धे :--

अज्ञामिळस्य चरित दक्षसृष्टिनिरूपणम्‌ |

वृत्राख्यान ततःपश्चान्मरुतां जन्म पुण्यदम्‌

सष्डोऽयसुदितःर्कन्धो व्यासेन परिपोषणे

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{ ११२ ) सप्तमस्कन्धे : | “प्रहादचरितपुण्य वर्णाश्चमनिरूषणम्‌ T सप्तमोगदितो वत्सः! चासनाकर्मकीर्तने N अष्टसस्क्रन्ध ¦ “गजेन्द्रमोक्षणाख्याने मन्ध॑न्तरचिरुपणम्‌ 1 समुद्रमथनञ्चेघ चल्विभवत्रन्धनम्‌॥ ` मत्स्याचतारचरितमए्मोऽयं प्रकीसित:.!: ` नवमस्कन्धे : सूयवशसमाख्यान. सोमचंशनिरूपण | श्याचुचरिते प्रोक्तो नवमोष्यं महामते दशमस्कन्ध ¦ : कृणस्य बालचरितं कौमारञ्च त्रजस्थितिः कशोर मथुरास्थानं योवने द्वारकास्थितिः॥ भूभारहरणश्चात्र निरोधे दशमः ega: | एकादशस्कन्धे 1 | “नारदेन तु संवादो वसुदेवस्य कोतित: 1 यदोश्च दत्तात्रयेण श्रीङ्ृष्णेनोद्भवस्य चः यादवानां मिथोऽन्तश्च सुक्तावेकाद्‌शः स्मतः SEURA ¦

“भषिष्यकलिनिदेशो मोक्षो राज्ञ परीक्षितः. वेदशाखाप्रणयनं मार्कण्डेयतपः ERAR: |

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( ११३ )

सौरी घिभूतिरुदिता सात्वती चं ततःपरम्‌ | पुराणसंख्याकथनसाश्रये द्वादशो ह्यहम्‌॥ ` इत्येचं कथितं चत्स ! श्रीमद्गागचतं तब ` शति “बक्त्‌ : श्ोतुश्चोपदेष्टुरनुमो दितुरेच साहाय्यकर्तंगंद्त भक्तिसुक्तिविसुक्तिदम Il प्रौष्ठपद्यां पूणिमायां देमखिहसमाचितम्‌। देयं भागचतायेदं द्विजाय प्रीतिपूवेकम्‌ | सम्पूज्य चस्त्रहेमायेमंगवद्धक्तिमिच्छता | सोऽप्यनुक्रमणीमेतां श्रावयेच्छ्ण्यात्तथा स्व पुराणश्रचणज प्राप्नोति फळसुत्तमम्‌। अष्टाद्‌शपुराणानामचुक्रमतोऽ . वतरणवर्णेनम्वायुपुराणे ग्रतिपादितम्‌ ¦:

सरवंपापहर पुण्यं पवित्रं यशस्वि |

ब्रह्मा द्दौ शास्त्रमिद्‌ पुराण मातरिश्वने ५८ तस्माचोशनसा प्राप्त तस्माच्चापि वृहस्पति: ह€्पतिस्तु प्रोवाच सचित्र तद्नन्तरम्‌॥ ५६ सविता gal प्राइ KANATA वे पुनः | इन्द्रश्चापि वशिष्ठाय सोऽपि सारस्वताय ६०॥ सारस्घतस्त्रिधाम्ने त्रिधामा शरद्वते शरह्वतस्त्रिचिष्टाय सोऽन्तरिक्षाय दत्तवान्‌ ६१

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( ११४ )

घर्षिणे चान्तरिक्षो चै सोऽपि चय्यारणाय च। जय्यादणो YASI खळ प्रादात्छतलये ६२॥ कतञ्जयाचणजयो kerna सोऽप्यथ गोतमाय भरदाजः सोऽपि Beat फल ६३॥ ` नि्येन्तरस्तु Asa तथा घाजश्रचाय क। ददी Qarama. ददौ वृणबिन्द्चे ६४॥ | तृणबिन्दुस्तु दक्षाय दक्षः हत शके शक्तः पराशरस्चापि er Kasian ६५॥ पराशराज्ञातुकणस्तस्मादद्नेपघायनः अः ! ्वेपायनात्पुनश्चार्पिमया प्रोक्त द्चिज्ोस्माः ॥६६॥

शांशपायन उवाच :-- मया चे तत्पुनः प्रोक्त पुत्नायामितवुद्धये | इत्येव चाचा ब्रह्मादिशुरुणा समुदाहृताः

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पुराण परिचय ( परिशिष्ट )

कतिपय सम्मतयः

Tuo संक्समूलरः प्रतिपादयति स्वकीय ग्रन्थे

ndia what can it teach us. By Rt. Hon. F. Maxmuller, (Longmans Green & Co.) India, 1919.

COLLECTED WORKS नामके

| Page 3 “If I were to look over the whole world to

| find out the country richly endowed with all

the wealth, power and beauty that nature can bestow—in some parts » very paradise on earth—I should point to India. If I were

यदि सारै संसार भर में मुझे ऐसे देश को खोजने के ल्यि

कहा जाय जो धन, जन और प्राकृतिक सौन्द्ये साधन सम्पत्ति से परिपूर्ण हो और कुछ अंश में पृथ्वी पर स्वगे सद्दश हो तो मेरा केन्द्र बिन्दु भारत होगा यदि मुझे यह पूछा जाय कि Rya में मानच मस्तिष्क के अधिकाधिक पचित्रतम स्वच्छन्द

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Dae कळ masih !

(ii ) asked under what sky the human mind hg

most freely developed some’ of ‘its choice

gifts, has most deeply pondered on the greates' problems of life and {es {found solutions g

some of them which wili cleserve the attention even of those wko have stud Plato an Kant I should point to India, |

And if I were to ask myself from literature we here in Europe, we, who haw been nurtured almost exclusively on th thoughts of Greeks and Romans and Of one Semitic race the jewish, may draw that,

विकास की सुन्दरतम भेंट कौन से देश को प्रास हुई और कित. देश के निवासियों ने जीवन को महती समस्याओं पर गम्भी | रूप से विचार किया है और उनका निश्चित समाधान भो पू

से प्राप्त कर लिया जिसके लिये प्लेटो और काण्ट जेते दाशेनिकों की रचनाओंके प्रेमी भी अपने को अध्ययन करे क्‍ का अधिकारी मानते हें तो मेरा सङ्केत भारत भूमि के त्रि होणा |

और यदि मुझे फिर एक प्रश्‍नचाचक चिन्ह द्वारा यह कह जाय कि यूरोप में हमलोगों ने जिनके आदर्श पूर्णतया आस और रोमन जाति की विचार धारा पर आश्रित हैं और यहूदी जारि से भी प्रेरणा प्राप्त को हैं ऐसे सभी को किस साहित्य द्वार

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(ii ) corrective which is most. wanted in order to make our ‘inner life more perfect, more comprehensive,: more universal, in fact, more lively human—a life not for this life only, but a transfigured and eternal life—again I shou!d point to India. 14

That very Sanskrit the study of which may at first seem so tedious to you and so useless, if oniy you will carry it on, as you may carry it on here at Cambridge better than anywhere else, open before you large

| 'पूर्णता aa की आन्तरिक रूप से पूर्ण बनने की, adia:

asia और घिकसनशील बनने की प्रेरणा मिली है। घास्तच में ऐहिक जीघन के सम्बन्ध में ही नहीं वल्कि आमुष्मिक सत्य शाश्वत जीवन के लिये महत्त्व पूणे साहित्य से देन मिली “तो मेरा सङ्क फिर भी भारत ही होगा | | १४

यह संस्कृत भाषा का अध्ययन ही है जो पहले आपलोगों R कठिन परिश्रमसाध्य और अनुपयोगी लगता है यदि इसका सतत स्वाध्याय जैसा आपलोग कैम्ब्रिज में करते हें वेसी ही गति और उत्साह से सदा ही करते रहे तो आपके सामने एसो साहित्यक उन्मेष को गवेषणा दृष्टिगोचर होंगा जो अभी तक

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layers of literature as yet almost unknow and unexplored and allow you an insight Into- strata of thought deeper than any you have known before and rich in tessons that appeal : to the deepest sympathies of the human heart,

“India occupies a place second to no other country.’ |

15

Whatever sphere of the human mind you may select for your special study, whether it be language, or religion, or mythology or philoso- | phy, whether it belaws or customs, primitive

अज्ञाय और अनुसन्धान रहित थी और अन्तदर्शन की ऐसी सूक्ष्म क्षमता प्रदान करेगी अब शिक्षाप्रद उपदेशों से हमें उदात्त मानव चनने को बरा बर प्रेरणा मिळती रहेगी, मानव हृद्य की. गम्भीर सहाजुभूतियों को भी पूर्णतया प्रभावित करती है। |

सत्यान्वेषण के माग में भारत राष्ट्र का ही सवे प्रथम प्रमुख स्थान है

मानव मस्तिष्क के चिकांस की कोई भी देश को:अफी विशेष अध्ययन के लिये हम क्यों ले भले ही यह भाषा हो, धर्म हो, पौराणिक गाथा हो; दशन हो, व्यवहार हो,. रीति-नीति हो या आरम्मिक कला या विज्ञान. हो हमें उसका सोत भारत ही

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(v)

art or -primitive science, everywhere you have to go to India; whether you like it or not, because some of the most valuable and most instructive materials in the history of man are

treasured up in India, and in India only.”

August wilhelm fon Schleger :—

Jt is perhaps the deepest and loftiest thing the worid has to show.

“Schopen Hauer. The production of the highest Human Wisdom.” “Almost Super—Human Conception.”

“It is the most satisfying and elevating reading ( with the exception of the original texts) which is possible in the world ; it has been the solace of my life and will be the solace of myideath217 IN = =o o मिळेगा। आप इस में सहमत हों या हों सबसे अधिक मूल्यवान्‌ और सर्वाधिक शिक्षाप्रद सामग्री जो मानच के इतिहास में उपलब्ध होती है उसकी सञ्चित निधि केवळ भारत में ही है अन्यत्र नहीं। ' | ` आगष्ट ida फोनश्लेगर कहते हें--भारत की आध्यात्मिक विशेषता गम्भीर और उदात्त घस्तुतत्त्वों की संसार को देन है। MR . शोपेन हाचर कहता हँ--भास्तोय दरा gi विकसित वुद्धि का अपूवे ani है जो कि विचांरांश में अतिमानच प्रायः 21

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( vi)

Jow, if Einstein is right, or even partly right no physicists before his time knew ‘quite well what they were talking about. When they. used the ideas of distance and time and practically every stateraent that they’ made! which purported to be accurate was false,’ |

Possible worlds by

B. S. Haldane

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Science is not yet in contaci wita vitimate reality.

चह यह भी सम्मति :देता है कि उपनिषद साहित्य का, अध्ययन सन्तोष दायक, उन्नायक चिचारों से पूणे है इसका स्वाध्याय जेसे मुझे जीवन में शान्ति और रुफूतिदायक हुआ यह मृत्यु शय्या पर भी वेसे ही शान्तिदायक होगा

यदि सापेक्षबाद का अनुसन्धान कर्ता आइन्स्टीन ठीक हो या अंशात ठीक हो तो कोई भी विज्ञान नेता इस के पर्व इस से अनभिज्ञ था कि आजकल वेज्ञानिक लोग क्या क्या नई गवेषणा कर रहे हैं। जब उन्होंने दूरी समय ओसतसम्बन्धी प्रत्येक विवरण तयार किया और जिसे उस समय बिल्कुल ठीक बतलाते थे आज मिथ्या मालूम होता है।

. . 1जी० बी० qao हात्डेत विज्ञान अभी तक पण सत्य के सम्पक में नहीं आया है।

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( vii )

Once more then, if we mean by primitive, people who inhabited this earth as soon as the vanishing of the glacial period make this earth inhabitable, the Vedic poets were certainly not primitive. If we mean by primitive, people who were without a knowledge of fire, who used unpolished flints, and ate raw flesh, the Vedic poets were not primitive. If we mean by primitive, people who did not cultivate soil, had no fixed abodes, no kings, no sacrifices, no laws, again I say,

| the Vedic poets were not primitive. But

if we mean by primitive the people who have been the first of the Aryan race to

leave behind literary relics of their existence

एक वार फिर यदि हम आरम्मिक से ऐसे लोगोंको समझ जिन्होंने आदि कालमें सृष्टिको निवास योग्य बनाया तो वैदिक ऋषि आरस्मिक नहीं थे पुनः यदि हमारा अभिप्राय आदि निवासी से ऐसी जातिका हो जिन्हें अझिका ज्ञान नही था जो खरद्रे चकमकसे अग्नि जलाते थे और कच्चा मांस खाते थे तो इस अर्थ में वैदिक ऋषि आदिकालीन नहीं थे पुनः यदि हमारा यह अभिप्राय हो कि वे ऐसे आदिवासी थे जिन्होंने भूमि पर हल नहीं चलाया; स्िरनिचासकी योजना की; उनके राजा

थे;न वे यज्ञकरते थे और उनकेलिये राज्यके नियन्त्रण करनेवाले

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| ( viii ) | on earth, then I.say the Vedic poets an | primitive, the Vedic language is primitive, th | Vedic religion is primitive, and taken as, whole, more primitive than anything else tha we are -ver likely to recover in the whol history of our race. | The prosperity of country depends ng on the abundance of its revenues, not on th strength of its fortifications not on the beauty of its public buildings; but it consists in the number of its cultivated citizens, in the ma of education, enlightenment and character. | नियम थे तो वैदिक ऋषिप्राचीन नहीं थे परन्तु यदि हमाराअमि/ प्राय यह हो कि आदिकालीन घहीहै, जिन्होंने आये जातिके आरि | पुरुष होकर अपनी स्थिति में एक ऐसा अखण्डसाहित्य छोड़ा जिसको थाती से सभी गौरव अनुभव करते Lada. कि चैदिकऋषि आदि हैं; वेदविद्या आदिकाळ की है; वैदिक घा आद्य है और वे ऋषि सम्पूणे मानव सम्यसंलार के इतिद्दास |. भी सर्वप्रथम सभ्य होने का गौरव रखते हें | किसी देशकी सखद नतो इसके करोकीप्रमूत संग्रह सम पर आश्रित है; इसकी सुपुष्ट रक्षा पङ्क्ति पर निर्भर है और इसकेसार्वजनिक शोभायुक्त स्थानों पर अचलम्वित है। परन्तु इस आधार तो gara, नागरिक और शिक्षित जन जो नेतिक at बौद्धिक घिकास में आगे बढ़े हुए हैं और जो उन्नतिशील हैं j देश की सम्बृद्धि के वास्तघिक मापदण्ड हैं |

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(ix) Lecture II.

Warren Hastings thus speaks of the Hindus in general :—

“They are gentle and benevolent, more susceptible of gratitude for kindness shown. them, and less prompted to vengeance for wrongs inflicted than any people on the face

of the earth, faithful, affectionate, submissive to legal authority

But it is not Europe alone that has profited by this revival of the study of Sanskrit. India herself has lost the recollection of her past; here

literature was sinking in oblivion numerous

works of her celebrated writers had perished and others were annually perishing; her

ancient Janguage had died away and Was

वारैन हेस्टिंग्ज कहता है कि भारतीय भद्र, उदार, कृतज्ञ; और संसार की समस्त जातियों में जो बदला लेने की भावना

“भरी है उससे ऊपर उठे हुए विश्वासी, प्रेममय, और न्यायके सामने नतमस्तक होनेचाले मनुष्य हें

संस्कत चिद्याके पुनरुद्धार एवं पुनरुज्जीचनका केवल यूरोपने

'ही लाभ नहीं उठाया बल्कि और देशोंने भी विशेषरूपेण पूर्ण 'उन्नति प्राप्त की है। परन्तु भारत अपने गोरचपूण अतीत के

संस्मरणों को स्वयं खो चका हे. इस देश में प्रसिद्ध ग्रन्थ

'लेखकों के महत्वपूर्ण न्थ सदा के लिये घिलय हो गये और

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(x)

cultivated merely. by a few of her sons; am | last but least her social fabric and religiow! belief had come to rest on mediaeval ang modern works professedly derived from, and in harmony with her most ancient sacred text! but in truth the composition of an interested | degenerated priesthood ; corrupting her faith! depraving her morality and sapping the very.

foundations of her life | Introduction to Jaiminiy | Nyaya Mala Vistar Edited by—Theoder Goldstucke London Edition 187

Hata को सेहत ad र्न Haa गण नष्ट हो रहे हैं। उसकी प्राचीन गौरचमयी भाण ga प्रायः हो गई और केवल कुछ थोड़ेसे सरस्चतीके सुपुत्रं द्वार पढ़ी जाती है। और अन्तमें, उसका सामाजिक ढांचा तथां धार्मिक विश्‍वास मध्यकालीन एवं घर्तेमानकालीन Ia रचनापर आधारित हे। कहनेको तो उनका स्रोत भी प्राची वैदिक साहित्य कहा जाता है परन्तु वास्तवमै यह सर्व निर्माण आधुनिक ai पौरोहित्य कला विज्ञों का है इससे निवासियोंका धार्मिक विश्वास विकृत ; उसकी नेतिक पतन पराकाष्ठा एवं उसके जीवनकी आधारभूत शिलायें भी निप्र एवं गतिहीन हो गई है - थ्योडोर गोटडस्टकर द्वारा सम्पादित =

विस्तरकी अंग्रेजी भूमिकासे लन्दन संस्करण १८७८ सर

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( xi )

Religious experience is a reality.

Science and theology as art forms.

Reality seems to concern religious beliefs much more than any others.

Page 326. The nature of the physical worid : Eddington.

(Cambridge University edition)

Science is not yet in contact with ultimate reality. |Encyclopedia of modern knowledge the world ; whence and how].

Sir James Jeans.

(ama ओर थ्योलोजीः एज आटे फामेस से )

धार्मिक घिश्वासोंका सत्यके साथ अन्य घस्तुआंसे कहीं 'घनिष्ठतर सम्वन्ध È |

३२६ पू० (दी नेचर आव्‌ दी फीजिकल as) एडिङ्गटन कृत ( क्रेम्बिज विश्वविद्यालय संस्करण ) विज्ञान अन्तिम सत्यके सन्निकर नहीं पहु चा है। धार्मिक अनुभव वास्तघिक तथ्य है। इन्साइझोपिडिया ऑफ माडने नालेज अभीतक हम घास्तपिक तथ्यके खम्पकमें नहीं आये है पदार्थका बस्तुतत्व हमारे मनस्तत्व ओर बुद्वितत्त्व के गस्य

दी बढ्डे व्हेन्स अण्ड हाऊः सर जेम्स जीन्स

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(xii )

We are not yet in contact with ultimar reality

Real essence of substance is beyond knowledge. |

When we consider the modern estimak we may be inclined to sympathise rather with! ancient Brahmins who thought that the फणा

had always existed | Science News: '

Penguin Books!) |

taana ai MD NA > जळ. PY SP La daaa >...

Bishop Auber said :— |

पा The Hindus are brave, courteous, intelligen | most eager for knowledge and improvement; sober, industrious; dutiful to parents, affection! . able to their children ; uniformally gentle and!

जब हम आधुनिक विचरण पर विचार करते हैं तो हो पराचीन ब्राह्मणों के विचारों में सत्य दीखता है जो" संसार को शाश्वत बतलाते हैं |

| पेङ्ग्चिन न्यूज पेङग्घिन बुक्स १९

विशप ओबर कहते हैं |

भारतीय हिन्दू वीर, चिनस्र, बुद्धिमान, चिवेकी,, ज्ञानको अमर जिज्ञासा रखनेचाले ओर विकासशील जाति है जो MaL | 'परिश्रमशीळ, माता पिता कें प्रति कतंव्यपरायण और बालकोंगी

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( xiii )

patient and more easily affected by kindness and attention to their wants and feelings than any people I ever met with.

Let us not forget thar just as moral strength is the backbone of British prestige and power, as art is the backbone of life in France, so also religion is the bedrock of India’s future prosperity and happiness. Religion plays a signal role in our lives in bringing the three hundred sixty two million people of India with numerous barriers of sects and castes in them together under one banner whether we are rich or poor, whether we are Hindus, Jains or Christians. |

स्नेह भरी दृष्टि से देखनेवाले, एक समान उदार दयालु, धीर

गम्भीर और सरलता पूर्वक मनाये जाने और सबकी भाषनाओं का अधिकाधिक आद्र करनेवाले राष्ट्र के व्यक्ति हँ

हमें यह नहीं भूल जाना चाहिये कि जिस प्रकार ब्रिटिश गौरव और शक्तिका आधार उस राष्ट्र की नो सेना हे ओर फ्रांस देशवासियोंके जीवन का मेरुदण्ड कलानिर्माणकी शटर खला है इसी प्रकार भारतीय भावी समृद्धि और आनन्द की आधारशिला धर्म है। ३६ करोड़ भारतीयों के विभिन्न जाति, भाषा, धर्म आदि की विभिन्न बाधाओं के रहते हुए भी एक पताका के नीचे लानेवाला तत्त्व घमं ही है। फिर भले ही कोई धनी या

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( xiv )

We are all in a sense receiving our Vit) sustenance from the pulse beat of faith in oy

God.

Members of the Sanskrit Text Society :— Patron :

His Royal Highness the Prince of Wales Vice Patron :

His Majesty the king of Belgians The Rt. Hon. the secretary of state for India President : His Royal Highness the Duc D’ Aumala.

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निधन हो, चाहे कोई हिन्दू, जेन, फारसी या ईसाई हो aa एक शब्द में, अपनी धमनियों की अव्यर्थ,जीवनी शक्तिके स्रोतदे लिये आत्मामें ईश्वर के प्रति ge विश्वास को ही मानते हैं Kara में स्थापित संस्कृत ग्रन्थ -प्रकाशन समिति सदस्यों की नामावलि-- | संरक्षक--हिज रायळ हाइनेस वेल्स के राजकुमार | | उपसंरक्षक-- हिज RA वेल्जियन्स के राजा माननीय भारत मंत्री | सभापति--

हिज रायळ हाइनेस ड्यू आमडा

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( xv )

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itg | Vice Presidents : Ong His Excellency Mr. Van De Weyer.

| ‘The Right Hon. Lord Dufferin and Clanerboye k "Treasurer $

| David Salomons Esgr. M. M.

| Hony Secy :

Octane Depierre, Esqr.

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ži | 1 13 | À | | उपसभापपि-- | हिज एक्सेलेन्सी श्रो चानडेवेयर, माननीय लाड डफरिन ओर ! PAT बाय |

कोषाध्यक्ष--डेविड सलोमन्स एम० एम० | Tt अचेतनिक मंत्री-आओक्टेन डि पियर |

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( xvi )

| l | Tugas ¦ | अछोकिको हि वेदार्थो युक्त्या प्रतिएयते | तपसा वेद युत्या तु प्रसादातपरसात्मन; | सन्देहचारकं शास्त्रं वद्धिदोषान्तडद्चः | | विरुद्धशास्त्रसब्भेदाद शाशदयपानस्षय:) || | तस्मात्सूानुसारैण masa: QAAE: | अन्यथा अश्यते स्वाथान्मध्यसम्च हथा55दिमः श्रृतिस्खृति पुराणानां विरोधो यत्र हश्यते | तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्ेंधे स्मतिवेरा ॥” व्यास स्मरति अध्याय l वेद्वेदाङ्गशास्त्राणि सेतिहासानि चाभ्यसेत्‌ अध्यापयेच्च तच्छिष्यान्‌ सदुविम्रांच्य द्विजोत्तमः इतिहासपुराणानां वेदोपनिषदां द्विजः शक्त्या सम्यकपठेननित्यमदपमप्याखमापनात्‌ १०। यज्ञदानतपसामखिळं फलमाप्नुयात्‌। वेदेभ्यो ऽन्य सन्तु विप्र: शूद्रतामियात्‌। तस्मादहरदर्वदं द्विजो5धीयीत वाग्यत | बह्मपुराणे5पि | इतिहासपुराणानि यदन्यच्छब्दगोचरम्‌ स्वतो सुखे मा यादभूच् स्खतिगोचरम्‌। वेदा्थश्च मया सों ज्ञातोऽसौ तते

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C xvi ) त्राह्मणं पुरस्कृत्य त्राह्मणेन कीतितम्‌ पुराणं श्टणुयान्नित्यं महापापदचानलम्‌ पुराणं सर्वेतीथषु ती्थश्चाधिकमुच्यते यस्येकपादश्रचणाद्धरिरेष प्रसीदति | user जगतामेच हरिरालोकहेतवे | adara: प्रकाशाय पुराणाचयचो हरिः Rate भूतेषु पुराणं पाचनं परम्‌ ara हरेः प्रीतेरुत्पादे धीयते मतिः श्रोतव्यमनिशां पुम्भिः पुराणं कृष्णरूपिणः चिष्णुभक्तन शान्तेन श्रोतव्यमिति sena पुराणाख्यानममलममलीकरणं परम्‌ यस्मिन्वेदार्थमाहृत्य हरिणा व्यासरूपिणा पुराणं निमितं विप्र तस्मात्तत्परमो भवेत्‌ पुराणो निश्चितो धर्मो घमश्च केशचः स्वयम्‌ | तस्मात्ङती पुराणे हि श्रुते चिष्णुभेवेदिति तथा गङ्गाम्बुसेकेन नाशयेत्किल्विषं स्वकम्‌ | केशचो द्र्चरूपेण पापात्तार्यते मीम्‌ | वैष्णयो विष्णुभजनस्याऽऽकाङश्षी यदि घतेते l गङ्काम्चुसेकममलममलीकरणं RTI विष्णुभक्तिप्रदा देवी गङ्गा सुषि गीयते विष्णुरूपा हि सा गङ्गा लोकनिस्तारकारिणी | :

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| ( xviii ) | | saag पुराणेषु गङ्गायां ang पिप्पले | 'नारायणधियापुस्मिभक्िःकार्या हाड तुकी | पद्मपुराण REUS ६२ अध्याय--५८ | योऽधीते थरुतिमेचा 55दी समं सयासपसा छुनै ase AT ara यदाप्नोति द्विजोततमः | तदण्यायाच अप्याच्च ष्ठिः Rea जगद्यथा निरालोकं जायते शशिभास्करी चिना तथा पुण हि ध्येयमस्मान्महाछुने 1 तपभ्रानः सदाज्ञान धारयति पत सस्वोधयति छोकञ्च वस्मात्यूज्यतमो गुरु: सर्मेबाउचैच रा AS पात्र पुराणचित्‌ पतनात्त्रायते यस्मासस्मात्या sgae विष्णोरायतने यस्तु कारयेद्धर्म पुस्तकं देव्या: Reg अकस्यच तथा पुनः राजसूयाश्‍वमेधास्यां फलम्प्राम्रोति मा इतिहासपुराणानां पुण्यं पुस्तकवाचनम्‌ सर्वान्कामानवागीर सूर्येछोकम्मिनित्ति सः सूर्यलोकञ्चभित्वा ऽसौ त्रझलोकञ्च गच्छत तस्मात्सवेप्रयल्लेन कार्यम्पुस्तकघाचनम्‌ | इतिहासपुराणागं णोरायतनेशुभम्‌। [ पद्मपुराण उत्तर खण्ड].

वेष्णवं.दक्षिणो arg: शैचं aah महेशितुः उरू भागवतम्पोक्त नाभिः स्यान्नारदीयकम्‌ | माकण्डेयञ्च Garena ह्याग्नेयसुच्यते | भविष्यं दक्षिणो -जानुचिष्णोरेच महात्मनः | त्रहचेचतं्रञज्ञन्तु चामजानुरुदाहृतः |

SFI RRE दक्षं वाराहं घामगुदफकम्‌

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( xix )

स्कन्द्‌ पुराणं लोमानि त्वगस्य घामनं स्खतम t कोस पृष्ठं समाख्यातं मात्स्यं मेदः प्रकीर्यते मज्जः तु गारुङम्प्रोक्तं घ्रह्माण्डमस्थि गीयते | एयसेचाभचद्विष्णुः पुराणाचयघो हरिः | [ पद्मपुराण आदिम खण्ड ] अश 'चिष्णोः परेशस्य नानाघिग्रहघारिणः | एक पुराणफलक तच्छुणुध्वं द्विजोत्तमाः | अझ कदपवृत्तान्तोद्रवं त्रां हरेमेस्तकं पझककलपत्वत्तान्तो-

| द्रवं पाइ द्यं, .चाराइकदपत्त्तान्तोट्भवं चैष्णवं दक्षिणवाहुः,

शवेतकद्पश्वत्तान्तोद्गवं शिवपुराणं घामवाडुः, सारस्वतकल्पवृत्ता- agi भागवतं वक्षःस्थळ, बृहत्कहपवृत्तान्तोद्भवं नारदीयं नामिः

श्वेतबाराइकदपत्वत्तान्तोद्भवं मार्कण्डेयं दक्षिणाङ्घिः, ईशानकल्प garagai आग्नेयं घामांध्रिः, अधोरकव्पवृत्तान्तोड़व॑ भविष्यं दक्षिणजानुः, रथन्तरकरपतृत्तान्तोद्भवं त्रह्मवेचत॑ चामजानुः, कटपान्तत्रत्तान्तोद्ग्चं लेडु दक्षिणुरफः, मनुकल्पवत्तान्तोद्गवं वाराहं NARR, तत्पुरुषकट्पवृत्तान्तोद्धवं स्कान्दं हरे: रोमाणि, Remeng घामनं शारीरत्वक्‌, लक्षमीकल्पतृत्तान्तोद्भचं कोमं पृष्ठ, कहपादी सप्तकदपत्रत्तान्तोद्गवं मात्स्यं मेढ्रम्‌, गरुड़- कत्पवृत्तान्तोद्ववं गारुडं दक्षिणं पादाग्रं, भविष्यकट्पानांवृत्तान्तो- इच ब्रह्माण्ड चामपादाग्र, एच सत्त्वरजस्तम आद्यात्मकमष्टादश पुराणरूपो हरि; पुराणेषु प्रकाशते | तत्र सात्त्विक पुराणे घिष्णो रधिकमाहात्म्यं राजसे प्रङतित्रह्मसूर्याणां तामसेऽसिशिष-

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(xx)

सेरवादीमां माहात्म्यस्‌ मिश्रे तु पितृणां माहात्स्यम्‌। y अष्टादशं मुख्यपुराणसंख्यासपूहस्णतुलझ एज |

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(इदिपाझमात्स्ययो, | अथ अष्टादशम्यश्च पृथक्‌ पुराणं यत्महूश्यते विज्ञानीछ |: द्विजश्रेष्ठास्तदेतेश्यो aan | 'तन्त्रवातिके प्रथमाध्यायस्य तृतीय UR :-- | 'एषचेतिहासएुराणयोरप्युपदेशवाचयानां गदिः | उपाख्यानानि adany व्याख्यातानि | यत्तु एथिचीविभागकथनं तद्धर्माघर्मखाधनफलो पभोग- | - प्रदेशविवेकाय किञ्चिद्दशनपूर्वक किञ्चिद्वेदभूलम्‌। | वंशानुक्तमणमपि-ब्राह्मणक्ष त्रियजा तिगो अज्ञानां | दशेनस्मरणसूलम्‌। देशकाळपरिमाणमपि लोकज्योतिः | शास्त्रव्यबहारसिदुध्यये॑ दर्शनगणितसम्प्रदायाुमारः | Vm भाविकथनमपि त्वनादिकालप्रवृत्तयुगखभाव-' घर्माधर्माचुछानफछविपाकवेचित्यज्ञानद्वारेण वेदमूल्म्‌ | | अद्भुविद्यानामपिक्रत्वर्थपुरुषार्थप्रतिपादनं छो कचेदपूर्घकले। चिवेक्तव्यम्‌- इससे स्पष्ट'हो गया कि धर्मशास्त्रो के पढ़े बिना बिश भावना का निर्माण असम्भव है विशाळ भावना के विना शाति. ऐश्वये और सुशील की अभिवृद्धि कभी नहीं हुआ करती | ` कुछ विद्वानों की. यह धारणा है कि पुराणों में अनेक ad यर उत्तरवर्ती आचायो ने अपने अपने मतों के स्थापन, तथा पु.

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| |

| | ( xxi )

के लिये अनेक प्रक्षिप्त पाठ समाविष्ट कर दिये हे; परन्तु जहाँ तक

मैंने इन पुराणों का. पारायण मनन. किया है उससे मेरी तुच्छ यो, बुद्धि इसी निष्के पर पहुंची है कि इन अष्टादश पुराणों में कहीं घ्रं भी प्रक्षिघ्त पाठ का समावेश नहीं किया है। अन्य श्रीमदभागवत | आदि उपपुराणोंमें चाहे प्रक्षिप्त श्‍लोक समाविष्ट कर दिये गये हों : | परन्तु अछाद्श महापुराणों में महषिप्रणीत पुरातन पाठ ही ज्यों | का त्यों अपरिवर्तित तथा अपरिबद्धित रूपमें चला रहा है | उसमें शिली प्रकार को वृद्धि साम्प्रदायिक आचार्यो के द्वारा | जहीं की गई प्रतीत होती है। प्रत्युत घराहपुराण में तो महर्षि- प्रणीत पूरा पाठ भो नहीं उपलब्ध हो रहा है इनमें आया हुआ एक एक शब्द भ्रच सत्य तथा सृष्टि कल्याण भावना से ओत- :| 'ग्रोत हे उसमें किसी प्रकार आशंका सन्देह का अवकाश नहीं d है। ईश्वरीय प्रकृति की मर्यादारूप से इनमें स्थिति है। इनकी | जानकारी होने के कारण ही आज का मानच मनमाने कमे करके नाना कष्टों का शिकार वना हुआ है, अतः आत्म कल्याणा- भिलाषी प्रत्येक मानच को इनका मनन करना नितान्त आव- श्यक È |

आजकल विशाल भावनायें कितनी संकुचित होती जा रही है यह इसी बातसे स्पष्ट है कि बालकों के असीम'ज्ञान को थोडे से समय के लिये दिये गये प्रश्नपत्रों दुघारा हां परीक्षा कर उसकी योग्यता का प्रमाण पत्र दे दिया जाता है। इससे -अनुशासनहीनता, प्राचीन गुरुशिष्य-परम्परा का अभाव ओर

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( xxii )

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और इतनी विशाळ ज्ञान राशि पाने पर भी अशनान्धकारमें आउ. कर्के नवयुवकों का मस्तिष्क अटकत है कि इन्हें केवल सड | ` अशान्ति ओर कलह की Ran gan में ही आनन्द आता है| |

आज कल हमारे वालको को जो पुस्तकें पढाई जाती | उससे बिकाश विळकुछ ही एक जाता है। आज खो कुछ प्रश्ना पढ़ाकर उनके अपेक्षित उत्तरो से सन्तोष लानमेथाळा अध्याए | सव शिष्य ओर उनके अभिभावकगण छतहछत्य हो जाते हैं, ता. एकही ध्येय बनाये रहते हैँ ; उत्तीर्ण होना घया बाळक केमात पिता; क्या भाई बहिन दया अन्य शुभचिन्वक एक ही बात कहे हैं कि हमारा वाळक उत्तीर्ण हो

इसका बुरा परिणाम यहां तक देखने में आता है हि नो निहाळ राष्ट्र की भाची उन्नति ये बाळक और ये नचयुचक अफे | जीवन तक की भी वाजी लगा देते हैं। अर्थात्‌ इस पर भी | दुर्भाग्य से उत्तीर्ण होने का सुसमाचार मिला तो लि. होकर T नवयुवक आत्महत्या तक कर लेते हैँ। ऐसे सुन्द | ज्ञान की प्राप्ति के लिये घुणित उपाय काम में लेते हें जेसे, नकर करना, परीक्षक को अनाचार का शिकार बना sai

अनुशासन तोडना, और यहांतक कि परीक्षा भवन के 5 की हत्यातक भी की गई देखी गई हे ऐसे राष्ट्र की जड़ को खोल

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( xxiii ) | बनानेवाले दूषित तत्त्व इस शिक्षा के अनिवार्य अङ्ग वन चुके हैं बस ऐसे विकास से भगवान ही रक्षा करे। हमें विकास की अवश्य आवश्यकता है परन्तु शक्तिक्षीण करने चाळा विकास अनिच्छित है। | ऊपर निवेदन किया है कि सारा यह दोष आजके विद्यार्थी काही नहीं है इसमें उनकी शिक्षा पद्धति का बाहा और अन्त: | रूप यमाने घाली विश्वविद्यालय जेसी संस्थाओं का भी कम | दोष नहीं है। चे सब समय एक ही दृष्टि से काम करते हें किसी प्रकार विश्व-विद्यालय के परीक्षार्थी छात्रों की संख्या वढे ये यह कभी नहीं सोचते कि जहां पञ्चषषीय- योजना के लिये बड़े भारी रूप में जो नदी बांध योज- | नायं विद्युत्‌ उत्पादनशक्तिकेन्द और अन्नोत्पादनाथं नहर बनाई जा रही हैं उनके पीछे सब को चलाने घाले इस बौद्धिक केन्द्र मनुष्यरूपी शक्ति का सञ्चालन करने के लिये हमने क्यों उपेक्षा और अनवधानता कर रक्खी है ? आज तक इस शिक्षाको भारतीय रूपरेखा में ढालने का प्रयत्न हुआ अवश्य लेकिन सब ही नक्कार खाने में तूती की आवाज ही सिद्ध हुई। आज उत्तीर्ण होने के लिये प्रयत्न जोरों से चाळू है और संसार यात्रामें प्रवेश करने पर उस कतेव्याकतेव्यशून्य व्यक्ति का ज्ञान उसे सदा थपेड़ों से सीधा करता है।

इस प्रकार हमें अपने आपको भावी सन्तान की घिकाश- शीळ प्रवृत्ति के लिये सचेष्ट रूपमें प्रयत्न करना चाहिये इसीमें सव का कल्याण हे।

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( xxiv )

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धसेशास्त्र ग्रन्थों में मदृषियों ने ज्ञान विज्ञान को कूट कूर भर दिया है इन पुण्यश्लोक महषियों के लक्ष्य को उन्ह है खमान उदार लोकोपकारितापूर्ण वुद्धिसम्पन्न व्यक्ति है जानसकते है क्योंकि इनका निर्माण ही तपः ga महद्ियो | की कल्याणमयी प्रवृत्ति एवं akang भावनाओं से | हुआ है |

आधुनिक लोग सत्यमागे बताने बाळे शास्त्रों के अध्ययनको. एक किनारे छोड़ बड़ी२ डिग्रियाँ के लिये एड़ी चोटी का पसीगा | एक कर देते हैं अपनी विद्वत्ता की कसौटी उन्हीं उपाधियो | प्रमाण पत्रों को ही समभते हें परन्तु यह सब शास्त्रीय ज्ञान एवं. साहित्य को सङ्कुचित करने में ही अधिक सहायक हुआ है और साथ ही उस सुन्दर ज्ञान की खिल्ली उड़ाने में भी। क्यों | कि इन गम्भीर परोक्ष अर्थो से. पूर्ण शास्त्रों को agaa aan | देखने से ही अपना पराया किसी का भी हित साधन ad हो सकता है इसी का परिणाम है सृष्टि की अशान्ति सुरू तो | खेद और दुःख तब होता है जब में यह सोचता हूं कि ऐसे | महानुभाव श्रुति स्मृति एवं पुराणादि के बिना अपने को ag मनोधुत्ति का शिकार बना अपनी उपाधियों से गौरचात्वि होकर हमारी भावी पीढो को किस प्रकार शारीरिक, मानसिक

बौद्धिक, आत्मिक एवं सर्वाङ्गीण शिक्षा देकर उन्नत बनाने के लिये शिक्षा के अधिकारी कर्णधारों द्वारा चुने जाते हें। A | ये कभी भाषी सन्तान को उन्नत शिक्षा दे सकेंगे ? यह

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( xxv )

प्रभु ही साक्षोरूप से जानें। तो किसी प्रकार भी उन भाची सन्तानों का उद्धार इनसे असम्भव साही लगता हे |

शास्त्र स्पष्ट कहते हें कि शास्त्रों के बिना जो भी कार्य करता हे घह अपना एवं अपने से सम्बन्धित सभी का अत्यधिक अहित करता है

श्रतिहीनाय चिप्राय स्म्मतिहीने तथेच दानम्भोजनमन्यञ्च ad कुलचिनाशनम्‌

अस्तु, सृष्टि में शान्ति स्थापना इनमें निहित भाषों को व्या पक दृष्टि से प्रचार करने से ही हो सकती है। इसका एकमात्र उपाय है बहुश्चुतता, श्रुति स्मृति पुराणादि की पूरी सङ्गति बिठाना एवं उदार प्राणिहित की भावना से अर्थ का प्रकाश करना |

बुद्धिवृद्धिकराण्याशु धन्यानि हितानि नित्यं शास्त्राण्य-

| वेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान्‌॥ यथा यथा हि पुरुषः शास्त्र

समधिगच्छति तथा तथा विजानाति विज्ञानश्चास्य रोचते | HJE अ० ४।१६।२० |

शास्त्रों को बुद्धिके द्वारा कसौटी पर कस कर पूणे सङ्गत अर्थ निकालना चाहिये जो सवे प्राणि हित में पूर्ण सहायक हो क्योंकि इनका एक एक शब्द bau है जिसका स्वार्थमय अभिप्राय मानच की -अपूर्णता और अघनति का द्योतक और हमारे लिये खदा ही घातक है।

जो लोग इस ज्ञानसे बञ्चित हैं उनकी खाली डिग्रियां

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( xxvi ) उपाधिमात्र हें “ज्ञानं भारः क्रियास्विना ।” स्वरूपकी उपलगि |

युक्त क्रिया के बिना ज्ञान भार स्वरूप È | | “शास्त्राण्यधीत्यापि भघन्ति मूर्खा यस्तु क्रियाचान पुरुष: विद्वान्‌” शास्त्राध्ययन करनेपर भी क्रिया रहित उच्च आशय à जीचनमें शास्त्र के सिद्धान्तो का आचरण करने से प्राणिमाः | का उपकार कर सकने के कारण ऐसे व्यक्ति के सव ग्रन्थों कष पठन अपूर्ण ही माना जाता है। आज तो जब परीक्षा पिशा का जोर बढ़ रहा है तो अन्थका उच्च लक्ष्य से आशय fiag | समभा ही नहीं जाता और “पुस्तकी भवति पण्डितः” होम अपने को धन्य समभनेमें ही उनके लक्ष्य की पूति हो जाब है _ फलत: शास्त्र जीवन शास्त्रबुद्धि और संस्कृति aa विकृत हो गया है ऐसे लोगोंको शास्त्र का तत्त्व दुरधिगा | | गुरुप्रसाद, भगवत्कृपा और शास्त्र बुद्धिसे इनका स्वाध्या उदारं हृदय और लोकोपकारितापूर्ण भावना द्वारा अध्ययन कते से ही शात्र जीवनी प्रचलित हो सकती है। तभी प्राणीमात्र का पूणे कल्याण है | | इस लिये सभी से मेरी fraa प्रार्थना हैं कि शास्त्रों में | तत्त्व कूट कूरकर भरा है उसे यथार्थ रुपमै जानने का प्रयत्न इसी से शान्ति प्राप्त होकर भमरता, सफलता और erna मिळती है। अतः विशाल हृदय और उच्च भावना से Ta स्वाध्याय कर प्राणी मात्र के कल्याण में संलग्न रहें | y

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( xxvii )

यह ध्यान रहे बुद्धि के बिना तत्त्व परिणाम और ज्ञान की वृद्धि नहीं होती एवं ज्ञान की प्राप्ति के बिना. मोक्ष असम्भच है। संस्कृत का अक्षर ज्ञान सुरे स्वल्प हें तो..में स्वयं व्याकरणं के व्युत्पत्ति रूम्य शब्द-अथ्थ का ज्ञाता हँ, ही मैंने साहित्य का किसी प्रकार से घिशेष अध्ययन किया है परन्तु

i मेरा मन सदा से ही इधर लगा है। हां,.गतदशकों से में Tenda साहित्य का यत्किञ्चित्‌ आस्वादन पण्डितों की. सहायता से

कर पाया हूँ ज्यों ज्या मेरा. प्रवेश होता गया त्यों त्यों ज्ञानवृद्धि के साथ मेरा प्रेम ओर आकषेण: इस अलौकिक साहित्य के प्रति अधिकाधिक अगाध श्रद्धा के साथ. बढ़ता गग्रा। मुझे प्रति दिन अमित घन राशि मिळती जाती है। मेरा समय दूसरे व्यवहार के कार्यो में लगा रहनेपर भी अपना मन अहनिश इनके स्वाध्याय में प्रवृत्त होकर अमित आनन्द लूटने की अभि- लाषा करता है। अवश्य ही जीवन में इनका स्वाध्याय सुपृहणीय È |

इसी अगाध श्रद्धा एवं प्रेम का ही प्रत्यक्ष फल यह पुराण परिचयके रूपमें इन SiN एकत्रित संग्रह थोड़ा बहुत सेवा में प्रस्तुत है मैं अपने नित्य स्वाध्यायसे जो कुछ इस महान्‌ अगाध समुद्र में से प्राप्त करता हुँ बह सब यथासमय पत्रों द्वारा निवेदन किया जाता ही है।

आशा है, उदार पाठकगण अभिनघ, स्वतन्त्रता के घिकसन- शील घाताचरण में सर्वाधिक शास्त्रमय जीघन बनाकर आदशे

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( xxviii ) |

यथार्थवादी कसौटी पर सिद्धान्तो का निर्धारण कर | महान्‌ ग्रन्थों में प्रस्तुत ज्ञान का सचे अर्थो में प्रच ALT | |

इनमैं जो कुछ सुन्दर बन सका है चह आप उदार सज़नोंर महनीय कृपा का फल है और कोई त्र॒टिपूणे या असुन्दर भूल से रह गई हो उसके लिये में करवद्ध क्षमा प्रार्थी | अहनिश आप सभी महाचुभाषों के शुभाशीर्बांद का इच्छुक | जिससे प्रभु रूपा द्वारा शक्ति एवं सत्प्रेरणा से कर्तव्य पालन) | लगा रह अपने faa निवेदन का उपसंहार करते हुए प्र से हम सब को सद्बुद्धि प्रदान एवं कतेव्य पालन क्षमता सतत प्रार्थना है

तत्सद्‌ ब्रह्मापेणमस्तु |

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श्रोगणेशायनमः॥

श्रीत्रह्मपुराण में आये हुए विषयों का अनुक्रम

अध्याय प्रधान विषय पृष्ठाडु

नसिषारण्यवरणनम्‌ , मुनिगणंठोमहपणसंवाद- वणनम्‌ मंगलाचरण के श्लोक, नेमिषारण्य का चर्णन, सुनियों का शुभागमन, नेमिषारण्य में gas का जाना तथा ऋषियों का उनके प्रति पुराण सुनाने के लिये सानुरोघ प्रश्‍न, श्री लोम- हर्षण द्वारा पुराणकथा का आरम्भ | आदिसर्गवर्णनम्‌ | oy सृष्टि के सम्बन्ध में विवरण, जल को उत्पत्ति, ब्रह्माजी का आविर्भाव, ब्रह्मा द्वारा अण्ड का दो भाग करना, ब्रह्मा से मरीचि आदि ऋषियों की उत्पत्ति। रुद्र आदि का उद्धव, वैवस्वत ag की उत्पत्ति, आदि सगे के सुनने का फल स्वायम्थुवमनुवंशवणनम्‌ , एत्यूत्पत्तिः, तदंशवणनश्व, दक्षवशवणनम्‌ | 9 स्वायम्भुच मनु के साथ शतरूपा का घिघाह, शतरूपासै प्रिय- व्रत, उत्तानपाद दो पुत्र एवं काम्या नामक कन्या के जन्म

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(२) | का आख्यान। उत्तानपाद के वंश का वर्णन प्रसङ्ग पृथुका जन्म प्रचेताओं की उत्पद्धि प्रचेताओं के मुखा निकली हुई अग्नि से वृक्षों का जलना उनका वृक्षक के साथ विषाह।. बृक्षकन्या में दक्ष की उत्पत्ति दक्ष का वंशवर्णन एवं; इस कथा के सुनने का फल। |

देचदानवोस्पत्तिवणेनम। ११ देवताओं की उत्पत्ति कथन | सर्च प्रथम दक्ष की मानसि सन्तान का वर्णन पुनः मैथुन धर्म से असिक्की नामक फं में हयश्‍वो का जन्म। पिता की आज्ञा से वंश बढ्ने i लिये इच्छुक हयेश्वों को नारद्जी का उपदेश और m चन में जाना फिर शबलाश्व नाम पुत्रों की उत्पत्ति, उत! भी नारद जी के उपदेश से पूर्वचत्‌ चन में जाना शवलाई को नष्ट जान कर दक्ष ने फिर ६० कन्याओ की उत्पत्ति उनका विवाह एवं उनको सन्तानो का वर्णन | ag 'की उत्पत्ति | अहत्वा पादयोः शौचं दितिः शयनमाविशत्‌। | निद्रां चादारयाएास तस्यां कुक्षिं प्रविश्य सः॥ | वज्रपाणिस्ततो गर्म सप्तघा तं न्यक्कन्तयत्‌ | | पाट्यमानो गर्माऽथ घञ्रोण प्रस्रोदह N | मा रोदीरिति तं शाक्रः पुनः पुनरथात्रचीत्‌। | सोऽभषत्‌ सप्तधा गर्भे स्तमिन्द्रो रुषितः पुनः |

Tak सप्तधा चक्रे वज णेवारिकर्षण: ` | |

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(४३४) )

मरुतो नाम ते देवा aya दविजसत्तमाः भूत खगं के सुनने का फल |

प्रथुमारभ्य सवेदेवदानवादीनां राज्याभिषेकवर्णनम्‌ पृथुचरित्रवर्णनम्‌, प्रथुपृथ्वीसंवादवर्णनम २५ प्रितामह द्वारा उन-उन स्थलों पर किये गये देव दानघों का राज्याभिषेकवर्णन | $ 'पृथुचरित का आरम्भ वेन का चरित। वेन के दुश्चरित्रों को देखकर ऋषियों द्वारा शाप देना। ऋषियों के शाप से मरे हुये वेन की वाहु के मथन से पृथु का जन्म, पृथ का राज्याभिषेक, पृथु के राज्यकी स्थितिका चर्णन, सूत, मागध एवं बन्दी जन द्वारा पृथु की स्तुति आपस्तस्तम्भिरे तस्य समुद्रमभियास्यतः | adam द्‌दुमांगं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्‌॥ अकृष्ट पच्या पृथिवी सिध्यन्त्यन्नानि चिन्तनात्‌ | सर्वकामदुघा गावः पुरके पुरके मधु TA का पृथ्वी पर शासन | पृथ्वीदोहनवर्णनम्‌ ३५ पृथ का पृथ्वी के दोइने का घर्णन | तद उत्सारयामास शेलान शातसहस््नशः। '्नुष्कोट्या तदा चेन्यस्तेन शैला Aafaa: नहि. पूर्वे विसर्ग वै विषमे प्रथिवीतळे। .

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(-४ )

संविभागः पुराणां घा ग्रामाणां वाभवत्तदा

शस्यानि गोरक्ष्यं छषिने चणिक्‌ पथ: |

'नेव सत्यान तं चासीन्न लोभो मत्सरः वेचस्चतेऽन्तरे तस्मिन्‌ ansi समुपस्थिते | चन्यात्प्रशृति चे विप्राः सवेस्येतस्य AFAA: ॥।

यत्र यत्न सम त्वस्या भूमेरासीत्तदा हिजाः | तत्र तत्र प्रज्ञाः सर्वा चिचासं समरोचयन्‌ ॥. आहारः फलमूलानि प्रजानामभवत्तदा | कच्छु महता युक्त इत्येषमनुशुश्रम N:

कल्पयित्वा घत्खं तु मनं स्वायम्सुचं प्रभुम्‌ ` स्वपाणौ पुरुषव्याघो दुदोह पृथिवी ततः॥

शस्य जातानि सर्वाणि पृथुरवेन्यः प्रतापचान्‌। तेनान्नेन प्रजाः सर्वा घतन्तेऽद्यापि सर्वशः

दोहने में aca, पात्र, दुग्ध और दोहनेवालों का aula"

ऋषयश्च तदा देवाः पितरोऽथ सरीस्रपाः ६८ `

दत्या यक्षाः पुण्यजना गन्धर्वाः परचता नगाः

एते पुरा द्विजश्रेष्ठा दुदुह्॒धरणीं frg |

क्षीर चत्सश्च पाञ्च तेषां दोग्धा पृथक पृथक

ऋषीणामभवत्सोमो घत्सो दोग्धा बृहरुपतिः

क्षीर तेषां तपो ब्रह्म पात्रं छन्दांसि भो द्विजाः

देवानां काञ्चनं पात्रं बत्सस्तेषां शतक्रतुः ` क्षीरमोजस्करश्चे दोग्धा भगधान रवि:

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-. उपितणां राजतं पात्रं यमोषत्सः प्रतापचान |

अन्तकश्याभवद्‌ दोग्धा क्षीरं तेषां सुधा.स्सृता नागानां तक्षकोवत्सः पात्रं चालाबुसंक्षकम्‌ दोग्धा त्वेरावतो नागस्तेषां क्षीरं चिषं स्म्रुतम्‌

_ अखुराणां मधुर्दोग्धा क्षीरं मायामयं San

विरोचनस्तु वत्सो5भूदायसं पात्रमेच यक्षाणामामपात्रं तु घत्लो वेश्रवणः प्रभुः |

दोग्धा रजतनाभस्तु &्षीरान्तर्धानमेघ | सुमाली राक्षसेन्द्राणां बत्सं क्षीरञ्च शोणितम्‌ | दोग्धा रजत नाभस्तु कपाल पात्रमेच गन्धर्वाणां चित्ररथो घत्सः पात्रं पङ्जम्‌। .. दोग्धा सुरुचिः क्षीर तेषां गन्धः शुचिः स्मृतः Ig पात्रं पवेतानां क्षीरं रत्नौषधीस्तथा . चत्सस्तु हिमवानासीद्‌ दोग्धा मेरुमेद्दागिरिः॥ | प्लक्षो चत्सस्तु वृक्षाणां दोग्धा शालस्तु पुष्पितः | 'पाळाइापात्रं क्षीरञ्च छिन्नदगघप्ररोहणम्‌

सेयं धात्री चिधात्री पाचनी वसुन्धरा चराचरस्य सर्वस्य प्रतिष्टा योनिरैच . सर्वकामदुघा दोग्यी सचेशस्यप्ररोहिणी | आसीदियं समुद्रान्ता मेदिनी परिधिश्रुता 'मधुकैरभयोः इतस्ना मेदसा समभिप्लुता

तेनेयं मेदिनी देबी उच्यते ब्रह्मादिभिः

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“| (६)

मन्वन्तरवणनम्‌ ` "जीन मन्वन्तरो में देवषि-इन्द्रांदिकों का निरूपण महाप एवं अहप प्रलय का वर्णन | |

आदित्योप्पत्तिवर्णणम्‌ ` k: आदित्य के पुत्र एवं कन्या का वर्णन, छाया एवं संज्ञा संवादओर उनका चरित्र चर्णन। घिघस्वान्‌ ( सूयं) यम का संघाद्‌। छाया का घोड़ी रूप धारण करना, का अश्च रूप से छाया के साथ संगम | देवचेचय अथि कुमारों की उत्पत्ति। संक्षेप से सूयं पुत्र यमुना, शेष साचणि का चर्णन, देय सृष्टि के जुनने का माहात्म्य | |

खयवशवर्णनम्‌, इलोपाख्यानवर्णनस्‌, कुवल्या- |

इवचरित्रवर्णनम, सत्यत्रतच रित्रवर्णनश्च E सूर्य वंशमें इलाको उत्पत्ति इला एवं मैत्रावरुण का GR इलाका TAK साथ समागम सुद्यम्वादिको का जन्म उक वंश वर्णन, इक्ष्वाकु आदि मनु पुत्रों का वंश चर्णन। कु!

स्थलीका निमांण। वलदेव और रेवतीका विचाह। कुवलयाहं चरित्रका वर्णन पिताके द्वारा कुचलयाइचका चरित्र वर्ण पिता के द्वारा कुबलयाश्व का राज्याभिषेक एवं Kaca घरमें sag सुनिका आगमन और उनकेद्वारा धन्ध राक्षस चरित्रका वणेन पिताकी आज्ञांसे कषलयाश्व का उत्त साथ धुन्धु राक्षल को मारने के लिये जाना Ia 4

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( )

समा द्वादश भो चिप्रास्तेनाधर्मेण वे तदा | दासस्तु तस्य विषये चिश्वामित्रो महातपा: सन्यस्य सागरास्तेतु चकार चिपुळं तप: | तस्य पल्लो गले agar मध्यमं पुत्रमौरसम्‌ शेषस्य भरणाथांय व्यक्रीणादु गोशते वे। तं बद्ध गले - हुए था बिक्रमाथं नपात्मजः महषिपुत्र धर्मात्मा मोश्चयामास भो द्विजाः खत्यत्रतो महावाहुर्भेरणं तस्य चाकरोत्‌ विश्वामित्रस्य तुष्ट यर्थम नुकम्पाथमेव सोऽभघद्गाळचोनाम गलेवन्धान्महातपाः महर्षि: कौशिको धीमांस्तेन वीरेण मोक्षितः |

वर्णनम्‌

अद्ध शकातां शिरलो मुण्डयित्वा व्यसजेयत्‌ |

यघनानां शिरः सवं काम्बोजानां तथेच | पारदा सुक्तकेशाश्च .पहनवाः शमश्चुधारिणः |

का वध | धुन्धुमार को उत्तङ्क का घरदानः। ध॒न्ध॒मार के dad होने चाले राजाओं का संक्षेप में चरित्र चणेन। सत्यत्रत राजाका चरित्र वर्णन एवं mga चरित्र कथन |

सत्यत्रतचरित्रवर्णनम्‌, सगरोपार्यानवर्णनम्‌, सगरवश-

६०

सत्यवतका त्रिशंकु नाम प्राति करना, सशरीर त्रिशंकु का सुवर्ग जाना। हरिश्चन्द्र का जन्म कथन |

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(<)

. ` जननःस्वाध्यायवषट्काराः इतास्तेनःमहात्मना '

शाका यघनंकाग्बोजाः. पारदाश्चः द्विजोत्तमाः |

कोणिसर्पा माहिषका . दर्घाश्चोलाः सकेरलाः | राजा सगर का अश्वमेध यज्ञ करना। घोड़े को खोजने के लिये पृथ्वी को खोदते हुये साठ हजार सगर के पुत्रों को कपिल सुनिका शाप। अवशिष्ट चार पुत्रोंको कपिलजी का वरदान | साठ हजार पुत्रों का जन्मकथन |

घृतपूर्णेषु कुम्भेषु तान्‌ गर्भान्निद्धे ततः |

धात्रीश्रेकेकशः प्रादात्तावतीः पोषणे TG:

ततो दशखु मासेष समुत्तस्थयंथा क्रमम्‌ |

कुमौरास्ते यथाकालं सगरप्री तिवद्धंना:

षष्टि पुत्र सहस्राणि तस्यैवमभवन्‌ द्विजा: | भगीरथ की उत्पत्ति गंगाका भागीरथी ना जाल |

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करना | | ) _ & सोमोत्पत्तिवर्णनम्‌ . ७०: अत्रि ऋषि का तप करना एवं अत्रि के नेत्रों द्वारा दश तरह |

की सृष्टि का घर्णन | चन्द्र की उत्पत्ति ।: चन्द्र का बीज | और औषधियोंका खामी बनना एवं राजसूय यज्ञारंभ चन्द्र द्वारा वृहस्पतिजी की स्री तारा का हरण उसके निमित्त देव | दानधों का युद्ध वृहस्पति को तारा की. प्राप्ति गे त्याग | के लिये तारा के प्रति बृहस्पति का कोधयुक्त qaa कहना। इषीकास्तम्व में तारा द्वारा गर्भे त्याग एवं वुधका gatal |

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( ६') १७ सोमवंशवर्णनम . ७३

सोम पुत्र बुध के अंश से पुरूरवा की उत्पत्ति पुरूरचा के | पुत्र का आख्यान चणन। गाधिराजका जन्म गाधि कन्या ada ada ऋषिके साथ विवाह एक समय सत्यचती एवं उसको माता ने पुत्र के लिये ऋचीक से प्रार्थना की तद्नन्तर ऋचीक ने दोनो' के लिये दो चरुओ' का निर्माण किया पुनः सत्यवती ने माता को अपना चरु | दिया एवं माता का आप भक्षण कर गई इससे उलट-पलट | सन्तानो का जन्म सत्यवती के प्रति ऋचीक का वरदान ) जमदग्नि की safal रेणुका एवं ana का चिवाइ। परशुराम को उत्पत्ति। विश्वामित्र का जन्म एवं तप आदि का वर्णन | | ११ सोमवंशवर्णनमायुषंशवर्णनश्च ८० | आयु के पांच पुत्रो की उत्पत्ति। रजिका चरित्र वर्णन | रजि से ५०० सौ पुत्रों की उत्पत्तिकथन। देच graat : "का युद्ध दैत्यो' को जीतने के लिये देवताओ द्वारा रजि की प्रार्थना करना रजि द्वारा इन्द्रपद की मांग करना 'तदनन्तर रजि ने दैत्यो को हरा दिया पुनः रजिको इन्द्र पद - की प्राप्ति। .रजि और इन्द्र का प्रेमालाप। रजि के

पुत्री द्वारा इन्द्रपद का हरण करना एवं इन्द्र द्वारा उनका चघ। इन्द्र को अपने पद की प्राप्ति। राजा अनेना का

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“निमित्त कुरुक्षेत्र का चरणन

( १० ) | ` -खन्तान का वर्णन। धनु नाम के राजा से धन्वन्तरिका जन्म तथा भरद्वाज से आयुवेद की प्राप्ति। आयुवेद हे आठ भाग करके अपने शिष्यो' को वितरण करना काशी को निकुम्भ का शापदान तथा शाप के अन्त में अछके द्वारा पुनः स्थापना करना | | १२ सोमवंशवर्णने ययातिचरित्रवर्णनम | ८६. नहुष से ययाति आदि पुत्रो का जन्म | ययाति के वंश का घणन। ययाति से पञ्च पुत्रो की उत्पत्ति। मज्जरां गृहाण” मेरी वृद्धावस्था को ग्रहण करो इस प्रकार ag के प्रति ययाति की आज्ञा | जरा नहीं ग्रहण करो \ चाळे यदु को ययातिका शाप | पुरुसे ययातिको युचाचस्था / का दान और भोगनेके वाद ययातिको ज्ञान | जातु कामः कामानासुपभोगेन शाम्यति | हविषा छृष्णवत्मेव भूयएचामिवद्धंते | यत्‌ऽथिव्यां धीद्वियवं हिरण्यं पशचः स्ियः | | Tang मेकस्य तत्सवे मिति छत्वा मुह्यति | १२ पुरुवंशवर्णनम्‌ | पुरुवंश का घर्णन। दुष्यन्त का जन्म | भरत की उत्पत्ति भारता इति संज्ञा” जह

Hr पुस्वश के अन्तर्गत वंगवंशकथन। |

ढुष्यन्त से शकुन्तळा नामक पल्लो | भरत प्रभ्नति वंश जातानां पुरुषाणां

के द्वारा गङ्गाजी को शाप [कुरु से

सोम वंश मैं प्रसिद्ध शान्तः |

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(१ ११) ))

आदि जनमेजय तक राजाभो' का चर्णन। पुरु वंश की o समाप्ति | कार्तेबीर्यारजन का चर्णन कातेचीय को आपच मुनि का शाप | | १४ यदुपृत्रक्रोष्ट्वंशवरणेनंम्‌ ` ११२ यढु के पुत्र क्रोष्टु के वंशका घर्णन। घखुदेव का जन्म चसुदेच की चौदह पत्नियों की नामावलि! संक्षेप में कष्ण जन्मचर्णन | कालयचन के भय से कृष्ण सहित यादवो का ( पलायन ) भाग ATA | मानुष्यां गर्गभार्यायां नियोगाच्छुलपाणिनः | कालय़वनो नासा! जशे राजा महावलः

१५ वृष्णिवंशवर्णनमु . ११७ चमत्कार युक्त राजा ज्यामघ का चरित्र घर्णन। चच्चुए ? daa की महिमाका वर्णन ! देघकके सात कन्याओं का उत्पन्न होना एवं कंस का जन्म | |

१६ सत्राजिदुपाख्यानवर्णनम्‌ स्यमन्तकोपाख्यानम्‌ १२४ सत्राजित्‌ के चरित्र का घर्णन। स्यमन्तक मणि का आख्यान कृष्ण का जाम्ववती के साथ विवाद RATA mana से स्यमन्तक मणि का लौना। कृष्ण और सत्यभामा का विचाह बर्णन |

१७ स्यमन्तकोपाख्यानवर्णनम्‌ . १२६ स्यमन्तक के लिये शतधन्वा के दारा सत्राजित्‌ की Rul

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( १२ ) अक्रूर के पास स्यमन्तक मणि का मिलना | | १८ भुवनकोशद्वीपवर्णणनमा ' . ` १३६ . मुनियों का लोमहर्षण के साथ संवाद भूगोल का वर्णन। _ सप्त द्वीप का घर्णन। | एते द्वीपाः समुद्रैस्तु सप्तसप्तमिरावृताः | | ळवणेक्षु छुरासरपिद्‌ थिदुग्धजलैः समम॥ ` |

जमवू द्वीप का वर्णन एवं मेरु पर्वत का धर्णन ak खण्डों का घर्णन |

अनीलोत्तरमम्भोधि समभ्येति द्विजोत्तमाः आनीलनिषधायामौ माढयघदुगन्धमादनौ | तयोमेध्यगतो मेसः कणिकाकारसंस्थित: | भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा पत्राणि लोकशेळाख्य मर्यादा शेल वाह्यतः | |

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जठरो देवकूरश्च मर्यादापर्वताचभौ तौ दक्षिणोत्तरायामाबानीळनिषधायतौ | | गन्धमादनकेलासौ पूर्व पश्चात्त॒ तावभौ | ` अशीति ।जनायामावर्णचान्तरव्यबस्थिती i | निषधः ` पारियात्रश्च मयादापचेतावभौ | | तौ दक्षिणोत्तरायामावानीलनिषधायतो | | मेरोः पश्चिम दिग्भागे यथा | मर्यादा पत्रतों का वर्णन |

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पू्षो तथा स्थितौ

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( १३ )

१९ जम्बृद्वीपञर्णनम्‌ pap ggo भारतवषका चणन। नदी एवं उपनदियोंकी नामोत्पत्तिका कथन जम्बद्वीप की प्रशंसा वर्णन | गायन्तिदेवाः 'किलगीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे | स्वगांपचगास्पदहेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषा मनुष्या: कर्माण्यसंकल्पिततत्फलांनि संन्यस्यचिष्णो . परमात्मरूपे ! अवाप्यतां कमें मद्दीमनन्ते तस्मिंह॒यं ये त्वमलाः प्रयान्ति जानीम नो तत्तु चयं AA स्वगंप्रदे कर्मणि देहबन्धम्‌ | प्रप्स्यन्तिधन्याः खळु ते मनुष्या ये भारतेनेन्द्रिय विप्रहीना

२० जम्बूढीपचर्णनम्‌, समुद्रदीपपरिमाणवर्णनश्व १४३ जस्वूढीपका वर्णन प्लक्षद्वीपता घर्णन तथा चहां पर रहने चाळे मनुष्यों की आयु का प्रमाण MAZAN, कुशहीप, क्रोज्चद्वीप, maA, पुष्करद्वीप और लोका लोक पदत का घर्णेन। _ |

२१ पातालग्रमाणवर्णनम्‌। ` १५२

पाताळादि सघलोकों का घर्णन तथा अनन्त का पराक्रम वणन |

२२ नरकयणेनस्‌। ` ` En १५३

रोरचादि नरकों की नामाचलि। पापों का वर्णन | पाप से नरक प्राप्ति |

याचन्तो जन्तचः स्वर्ग तावन्तो नरकौकलः | पापक्ृदू याति नरक प्रायश्चित्तपराङ्सुखः

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( १४ ) . पापी पुरुषों के पापों को नाश करने के लिये हरि स्मरणे; आयश्चित्त बताया है। : ` हि | ` .कृते पापेऽनुतापो वे यस्यः पुंसः प्रजायत | | प्रायश्चित्तन्तु तस्यैकं हरिसस्मरणम्परम्‌ | प्रातर्निशि तथा सन्ध्या मध्याह्मादिषु संस्मरन्‌ | 'नारायणमचाप्नोति ` सद्यः पापक्षयान्नरः __चिष्णुखंस्मरणात्‌ ` क्षीणसमस्तक्लेशसञ्चयः | मुक्ति प्रयाति भो विप्रा विष्णोस्तल्यानुकीतेनात्‌ वासुदेवे मनोयस्य जपद्दोमाचनादिषु | | तस्यान्तरायो पिप्रेन्द्रा देवन्द्रत्वादिकं फलम्‌ | 'क नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम्‌ | क्‍ | जपो घाखुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम्‌ | तस्मादहनिशं विष्णं संस्मरन्‌ पुरुषो द्विजः | | -न याति नरक शुद्धः संक्षीणाखिलपातकः ` मनः प्रीतिकरो स्वगो नरकस्तद्विपर्ययः | नरकस्वर्गसंशे वै पापपुण्ये द्विजोत्तमाः | | 'घस्त्वेकमेष दुःखाय सुखायेष्योंदयायच | 'कोपायच यतस्तस्माद्वस्तु दु.खात्मकं कुरु aga प्रीतये भूत्वा पुनदु:खाय ज्ञायते। . तदेव कोपाय यतः प्रसादाय जायते i 'किञ्चित्सुखात्मकम्‌ | RoE 'खाद्लिक्षणः

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| ( १५ )

ज्ञानमेष परं ब्रह्म ज्ञानं बन्धाय चेष्यते . | ज्ञानात्मकमिद्‌ विश्व ज्ञानाद्विद्यते परम्‌ ` २३ भूभुवः स्वरादिलोकवर्णनम्‌। ` १६० | आकाश और पृथ्वी का वर्णन। सौरादि मण्डलो का तथा

भूमुचादि सप्तलोको का प्रमाण बर्णन | मद्ददादि की

| उत्पत्तिका चर्णन | : २४ भ्रुवसंस्थितिनिरूपणम्‌ | १६५ | शिशुमार चक्रका चर्णन भरच स्थिति का वर्णन | वृष्ट्या धतमिदं सवं जगत्स्थावरजङ्गमम्‌ सापि निष्पद्यते वृष्टिः सविता मुनिसत्तमाः

' २४ सवतीथमाहात्म्यवणनम्‌ | ` १६७ शरीर तीर्थ का घर्णन जैसे- | यस्य हस्ती पादौ मनश्चेच सुसंयतम्‌ | | विद्या तपश्च कीत्तिश्च तीर्थ फलमश्नुते ' मनो विशुद्धं पुरुषस्य तीथ वाचां तथा चेन्द्रियनिग्रहश्व एतानि तीर्थानि शरीरजानि' स्वर्गस्य मागं. प्रतिबोधयन्ति | चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्तानैने शुद्धयति | शतशोऽधि जलूधौतं सुराभाण्डमिषाशुचि जितेन्द्रिय पुरुष की प्रशंसा वर्णन संक्षेप से तीथा का NARTA | | प्रथमं पुष्करं तीथं नेमिषारण्यमेच |

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( १६ ? प्रयागं प्रवक्ष्यामि घर्मारण्यं द्विजोत्तमाः . लोहाकुळं सकेदारं मन्दरारण्यमेचच . | | शाकम्मरी देवतीथ सुचणाक्ष कलिह दम्‌ | = ` तीर्थो के माहात्म्य पढ़ने का फळवणन | नाति | २६ स्वयम्भून्रह्मपिसंवादवणनम्‌। ` १७ चेद व्यासजी का मुनियों का संवाद ब्रह्माजी के प्र मोक्ष के विषय में मुनियों का प्रश्‍न TA a २७ भारतवषंवणनम्‌ | १८० भरत खण्ड को प्रशंसा भरत खण्ड में होने घाले पक और नदियों का चर्णन और.घहाँ पर होने वाळे नाना देशे! का घणेन। भरत खण्ड के माहात्म्य का. पठन एवं भ्रव का फल | २८ कोणादित्यमाहात्म्यवणनम्‌ ` ओोण्डू ( उड़ीसा) का घणेन तथा वहां पर रहनेचाले ब्राह्मण कौ प्रशंसा कोणादित्य नामक सूर्य की महिमा का adal सूर्य की पूजा विधि का वर्णन मद्नभञ्जिका नामक याद

का प्रशांसा रामेश्वर नामक शिव लिंग की महिमा की वणन | |

२९ सयपूजावर्णनस्‌]। .. ` १९४ j के ध्यान, पूजा और भक्ति के माहात्म्य का वर्णन! माघे सित सप्तम्यां” माघ मास में सप्तमो के दिन

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( १७ )'

“La आराधना से विशेष फलप्राप्ति का वर्णन :. : ३० आदित्यमाहाम्यवर्णनम्‌ | ; २००

सम्पूर्ण जगत्‌ की उत्पत्ति ada ही है. ऐसा बर्णन आया है। इन्द्र, घाता आदि बारह: सूयो से शत्रनाशा एवं त्रिविध प्रजा की उत्पत्ति आदि्त्याख्यान का फलकथन | ३१ आदित्य-नाममाहात्म्यवर्णनम्‌ | - २०९ त्रिलोकी का मूल एवं परम देव सूर्य ही है ऐसा बताया है असी प्रास्ताहुतिः सम्यग्‌ आदित्यसुपतिष्ठते | _ आदित्याज्जायंते वृश्चि ष्टेरन्नं ततः प्रजाः सूर्यात्प्रसूयते सबं तत्र चेब प्रलीयते | भावाभाची हि लो कानामादित्या न्ञिस्सृतो पुरा आदित्य के सामान्यतः द्वादशनामों का वणन | विष्णु आदि बारह आदित्यों का चेत्र आदि द्वादश महिना में तपन कथन अर्थात्‌ कौनसा आदित्य कितनी किरणों से तपता है इसका ` वर्णन आया है। सूर्यके Rada २१.नामों का वर्णन ' एवं फल कथन; इसका पाठ शरीर आरोग्य, धन और यशको बढ़ानेवांला है। | Ti ३२ मातेण्डजन्ममाहात्म्यंवर्णनम | .. २१३ देत्यो से पीडित 'देवताओ के दुःख नाश.के लिये अदिति द्वारा सूर्य की आराधना एवं स्तुति.। अदिति को ga mama aka प्रार्थना से. सूर्य ने प्रसन्न होकर 2

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( १८ ) | “बर बृण्णीष्व” (घर मांगो )'ऐखा कद्दा। तब अदिति | “पेरे पुत्रों को यज्ञमागी बनाओ में तुम्हारे जन्म: लेक | तुम्हारे शत्रओं का नाश करू गा ऐसा कहते हुए सूये शा

अलक्षित होना देवमाता अदिति के गर्भमें सूयेकी स्थिति

geg एवं चान्द्रायणादि म्रतों से गम घारण करती हु

| अदिति को कश्यपजी ने कहा “गर्माण्डं मारयसि कि

| अर्थात्‌ इतने क्लिष्ट वतादिकों से गर्भ को क्यों नष्ट .करती

| हो agrar पति के aai से क्रोधित अदिति का

गमे त्याग गभाण्ड से प्रकट इए आदित्य की कला

(कश्यप) के द्वारा स्तुति .यह मातेण्ड नामक तुम्हारा पु

होगा इस प्रकार आकाशवाणी हुई आकाशवार्ण)

का चचन सुन कर देवताओं का आगमन मातंण्ड को

,सहायता से देवतार्झा का देत्यों के साथ युद्ध गुढ

में दत्यों की पराजय प्रसन्न हुए देवताओं द्वारा aa |

. स्तुति। सूर्य का संज्ञा के साथ विघाह सूर्य की सन्तारं

का चणन। संज्ञा और छाया का सवाद संज्ञा का पिता

के घर जाना तदनन्तर छाया की संतानों का वर्ण छाया का संज्ञा की सन्तानो के साथ विषद भाव--

पदा तज्जेयसे यस्मात्पितुर्भार्या गरीयसीम्‌ |

है पतिष्यति संशयः॥ ` |

स्तु तेन शः |

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न्यवेद्यत्‌

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( १६ )

त्वष्टा ओर संज्ञा के संवाद में सूर्य चरित्र घर्णन Jaga सूर्येस्तुति। सूर्य के तेज की शान्ति ( शमन ) |

३३ मातेण्डमाहात्म्यवर्णनम्‌ ` २२४

अन्धकार से विमूढ ब्रह्मादि देवों द्वारा सूर्य की स्तुति नमो नमः कारणकारणाय नमो नमः पापविमोचनाय |

. नमो नमस्ते दितिजादेनाय नमो नमो रोगविनाशनाय नमो नमः सरवेवरप्रदाय नमो नमः सर्वसुखप्रदाय |

नमो नमः सवेधनप्रदाय नमो नमः सर्वमतिप्रदाय देवताओं को सूर्यदेच का चरदान। रबि के १०८ नामों का माहात्म्य (Dadisa इत्यादि से मैत्रेयः करुणान्वितः इत्यन्त ) और उसका फल |

३४ रुद्राख्यानदणनम्‌ | २३०

रुद्र की महिमा का वर्णन संक्षेप से दृक्षकथा। सती आदि दक्ष पुत्रियो का यज्ञोत्खच देखने के लिये पिता के घर जाना। दक्ष और सती का संवाद क्रोधयुक्त सती का

योगाग्नि से शरीर दाह शंकर और दक्ष का परस्पर शाप दान ब्रह्मा और सुनियों का संचाद्‌ |

पावत्युपार्यानवर्णनम्‌ . २३८

पार्वती के आख्यान का आरस्म। हिमालय से उमा की

डत्पक्ति। कश्यप और हिमालय का संवाद . तप करते हुए हिमालय को ब्रह्मा का घरदान। हिमालय. से मेना

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( २२ 2 -नामक पत्नी'में.तीन कन्याओं की उत्पत्ति एवं उनका. न. करण तप करती हुई पावती को ब्रह्मा का घरदान। | ३४ पार्वत्युपाख्याननणनम्‌ . ` उमा का देवताओं के साथ संवाद विङतरूपधारी aa का पावती के पास जाना aa रूप का वर्णन जैसे - | चिङृतं रूपमास्थाय हरुघो बाहक एच | | विभझनासिको भूत्वा कुव्जः केशान्त पिङ्गलः

शिव पावती का. संवाद |

पा्वेतीजी कहती हैं-- ..

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भगचन्न स्वतन्त्राह पिता मे त्वग्रणीग्रहे | |

प्रभुमेम दाने वे कन्याहं द्विजपुडुच ` 3 गत्वा याचस्व पितर मम शेलेन्द्रमव्ययम्‌ | |

चेद्ददाति मां विप्र तुभ्यं तदुचितं मम pa ka का हिमालय के साथ चार्ताळाप। | ` “सा जान कर पावली का शिवजी को वरण

करना | | अशोक वृक्ष के प्रति शिवजी का वरदान | शिवजी बा अन्तर्धान होना मह से ग्रस्त बालक का रोदन एवं पार्वती तथा आह का संवाद | “मेरा तप नष्ट हो गया” यह ज्ञात कर पावेती का युनः तप करना और पार्वती को क.

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का धरदान। ,, |

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((२ १. )

३६ पावतीस्वयम्वरवर्णनम्‌ २४९

पाचंती के स्वयम्बर में सम्पूर्ण देवताओं का .आना | देवताओं द्वारा पावती की प्रशंसा शिशु रूप से पार्वती की गोद में शंकर का शयन। कोधयुक्त इन्द्रादि देवताओं द्वारा शिवजी पर शस्र प्रहार शिवजी ने सम्पूर्ण देवताओं को अपनी माया से स्तम्भित (रोका) किया | सम्पूण देचताओं को छुड़ाने के लिये ब्रह्माजी द्वारा शिघस्तुति

प्रधान पुरुषो यस्त्वं ब्रह्म ध्येयं तदक्षरम्‌

अस्तं परमात्मा ईश्वरः कारणं महत्‌

ब्रह्म सक्‌ प्रतेः स्रष्टा स्चेत्‌ प्रकृतेः परः |

इयञ्च प्रकृति देधी सदा ते सृष्टि कारणम्‌

पत्नी रूपं समास्थाय जगत्कारणमागता | स्तुति सुन कर शंकर का प्रादुर्भाव। पावेती के द्वारा शंकर के चरणां में माला का अर्पण। ब्रह्माजी का हिमालय की प्रशंसा करना शिवजी के विवाह के लिये ब्रह्माके द्वारा

जगर का निर्माण देव-गन्धर्वांदिकों का आगमन एवं

घसन्तादि षर्‌ ( ) ) ऋतुओं का आना | असितजलदधीरध्चानचित्रस्तहंसा |

घिमलस लिलधारोत्पातनप्रोत्पलाग्रा सुरभिकुसुमरेणक्लप्तसर्वाङ्गशोमा | गिरिदुहितृविचाहे प्रावृूडाविबभूच निर्मुक्तासितमेघकञ्चुकपरा पूर्णन्दुविम्बानना। .

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( २२ )

" : नीलाम्भोजविलोचना रविकंरप्रोट्धिन्पदुमस्तनी . Oooo. नानापुष्परजःसुगन्थिपचनप्रह्मादिनी चैतसाँ | | तत्राऽऽसीत्कलहंसनूपूररषा देव्या विघाहे शरत्‌

अत्यर्थं शीतलाम्भोमिः प्लावयन्तौ दिशः सदा

ऋतू हेमन्तशिशिरौ आजग्मतु रतिद्युती

चिचाहे गिरिकन्याया qaa: समगाहुतुः। विधिपूर्वक पार्वती और शांकर का विवाह |

३७ शिवस्तुतिवर्णनम्‌ २६१ dana महेश्वर की स्तुति | पुरुषाय नमस्तेऽस्तु पुरुषेच्छाकराय | नमः पुरुषसंयोगप्रधानगुणकारिणे | प्रचतकाय प्रकृतेः पुरुषस्य सवश: | कृताकृतस्य सत्कत्र फलसंयोगदाय शिचजी के सम्मुख देवताओं का घर के लिये आना aa गणों के साथ महादेवजी का अपने स्थान पर ज्ञाना। | २८ मदनदहनवर्णनम्‌ | २६९. कामदेव का महेश्वर की नेत्राग्नि से दाह। रति को महेश्वर का वरदान पारवती और शंकर का क्रीडन पारवती का माता के घर जाना माता मेना के द्वारा पार्वती का

उपहास महादेव के आगे माता के उपहास का aal

पावंतांके क्रोध शान्तिके Sa CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi महादेवका सुन्दर ae

( २३ ),